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पुण्यतिथि: ज़िंदगी भर 'बेघर' रहे गीतकार कैफ़ी आज़मी को जानिये उनकी बेटी शबाना आज़मी की ज़ुबानी

जो कैफ़ी आज़मी जीवन भर अपने लिए कोई घर न बना सके उन्होंने कई घरों में रौशनी पहुंचाने का काम किया है...

By Hirendra JEdited By: Published: Sat, 14 Jan 2017 02:54 PM (IST)Updated: Thu, 10 May 2018 12:37 PM (IST)
पुण्यतिथि: ज़िंदगी भर 'बेघर' रहे गीतकार कैफ़ी आज़मी को जानिये उनकी बेटी शबाना आज़मी की ज़ुबानी
पुण्यतिथि: ज़िंदगी भर 'बेघर' रहे गीतकार कैफ़ी आज़मी को जानिये उनकी बेटी शबाना आज़मी की ज़ुबानी

हीरेंद्र झा, मुंबई। 10 मई को सुनहरे दौर के मशहूर शायर और गीतकार कैफ़ी आज़मी साहब की पुण्यतिथि है। हाल ही में जागरण डॉट कॉम से एक ख़ास बातचीत में उनकी बेटी और दिग्गज अभिनेत्री शबाना आज़मी ने अपने पिता कैफ़ी से जुड़े कई दिलचस्प किस्से साझा किए। क्या आप जानते हैं 'मकान' जैसी लोकप्रिय नज़्म लिखने वाले कैफ़ी साहब ज़िंदगी भर किराये के मकान में ही रहे, वो कभी अपने लिए एक घर नहीं खरीद सके। 

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बीसवीं सदी के महानतम शायरों और गीतकारों में से एक कैफ़ी आज़मी अपने आप में एक व्यक्ति न होकर एक संस्था थे। उनकी रचनाओं में हमारा समय और समाज अपनी तमाम खूबसूरती और कुरूपताओं के साथ नज़र आता है। पर क्या आप जानते हैं कलम के इस जादूगर को अपने कलमों से बेहद प्यार था? इस बारे में शबाना बताती हैं कि- ''अब्बा के पास कोई और पूंजी नहीं थी, सिवाय उनके कलमों के। उन्हें अलग-अलग तरह की कलमें जमा करने का शौक था। 'मोर्बलांग' पेन उनका फेवरेट था। वो अपने पेन को ठीक कराने के लिए विशेष रूप से न्यूयॉर्क के फाउंटेन पेन हॉस्पिटल भेजते थे और वो बड़े प्यार से अपने कलमों को रखते थे। बीच-बीच में उन्हें निकाल कर, पोंछ कर फिर रख देते। मैं जहां भी जाती उनके लिए कलम ज़रूर लाती। हर बार उनको कलम ही चाहिए होता। कलमों के प्रति कमाल की दीवानगी थी उनमें।"

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शबाना आगे कहती हैं कि- "कैफ़ी आज़मी एक ख़ास तरह के कागज़ पर अपने फेवरेट कलम से लिखते थे। उनका राइटिंग टेबल भी ख़ास तरह का हुआ करता। लेकिन, अब्बा की एक आदत थी। जब भी कुछ लिख कर भेजने की डेडलाइन होती तो उस दिन उन्हें सबसे ज्यादा चिंता अपने कमरे और टेबल की साफ़-सफाई की होती। वो अपना दराज़ साफ़ करते, तभी उनको याद आता कि कई ख़त के जवाब भी उन्होंने नहीं दिए। तो वो हर उस काम में लग जाते जो उस वक़्त गैर-ज़रूरी होता। लेकिन, सच तो यही था कि ये उनके रचनात्मकता का ही एक हिस्सा था। उनके ज़ेहन में उस विषय पर चीजें चलती रहतीं और साफ़-सफाई करते हुए ही वो गीत रच लिया करते।"

शबाना अब्बा को याद करते हुए कहती हैं कि- "उनके कमरे का दरवाज़ा हमेशा खुला रहता। हमारे घर में कभी कोई रोक-टोक नहीं हुआ करती कि अब्बा लिख रहे हैं तो उन्हें डिस्टर्ब नहीं करना। हम बेधड़क उनके कमरे में चले जाते और वो बड़े प्यार से हमारे हर तरह के फ़िज़ूल सवालों का जवाब दिया करते।" शबाना के मुताबिक- जब भी कैफी साहब कुछ लिखते तो ये नहीं कहते कि ये लिखा सुनोगी, वो हमेशा कहते कि एक नज़्म हुआ है सुनोगी? जैसे वो कुछ नहीं लिखते बल्कि कोई अदृश्य ताकत है जो उनसे ये सब लिखवाती है।

प्रोग्रेसिव राइटर्स के अगुआ लोगों में रहे कैफी के बारे में शबाना ने बताया कि उनके कथनी और करनी में कभी कोई अंतर नहीं रहा। अगर वो महिलाओं के हक की बात लिखते थे तो वो घर-परिवार, समाज की महिलाओं को भी बराबरी का दर्ज़ा देते थे। शबाना कहती हैं कि अपने जीवन के अंतिम दिनों में कैफी साहब को जब ब्रेन हेमरेज के बाद पैरालिसिस अटैक हुआ तो उन्होंने अपने गांव मिज़वां जाने की इच्छा जताई। उस गांव में जहां सड़कें नहीं थीं, बिजली नहीं था, औरतों की स्थिति काफी दयनीय थी तो वहां भी वो चुप नहीं बैठे। मिजवां में उन्होंने उन सबके हक़ में इसी नाम से एक एनजीओ शुरू किया और तब जब उस गांव का नाम तक लोग नहीं जानते थे आज उसे सब जानते हैं, वहां चीज़ें धीरे-धीरे बदलनी शुरू हुईं। जो कैफ़ी आज़मी जीवन भर अपने लिए एक घर नहीं बना सके उन्होंने कई घरों में रौशनी पहुंचाने का काम किया।

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बता दें कि गीतकार के रूप में कैफी आज़मी की कुछ प्रमुख फ़िल्में हैं - शमा, गरम हवा, शोला और शबनम, कागज़ के फूल, आख़िरी ख़त, हकीकत, रज़िया सुल्तान, नौनिहाल, सात हिंदुस्तानी, अनुपमा, कोहरा, हिंदुस्तान की क़सम, पाक़ीज़ा, हीर रांझा, उसकी कहानी, सत्यकाम, हंसते ज़ख्म, अनोखी रात, बावर्ची, अर्थ, फिर तेरी कहानी याद आई आदि।


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