Move to Jagran APP

धरोहर का रखवाला: सुरक्षित है राजकपूर का कैमरा, सहगल का हारमोनियम और प्राण की शायरी

...मैंने खुद देखा है कि नेशनल आर्काइव्स के बरामदे में फिल्में पड़ी थीं और उसका ख्याल रखने वाला कोई था। सूरज की तपिश में फिल्में सड़ रही थीं।

By Manoj KhadilkarEdited By: Published: Thu, 29 Mar 2018 01:59 PM (IST)Updated: Fri, 30 Mar 2018 11:55 AM (IST)
धरोहर का रखवाला: सुरक्षित है राजकपूर का कैमरा, सहगल का हारमोनियम और प्राण की शायरी
धरोहर का रखवाला: सुरक्षित है राजकपूर का कैमरा, सहगल का हारमोनियम और प्राण की शायरी

अनुप्रिया वर्मा, मुंबई। यू-ट्यूब और बाकी माध्यम पर आपको दादा साहेब की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र के विजुअल्स नजर आ जाते होंगे और अगर आप यह मान बैठे हैं कि वह ओरिजिनल फिल्म है, तो आप गलत हैं। चूंकि वह फिल्म तो बर्बाद हो चुकी थी। मगर ज़रा सोचिये, आर के स्टूडियो के कई हिस्से बर्बाद होने के बावजूद राज कपूर के वो स्पेशल कैमरे अब भी किसी इंसान ने सुरक्षित रखे हैं। के एल सहगल का हारमोनियम, देवदास की पीसी बरुआ वाली स्टॉप वाच आज भी उपलब्ध है तो जाहिर है कि सिनेमा से अत्यधिक लगाव रखने वाले सिने प्रेमियों की बांछें ख़ुशी से खिल उठेगी। संजोना आसान नहीं होता, लेकिन इसके बावजूद किसी एक व्यक्ति ने इसे संभव कर दिखाया है।

loksabha election banner

फिल्में बनने में कई साल लगते हैं। थियेटर तक पहुंचने के बाद सिर्फ तीन घंटे। अच्छी रही तो चंद हफ्ते।बहुत अच्छी रही तो कुछ महीने और फिर उस फिल्म का चैप्टर क्लोज़। फिर वो फिल्म इतिहास का पन्ना बन जाती है। दिलचस्पी हुई तो कभी सैटेलाइट चैनलों के माध्यम से दोबारा देख लिया लेकिन इसके बाद आगे? आगे कुछ नहीं। फिर कई सालों बाद जब वह फिल्में कल्ट बन जायें, जो कभी बॉक्स ऑफ़िस पर कामयाब नहीं हुई थीं। चाह कर भी अगर उसे इतिहास के पन्नों में तलाशने की कोशिश की जाये तो कहीं कोई दस्तावेज नहीं मिलता। अभी हाल ही में 14 मार्च 2018 में भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा ने 87 वर्ष पूरे किये लेकिन दुर्भाग्य है कि इस फिल्म के कोई भी दस्तावेज आज मौजूद नहीं हैं। यहां तक कि पोस्टर भी नहीं। आलम आरा ही नहीं, ऐसी कई फिल्में प्रिर्जवेशन के बगैर आज अस्तित्व में हैं ही नहीं लेकिन इसी बीच एक बड़ी उम्मीद की किरण बन कर शिवेंद्र सिंह डुंगरापुर आये हैं, जिनका जुनून फिल्में बनाना तो हैं ही लेकिन उन्होंने इस बात को अधिक तवज्जो दी है कि इतिहास को समेटना और संजोना कितना जरूरी है। फिल्मों के प्रति इसे शिवेंद्र का सिर्फ जुनून नहीं कहा जा सकता, बल्कि सिनेमा के प्रति यह उनका सम्मान भी है, कि उन्होंने सिनेमा के इतिहास को यूं सहेजने की एक बड़ी कोशिश को मुक्कमल किया है। फिल्म हेरिटेड फाउंडेशन, जो कि एक नॉन प्रोफिट फाउंडेशन है, शिवेंद्र ने इसका गठन वर्ष 2014 में किया और भारत की उन तमाम फिल्मों से जुड़े कैमरे, कॉस्टयूम, माइक, पोस्टर्स, रील्स और निगेतिव्स को सहेजना शुरू किया।

