तवायफों के दर्द की दास्तान है रज्जो
मुंबई। महाराष्ट्र राज्य सरकार में सालों नौकरशाह के रूप में सेवाएं दे चुके विश्वास पाटिल भी उन्हीं लोगों में से एक हैं, जिन्हें सिनेमा से प्यार है। सरकारी मशीनरी संचालित करने के अलावा उन्हें लेखन का भी शौक रहा है। कंगना रनौत अभिनीत फिल्म 'रज्जो' के निर्देशन से उन्होंने फिल्मों
मुंबई। महाराष्ट्र राज्य सरकार में सालों नौकरशाह के रूप में सेवाएं दे चुके विश्वास पाटिल भी उन्हीं लोगों में से एक हैं, जिन्हें सिनेमा से प्यार है। सरकारी मशीनरी संचालित करने के अलावा उन्हें लेखन का भी शौक रहा है। कंगना रनौत अभिनीत फिल्म 'रज्जो' के निर्देशन से उन्होंने फिल्मों में बतौर निर्देशक दस्तक दी है। विश्वास पाटिल से फिल्म को लेकर बातचीत।
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फिल्म की कहानी आपके दिमाग में कैसे आई?
मेरे एक पत्रकार मित्र हैं जयंत पवार। उन्होंने विरार के ब्राह्मण लड़के और तवायफ के प्रेम पर लघु कथा लिखी थी। मुझे वह बड़ी रोचक लगी और मैंने उस पर फिल्म बनाने की ठान ली। मैंने कहानी डेवलप की और 'रज्जो' बना दी। साथ ही मैंने फिल्म में एक दम तोड़ती कला के संरक्षण की ओर इशारा भी किया है। कल आपका दिल बेगम अख्तर के गाने सुनने को करे, तो वह आसानी से मिल पाना मुश्किल है। वैसी गायकी और कला को हमने न बचाया तो बेगम अख्तर जैसी आवाज सिर्फ किस्से-कहानियों में सुनने को मिलेगी।
इस फिल्म के जरिए और क्या बताने कोशिश की है आपने?
यह फिल्म तवायफों की कला को समर्पित है। सदियों से नाच-गान हमारी सभ्यता-संस्कृति का हिस्सा रहे हैं, जो आदि-अनादि काल से चलता आ रहा है। मौर्य और हड़प्पा सभ्यता के दिनों में नगर सेविकाओं को उच्च पद हासिल था। उन्हें राजाश्रय मिलता था, लेकिन अब उनकी स्थिति बदल गई है। उन्हें बाजार में नाचना पड़ता है। मैं उन्हीं की दर्द भरी दास्तान दिखाना और सुनाना चाहता हूं कि कैसे उन्हें हर उन चीजों से वंचित किया जाता है, जो एक कथित सभ्य समाज में रहने वाले लोगों को बड़ी आसानी से मयस्सर होता है। मैंने उसे बदलती हुई मुंबई की पृष्ठभूमि के मद्देनजर पेश किया है।
तवायफ से इतर हम सेक्स वर्कर के मुद्दे की बात करें, तो क्या उनके पेशे को हिंदुस्तान में वैधानिक मान्यता मिलनी चाहिए?
देखिए, मेरा इशारा और कहीं नहीं, सिर्फ तवायफों की कला की ओर है। वेश्यावृत्ति एक बड़ा मसला है। यह बेहद उलझा हुआ भी है। इस समस्या का कोई एक हल मुमकिन नहीं। सेक्स वर्कर को उनको अपना हक मिलना चाहिए, लेकिन हिंदुस्तान को बैंकॉक में भी तब्दील नहीं होना चाहिए।
कंगना रनौत को कम बजट की और नए डायरेक्टर के साथ काम करने के लिए मनाना कितना आसान रहा?
मैं फिल्म की कहानी को लेकर खुद कंगना से मिला। उन्हें कहानी और अपना किरदार दोनों खूब पसंद आए। फिल्म में उनकी सशक्त भूमिका है और इसे जानदार बनाने के लिए उन्होंने न केवल रिसर्च किया, बल्कि मुंबई स्थित कोठों पर भी गई। सेक्स वर्कर्स से भी मिलीं। उनके हाव-भाव पर ध्यान दिया। एक मायने में देखा जाए तो यह उनकी पहली फिल्म है, जो विशुद्ध महिला केंद्रित है। उसके केंद्र में वे खुद हैं। वे रीयल लाइफ में भी दृढ़निश्चयी और हर हाल में जीत हासिल करने वाली हैं। फिल्म में वे जो रज्जो का किरदार निभा रही हैं, वह भी अपने हक-ओ-हुकूक के लिए हर हद को पार करती है। वह अपने प्यार को बचाने के साथ-साथ अपनी कम्युनिटी के लिए जीती है।
फिल्म चूंकि एक तवायफ की कहानी है, तो जाहिर है कि उसमें गीत-संगीत के साथ मुजरे भी होंगे?
हैं, फि ल्म में पांच मुजरे हैं। गीतों को लिखा है समीर और देव कोहली ने। सभी गीत खूबसूरत हैं। संगीत उत्तम सिंह का है। वे कितने सुरीले हैं यह सभी जानते हैं। कैमरामैन हैं विनोद प्रधान। उन्होंने कई बड़ी और भव्य फि ल्मों की कोरियोग्राफी की है। इन सबके होने की वजह से हमारा काम आसान हो गया और हम अच्छी फि ल्म बना सके।
फिल्म तवायफ और पुरानी दम तोड़ती कला पर आधारित है। वह आज के दर्शकों को कैसे कनेक्ट करेगी?
आज का लड़का चंदू ही तो रज्जो के प्यार में पड़ता है। वह उससे छह साल छोटा है, फिर भी वह रज्जो की ओर आकर्षित होता है। दो अलग-अलग दौर और परिस्थितियों से ताल्लुक रखने वाले लोग कैसे समय के साथ एक- दूसरे के हमकदम बन जाते हैं, फिल्म उस बारे में है। चंदू का रोल किया है अभिनेता पारस अरोड़ा ने।
पारस की जगह 18 साल की उम्र के बहुत से जाने-पहचाने चेहरे हैं इंडस्ट्री में। उन्हें आपने क्यों नहीं लिया?
रजत बरमेचा के पास गया था, पर उनकी अजीब शर्त थी। उन्होंने कहा कि उनकी एजेंसी मेरा इंटरव्यू लेगी। उसके बाद मेरी फिल्म साइन की जाएगी। यह लंबी प्रक्रिया भी थी। लिहाजा मैंने अपने कैमरामैन विनोद प्रधान के साथ बैठकर दूसरे विकल्पों पर गौर फरमाया। पारस अरोड़ा में हमें अपना चंदू दिखा, तो उसे फौरन कास्ट कर लिया।
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