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All India Rank Review: वही बासी कहानी... पिता की हसरतें, मां का लाड और आइआइटी के बोझ तले दबा बेटा

All India Rank के साथ गीतकार वरुण ग्रोवर ने निर्देशकीय पारी शुरू की है। हालांकि इस नये सफर पर निकलने के वरुण ने साजोसामान पुराना ही चुना। आइआइटी में दाखिले की आपाधापी और जिंदगी बदल जाने का सब्जबाग। ऑल इंडिया रैंक ऐसे ही विषयों पर बनी फिल्मों और सीरीज का एक विस्तार मात्र है और अलग से कुछ योगदान नहीं करती।

By Jagran News Edited By: Manoj Vashisth Fri, 23 Feb 2024 07:32 PM (IST)
All India Rank Review: वही बासी कहानी... पिता की हसरतें, मां का लाड और आइआइटी के बोझ तले दबा बेटा
All India Rank released in Cinemas. Photo- Instagram

स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। All India Rank Review: गीतकार और लेखक वरूण ग्रोवर ने 'आल इंडिया रैंक' से निर्देशन में कदम रखा है। फिल्‍म दम लगा के हईशा के गाने मोह मोह के धागे के लिए राष्‍ट्रीय अवार्ड जीत चुके वरूण ने खुद आइआइटी बीएचयू से पढ़ाई की है।

उन्‍होंने परीक्षा का दबाव, माता पिता की आकांक्षाओं के माहौल को करीब से देखा है। बतौर निर्देशक अपनी फिल्‍म का विषय भी बच्‍चों पर जबरन थोपे गए करियर को चुना। इसी विषय पर आमिर खान, आर माधवन और शरमन जोशी अभिनीत थ्री इडियट्स (3 Idiots) और ऋतिक रोशन अभिनीत सुपर 30 (Super 30) सुपरहिट रही थीं।

वहीं, बीते दिनों रिलीज 12वीं फेल (12th Fail) में आइएएस बनने के जुनून को देख ही चुके हैं। इंजीनियरिंग की तैयारी को लेकर बनी वेब सीरीज कोटा फैक्ट्री भी काफी लोकप्रिय हुई थी। ऐसे में कंटेंट की रेस में वरूण पीछे रह गए हैं।

बाप की हसरतें, मां का लाड और कन्फ्यूज बेटा

कहानी लखनऊ में साल 1997 में सेट है। जब फोन या गैस का कनेक्‍शन लेने में बहुत समय लगता था। बिजली विभाग में कार्यरत आर के सिंह (शशि भूषण) अपने बेटे विवेक को आइआइटी की तैयारी के लिए कोटा लेकर जाते हैं। विवेक लखनऊ में रहकर ही अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहता है, लेकिन पिता का सपना उसे आइआइटी इंजीनियर बनाने का है।

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उन्‍हें लगता है इज्जत तो आइआइटी करने वाले छात्रों की होती है। मीठे की शौकीन और डायबिटीज की मरीज विवेक की मां (गीता अग्रवाल शर्मा) भी इस मामले में हथियार डाल देती है। आर्थिक तंगी के बावजूद वह अपने इकलौते बेटे की सभी सुविधाओं का ध्‍यान रखते हैं।

विवेक जीजान से परीक्षा की तैयारी में जुटता है। इस दौरान उसे अपने जैसे ही दो सीनियर्स मिलते हैं। एक दिखाता है कि पढ़ता नहीं, जबकि जमकर तैयारी करता है। दूसरे को संगीत का शौक है। उसने गिटार किसी और काम के लिए भेजे गए पैसों से खरीदा है।

कोचिंग की सहपाठी सारिका कुमारी (समता सुदीक्षा) को लेकर विवेक के मन में प्रेम के कोपल फूटते हैं। धीरे-धीरे दोनों एकदूसरे को पसंद करने लगते हैं। उधर, माता-पिता को घरेलू और पेशवर जिंदगी में कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। वे इस उम्‍मीद में हैं कि बेटा आइआइटी में चुन लिया गया तो सारी समस्‍याएं हल हो जाएगी। उम्‍मीदों के बोझ तले दबा विवेक और माता पिता की हसरतें कहां ठहरेंगी, कहानी इस संबंध में है।

यादों को समेटा, लेकिन नया कुछ नहीं 

वरूण ग्रोवर ने पिछले सदी के नौवें दशक की यादों को खूबसूरती से ताजा किया है। मसलन पीसीओ पर एक काल में ही अपनी बात कहना, टूटे पैसे ना होने पर दुकानदार का टाफी पकड़ा देना। मां का सेक्‍स शब्‍द को बोलने में झिझकना और कागज पर लिखकर देना।

वयस्‍क होने की तरफ कदम बढ़ रहे विवेक की शारीरिक आकांक्षाओं की झलक भी देते हैं। इस विषय को पहले भी कई बाद पर्दे पर दर्शाया जा चुका है। यहां पर घटनाएं नीरस लगती हैं।

जीवन को भौतिकी और गणितीय समीकरणों से जोड़ने वाले रूपक भावनाओं को उत्तेजित करने में बहुत कम योगदान देते हैं। हम पात्रों या उनकी दुविधाओं से जुड़ाव नहीं महसूस कर पाते हैं।

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कलाकारों ने अपने किरदारों साथ न्‍याय किया है। विवेक की आकांक्षाओं, इच्‍छाओं और सामाजिक दबाव को बोधिसत्व शर्मा ने समुचित भावों के साथ जिया है। वह बेहद मासूम लगे हैं। बेटे की भलाई और पति की जिद के आगे नतमस्‍तक होने वाली मां की भूमिका में गीता अग्रवाल शर्मा जंची हैं।

वहीं, पिता की भूमिका में शशि भूषण का काम सराहनीय है। आखिर में गणित की इक्‍वेशन से जीवन के बारे में बताया है कि हम सब जीवन में अपना कंट्रोल खोज रहे हैं। पटकथा में फिल्‍म वह कंट्रोल खोती नजर आई है। व्यंग्य लिखने में माहिर वरूण यहां पर अपनी स्क्रिप्‍ट को सरस बनाने में नाकाम रहते हैं।