यह भी पढ़ें: दक्षिण में बच्चन: चिरंजीवी की इस फिल्म में दिखी बिग बी की पहली झलक

शिवेंद्र की फिल्म ‘द सेल्योलॉयड मैन’ पीके नायर को समर्पित थी। पीके नायर वह शख्स थे, जिन्होंने पुणे फिल्म इंस्टीटयूट में फिल्मों के संग्राहालय पर अनूठा काम किया। शिवेंद्र को यह सोच वही से मिली। साथ ही उन्हें खुद फिल्मों को देखने का शौक रहा। यही वजह रही कि अपने जुनून को ही एक आकार देकर उन्होंने फिल्म हेरिटेज का निर्माण किया और आज उन्हें भारत के ही विश्व सिनेमा के भी कई फिल्मकारों का सपोर्ट मिल रहा है। आपको जानकार हैरानी हो सकती है कि शान-ओ-शौकत और कई शौक रखने वाले शहर मुंबई में शिवेंद्र के शौक कार या बंगला नहीं बल्कि फिल्मों की सुरक्षा को लेकर समर्पण है। चौकीदार के रूप में शिवेंद्र ने अपनी फिल्मेकिंग की कमाई से इस महंगे शौक को पाला है और वह बिना किसी बड़े बजट के जी जान से जुटे हैं। फिल्मों का संरक्षण सस्ता काम नहीं है। इसके बावजूद शिवेंद्र के हौसले नहीं टूटे हैं। श्याम बेनेगल, गुलजार, जया बच्चन, विशाल भारद्वाज, मणिरत्नम जैसे निर्देशकों का साथ मिल रहा है। लेकिन खास बात यह है कि सिर्फ हिंदी सिनेमा नहीं बल्कि विश्व सिनेमा की दुनिया के हस्ताक्षर रहे निर्देशकों ने भी सहयोग के लिए हाथ आगे बढ़ाया है। यह शिवेंद्र की मेहनत का ही नतीजा है कि क्रिस्टोफर नोलान जैसे निर्देशक भारत आने का न्यौता स्वीकार कर रहे हैं और न सिर्फ वह भारत आ रहे हैं, बल्कि फिल्म प्रेसेर्वेशन को लेकर चर्चा करने वाले हैं। 30मार्च से लेकर 1 अप्रैल तक क्रिस्टोफर नोलान कई गतिविधियों का हिस्सा होंगे। इस पूरे कार्यक्रम का आयोजन शिवेंद्र कर रहे हैं और उन्हें कई निर्देशक सपोर्ट कर रहे हैं।

खुद श्याम बेनेगल यह बात स्वीकारते हैं कि फिल्म के संरक्षण का काम एक आसान काम नहीं है और कोई भी व्यक्ति इसे तब तक नहीं कर सकता और इसके महत्व को नहीं समझ सकता जब तक वह इसे लेकर पैशिनेट न हो। वो कहते हैं “ शिवेंद्र में मुझे वह पैशन नजर आया और इसलिए मैंने उन्हें सपोर्ट करने का निर्णय लिया वरना कितने लोग हैं, जो बिना किसी फायदे के अपने खर्चे और मेहनत पर छोटी सी टीम के साथ इस तरह का काम करने निकल पड़े हैं। श्याम कहते हैं “मैं शिवेंद्र को कई सालों से जानता हूं और वह अपने काम में ईमानदार हैं, यह भी जानता हूं। इसलिए मैंने मेरे पास जो भी चीजें थीं, वह मैंने इन्हें दे दी”। श्याम बेनेगल और शिवेंद्र ने जागरण डॉट कॉम को बताया –

कैसे पड़ी नींव?

