धीरज रखना सीख लिया: कीर्ति कुल्हारी
अभिनेत्री कीर्ति कुल्हारी ने अपने कॅरियर का आगाज 'खिचड़ी द मूवी' से किया था फिर 'शैतान' में नजर आई थीं। इसके बाद उन्होंने एक लंबा ब्रेक लिया। फिर उनकी दो फिल्मों 'राइज ऑफ द जॉम्बी' और 'सुपर से ऊपर' आईं, पर उन्हें मनचाहा रेस्पांस नहींमिला। अब वह 'जल' फिल्म के जरिए दर्शक
मुंबई। अभिनेत्री कीर्ति कुल्हारी ने अपने कॅरियर का आगाज 'खिचड़ी द मूवी' से किया था फिर 'शैतान' में नजर आई थीं। इसके बाद उन्होंने एक लंबा ब्रेक लिया। फिर उनकी दो फिल्मों 'राइज ऑफ द जॉम्बी' और 'सुपर से ऊपर' आई, पर उन्हें मनचाहा रेस्पांस नहींमिला। अब वह 'जल' फिल्म के जरिए दर्शकों के बीच हाजिर हो रही हैं। उनसे बातचीत के अंश:
कहां गायब हो जाती हैं?
मुंबई में ही हूं। बीच में मन मुताबिक काम नहीं मिल रहा था, तो एक ब्रेक ले लिया था। अब जल से वापसी हो रही है। इसमें मैंने बहुत मेहनत की है और ये मेहनत आपको सामने भी दिखेगी। 'जल' मेरे लिए खास फिल्म इसलिए भी है, क्योंकि मैं निजी जिंदगी में जैसी हूं ठीक वैसा ही मुझे फिल्म में किरदार मिला है।
आप निजी जिंदगी में कैसी हैं?
एकदम दृढ़ निश्चयी। जो ठान लेती हूं वही करती हूं। केसर का जो किरदार इस फिल्म में निभाया है, वह आसान नहीं था। भाषा भी मेरी नहीं थी। मैं मुंबई में ही पली-बढ़ी हूं, इस वजह से रेगिस्तान में बोले जाने वाली भाषा की मुझे कोई जानकारी नहीं थी। मैने अपने निर्देशक गिरीश मलिक से भाषा पर काम करने के लिए थोड़ा वक्त मांगा और उन्होंने दिया। मैंने मेहनत की, फिर लोकेशन पर पहुंची। मैं कभी भी चीजों को फॉर ग्रांटेड नहीं लेती। मैंने अपने बदन पर ढेर सारे टैटू सिर्फ किरदार की विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए बनवाए थे।
इंडस्ट्री से सीखी गई अब तक की सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है?
धैर्य रखिए, धैर्य नहीं है, तब मुश्किल हो जाएगी। इस इंडस्ट्री में आपको लंबा समय लगता है और कई बार कम समय में बड़ी सफलता मिल जाती है। दोनों ही स्थितियां सामान्य नहीं है। मेरे साथ भी ऐसा हुआ। 'शैतान' की रिलीज के बाद इतनी तारीफ मिली कि मुझे लगा कि अब स्थितियां बदल जाएगी, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। अच्छे काम का ऑफर नहीं आया। मैंने दो फिल्में की और दोनों नहीं चली। मेरे जो दोस्त थे उनकी असलियत पता चली। विद्या बालन ने एक साक्षात्कार में कहा था कि मैं इंडस्ट्री में दोस्त बनाने के लिए नहीं आई हूं। मैंने भी उसी बात को फॉलो किया। तय कर चुकी हूं कि काम करना है दोस्ती नहीं।
जब काम नहीं था तो फ्रस्टेशन नहीं हुआ?
उससे क्या हासिल होता? मैं कोलाबा में नेवी इलाके में रहती हूं। मेरे पिता जी का बैकग्राउंड नेवी का है। मेरे घर के आस-पास कई ऐसे बच्चे हैं जिनके पास पढ़ने की सुविधा नहीं थी और जो सड़कों पर रहते हैं। उनके स्कूल मराठी माध्यम के थे। मैंने उन्हें दो सालों तक अंग्रेजी और हिंदी पढ़ाई। इस दौरान मुझे अहसास हुआ कि अगर आपको किसी काम में सुख मिल रहा है, तो उसके लिए दुनिया के सारे काम छोडे़ जा सकते हैं। मुझे बच्चों को पढ़ाने का मन आज भी करता है। उनको पढ़ाने के बाद मुझे अहसास हुआ है कि जिस दिन मुझे लगेगा कि अभिनय में मजा नहीं आ रहा है, मैं उसी दिन अभिनय छोड़ दूंगी।
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(दुर्गेश सिंह)