शिवेंद्र बताते हैं कि 2014 में उन्होंने इस फाउंडेशन की शुरुआत की थी। मेरी फिल्म थी सेल्युलाइड मैन। बहुत कम होता है कि आप किसी अपने काम से ही प्रभावित होते हैं और उसे लेकर आगे बढ़ते हैं. इस फिल्म में मैंने पीके नायर का योगदान दिखाया था कि किस तरह वह सिनेमा से जुड़ीं चीजें संजोते हैं। उनसे ही मुझे प्रेरणा मिली कि मुझे ऐसा काम करना करना चाहिए। शिवेंद्र कहते हैं कि फिल्में खो जाती हैं, ये कभी सोचते नहीं थे हम। लोग फिल्में बनाते हैं और फिर भूल जाते हैं लेकिन मुझे लगा कि फिल्मों में इतना कुछ खो चुका है.इतनी फिल्में थीं, जिन्हें देख कर हम बड़े हुए हैं। उन फिल्मों का नामोंनिशाँ भी अब नहीं है। मेरा बचपन फिल्मों के साथ बीता है। मेरे लिए यह दर्पण था। मैं हाथी मेरे साथी से लेकर संतोषी माता तक देखा करता था। इसी वजह से मैंने इस फाउंडेशन की शुरुआत की। श्याम बेनेगल इसके एडवाईजर प्रमुख बने। फिर गुलजार साहब, कमल हसन जैसे नाम जुड़े। यह जब स्थापित हुआ तो मुझे यह समझ आया कि यह सिर्फ मुंबई फिल्म इंडस्ट्री तक सीमित नहीं रखना है। पूरे हिंदुस्तान के लिए हैं। यह चैलेंज था। हम 2000 फिल्में बनाते हैं लेकिन बचाते कितनी हैं? ऐसे में मैंने तय किया कि हम इस संगठन से सिर्फ फिल्मों को ही नहीं, लॉबी कार्ड्स, स्क्रिप्ट्स, दुर्लभ तस्वीरें जैसी चीजें, पोस्टर्स, शूटिंग ऑब्जेक्ट्स, शूटिंग के सामान, सब कुछ इकठ्ठा करेंगे। इसमें सबसे बड़ी परेशानी है कि हमें सपोर्ट बहुत कम मिलता है लेकिन श्याम बेनेगल जैसे लोगों का साथ मिला।

शिवेंद्र बताते हैं कि श्याम बाबू से उनका जुड़ना गुलजार के वजह से हुआ। गुलजार ने उन्हें राय दी थी कि अगर फिल्मों के बारे में सीखना है तो आपको फिल्म संस्थान जाना ही होगा तो मैं वहां गया लेकिन मैं वापस आ गया। फिर गुलज़ार जी ने श्याम जी को फोन कर दिया कि ये बच्चा जा रहा है। श्याम बाबू ने बाद में अपनी सारी चीजें मुझे दे दी। अपनी फिल्में, डाक्यूमेंट्री मुझे सौंप दी।

जया बच्चन ने सौंपी अमिताभ की फिल्में

शिवेंद्र बताते हैं कि जया बच्चन ने उन्हें अमिताभ और अपनी कई फिल्मों से जुड़ी चीजें मुहैया कराई हैं। शिवेंद्र ने बताया कि उन्हें काफी आश्चर्य हुआ जब वह अमिताभ के घर गए तो उन्होंने देखा कि बकायदा फिल्मों के डाक्यूमेंटेशन के लिए उन्होंने एक कमरा बनवा रखा है, जिसे प्रॉपर तरीके से मौसम के अनुकूल सारी सुविधाएं देकर रखी गई हैं, ताकि फिल्में सुरक्षित रहें।

के एल सहगल का हारमोनियम , पीसी बरुआ की स्टॉप वाच

शिवेंद्र बताते हैं कि कुंदन शाह के देहांत से एक महीने पहले उनकी मुलाक़ात कुंदन से हो गई थी और उन्होंने अपनी सारी फिल्में, स्क्रिप्ट और फिल्म से जुड़ीं चीजें मुझे सौंप दी। उनके अलावा आपको जानकार हैरानी होगी, मगर सच है कि शिवेंद्र अपने हेरिटेज में के एल सहगल का हारमोनियम संजोने में कामयाब रहे हैं। वहीं पी से बरुआ जैसे निर्देशक जिन्होंने देवदास जैसी फिल्म बनाई उस फिल्म के सेट पर जो स्टॉप वाच का इस्तेमाल हुआ था, वह भी अब तक सुरक्षित रखने में कामयाब हो गए हैं। वह कहते हैं कि डबिंग उस दौर में उस स्टॉप वाच इसलिए थी कि सहगल और जमुना को टाइम कर पाएं। बरुआ के नोट्स, उनके टाई,पोशाक, वह सब कुछ काफी हिफाजत से शिवेंद्र ने संभाल कर रखा है। शिवेंद्र कहते हैं कि यह मेरा लक रहा और सिनेमाप्रेमियों के लिए एक बड़ी धरोहर रही कि आरके स्टूडियो में आग लगने और काफी कुछ बर्बाद होने के पहले ही शिवेंद्र को रणधीर कपूर से मिलने का मौका मिला। उन्हें राज कपूर का एक बहुत ही महत्वपूर्ण कैमरा मिला, जो उनकी फिल्में श्री 420, आवारा के दौरान इस्तेमाल हुआ था। वह भी अब सुरक्षित है।

प्राण की लाइफ़ का डाक्यूमेंटेशन

शिवेंद्र बताते हैं कि प्राण के बारे में लोग कम जानते होंगे कि उन्होंने अपनी जिंदगी को और उससे जुड़ी अहम चीजों का सही तरीके से डाक्यूमेंटेशन किया है। उनके परिवार ने सोचा कि सबसे अच्छी जगह फिल्म हेरिटेज फाउन्डेशन ही हो सकता है। प्राण साहब के लेटर्स हैं उर्दू की उनकी पोएट्री है। उनके फोटोग्राफ, उनकी पेंटिंग्स है, उनकी ट्रॉफीज़, उनके फैन मेल्स सब हैं। प्राण साहब को आदत थी कि वह अपने साइनिंग अमाउंट के बारे में लिख कर रखा करते थे। उन्होंने हर चीज संभल कर रखी और अब सब कुछ शिवेंद्र के पास सुरक्षित हैं।

सुनील दत्त की डायरी

शिवेंद्र बताते हैं कि सुनील दत्त को डायरी लिखने का शौक हमेशा से था। वह जब किसी फिल्म की शूटिंग पर जाते थे तो वहां वह इसे लिखा करते थे। सुजाता के दौरान जो कुछ भी था। साधना जो कि कम लोगों से मिला करती थीं, उन्होंने शिवेंद्र को कई चीजें सौंपी है। साधना का हेयर कट क्यों फेमस हुआ और उन्होंने क्यों वैसा कट लिया था। इसका पूरा रिसर्च मैटर उनके पास है। उनकी पूरी स्टडी उनके पास हैं। तरुण बोस, जो को बिमल रॉय से जुड़े रहे, उनकी बेटी ने सत्यकाम के कॉस्टयूम और लेटर्स दिए। तरुण और बिमल काफी अच्छे फोटोग्राफर थे।

क्यों जरूरी है संरक्षण

शिवेंद्र बताते हैं कि इन सबके अलावा उनके पास 500 से अधिक फिल्में हैं। फरहान और जोया की फिल्में हैं। मणिरत्नम ने अपनी फिल्में दी हैं। शिवेंद्र कहते हैं कि वर्ल्ड के इतने बड़े निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन ने खुद हमारे काम को देख कर अपनी तरफ से ख़त लिखा था कि आप जो काम कर रहे हैं, वह बहुत महत्वपूर्ण है और हम आपके काम से बहुत प्रभावित हैं, हम चाहते हैं कि हम आकर आपको सपोर्ट करें और इसके अलावा हमारा एक प्रोग्राम है रेफ्रेनिंग ऑफ़ थे फ्यूचर, तो इस पर हम बात करना चाहेंगे और यही वजह है कि इस कार्यक्रम का आयोजन हो रहा है।

 

आलम आरा न होने का अफ़सोस

श्याम बंगाल बताते हैं कि यह एक महत्वपूर्ण बात है कि इस पर भी सोचा जाये कि आप कितने वक़्त तक और किस कन्डीशन में फिल्मों को संरक्षित कर सकते हैं। श्याम की यह चिंता है कि मुंबई जो कि चारों तरफ से समुद्र से घिरा है, ऐसे में फिल्मस करेक्ट कन्डीशन रख पाना कितना कठिन है। यह एक बड़ी चिंता है। श्याम कहते हैं कि चाहे कितना भी हो, चीजों को नमी से बचाना टफ है लेकिन वह शिवेंद्र की तारीफ़ करते हैं कि उन्होंने अब तक बिना किसी सहयोग के सारा इंतजाम किया है और वह हर हाल में फिल्मों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। शिवेंद्र और श्याम कहते हैं कि इस बात का सबसे बड़ा अफ़सोस है कि आलम आरा को हमने खो दिया। आज हमारे पास कुछ भी नहीं। दुःख इस बात का भी है कि उस दौर के लोग खुद ही सबकुछ डिस्ट्रॉय कर देते थे क्योंकि सिल्वर और नाइट्रेट इतनी मात्रा में होता था कि वह बर्बाद कर दिया जाता था या लोग उसको बेच देते थे। सर्देशर ईरानी के बेटे शापूर थे ने बताया था कि पिताजी को मालूम नहीं है, लेकिन उन्होंने सिल्वर के लिए काफी कुछ बेंच दिया है। श्याम बताते हैं कि उस वक़्त लोग ये खूब बेचा करते थे। शिवेंद्र बताते हैं कि जब न्यूमेटिक आया तो टेलीविजन और फिर डिजिटल का महत्व जाना लेकिन तब तक काफी कुछ बर्बाद हो चुका था। वह कहते हैं कि 1700 फिल्में बनी हैं साइलेंट फिल्मों में। सिर्फ चार और पांच ही फिल्में बची हैं। आप कह सकते हैं साइलेंट इरा की 99 प्रतिशःत फिल्में खो चुकी हैं। शिवेंद्र कहते हैं कि सिर्फ इंडिया में नहीं वर्ल्ड में लोगों ने साइलेंट एरा को नहीं सहेजा है। सिर्फ यादें रह गयी हैं।

राजा हरिश्चंद्र की फिल्म 1913 वाली नहीं 1917 वाली है

शिवेंद्र कहते हैं कि जो सेल्युलाइड रहता है, उसमें तीन लेवल में आपको उसको बचाना होता है। आपके पास पहले जो फिल्में बनती थीं, वह अति ज्वलनशील होती थीं तो जल्दी आग पकड़ लेती थीं लेकिन जिनके पास आज भी वह नेगेटिव नाइट्रेट फिल्म है उसकी क्या क्वालिटी होती है। शिवेंद्र एक दिलचस्प बात यह बताते हैं कि लोग मानते हैं कि दादा साहेब फाल्के की फिल्म राजा हरिश्चंद्र. 1913 में आयी थी। लोग मानते हैं कि आज जो भी फूटेज मौजूद हैं। वह आज संरक्षित हैं। शिवेंद्र दावा करते हैं कि ये वो फिल्म नहीं है क्योंकि दादा साहेब जब बैलगाड़ी से यह फिल्म लेकर जा रहे थे तो वहां आग लग गई थी। तब 1917 में वह पूरी फिल्म रीशूट हुई थी और फिर उस फिल्म को हम देखते हैं। वह ओरिजिनल नहीं है लेकिन कम लोगों को ही इस बात की जानकारी होगी। हमारे पास जो कलियाँ मर्दन है वह 1919 में आयी। उसकी भी ऐसी ही कहानी है।

यह भी पढ़ें: सलमान पर फैसला: क्या 5 अप्रैल से बदल सकती है दबंग की दशा और दिशा

उधर फिल्में जल रही थीं, इधर देव आनंद खुश थे

शिवेंद्र कहते हैं कि मुंबई के एवेरेस्ट इलाके में ही राजकपूर की सारी फिल्में बनती थीं। कई बड़े लोगों की फिल्में यहीं प्रोसेस होती थी। याद हो तो देव आनंद की फिल्म थी फंटूस, उसमें एक सीन था, देव आनंद फायर में घुसते थे। वह यही पर हुआ था। वहां नाइट्रेट की बिल्डिंग थी। वह 1950 में जल गई थी। देव आनंद बहुत खुश हुए थे कि वहां आग लगी जो कि दरअसल, सारी फिल्में थीं। वहां अचानक आग लगी और देव आनंद इस बात से अनजान थे कि कि ओरिजिनल आग लग गई है। फायर के अधिकतर सीन वही होते थे। श्याम बताते हैं कि हालत यह हुई थी कि काफी वक़्त तक वहां बिल्डिंग नहीं बन पायी। श्याम कहते हैं किसी दौर में मुंबई के ताड़देव इलाके में ही फिल्मों की पूरी शूटिंग होने के बाद पोस्ट प्रोडक्शन का काम होता था। अर्देशर ने सारी फिल्मों का काम यही किया था। रिकॉर्डिंग स्टूडियोज होते थे। धीरे-धीरे दादर और अँधेरी तो बहुत बाद में शिफ्ट हुए। यह सेंटर हुआ करता था। ज्योति स्टूडियो जहां आलम आरा शूट हुई थी, ज्योति सबसे पहला स्टूडियो था मुंबई में। फिर सोहराब मोदी का स्टूडियो भी इसी इलाके में था। पतेल्स का स्टूडियो यही था। श्याम कहते हैं कि यह भी एक दिलचस्प बात है कि साइलेंट सिनेमा की सारी फिल्में मुंबई के ताड़देव इलाके में ही शूट हुई थी।

फिल्म आर्काइव्स  में फिल्में यूं ही पड़ी बर्बाद हो रही थी

शिवेंद्र बताते हैं कि 1931 के बाद नित्रेट को काउन्टर करने के लिए एसिटेट होता था, जो कि एक विनेगर सिंड्रोम में लाया गया। अगर उसे सही तरीके से न रखा जाए तो फिल्में गल जाती थीं और स्मेल आ जाती थी। श्याम कहते हैं कि उनकी अपनी फिल्में भी एसिटेट पर शूट होती थीं तो कई फिल्में उनकी भी खत्म हो चुकी हैं। हालांकि जो भी मेरे पास है अब वह डीवीडी के रूप में बची हैं और कुछ ओरिजनल शिवेंद्र के साथ हैं। मंडी नेगेटिव, सुषमा बुरे कंडीशन में है, आरोहन ठीक कंडीशन में है। बहुत सारे नेगेटिव नहीं हैं। जुबैदा के नेगेटिव उसके प्रोड्यूसर के पास हैं। श्याम मानते हैं कि 20 वीं सदी की तकनीक सिनेमा के लिए बनी थी। तकनीक थी, वरना कोई सिनेमा नहीं होता। पेंटिंग और बाकी चीजों का समय खत्म हो सकता है लेकिन साउंड को आप संरक्षित कर सकते हैं। सिनेमा के साथ जो होना चाहिए, इसे कई तरीकों से और बेहद ही सोफिस्केटेड तरीके से संजोने की जरूरत है और सिर्फ नेशनल फिल्म आर्काइव पर हम निर्भर नहीं रह सकते, क्योंकि सरकार कभी भी सिनेमा को लेकर उस कद्र गंभीर नहीं होगी कि उसे संरक्षित करे। सिनेमा को संरक्षित करने के लिए हर हाल में वैसे व्यक्ति की जरुरुत है जो इसे निजी रूप से सँभालने की कोशिश करे और शिवेंद्र वह कर रहे हैं। श्याम कहते हैं कि मुझे याद है कि मैंने खुद देखा है कि नेशनल आर्काइव्स के बरामदे में फिल्में पड़ी थीं और उसका ख्याल रखने वाला कोई था। सूरज की तपिश में फिल्में सड़ रही थीं।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.