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पल दो पल के नहीं वो युगों के शायर हैं, पुण्यतिथि पर याद आये साहिर लुधियानवी

ये कूचे, ये नीलामघर दिलकशी के,ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के,कहां है कहां है मुहाफ़िज़ खुदी के? जिन्हें नाज़ है हिंद पर,वो कहां हैं?

By Hirendra JEdited By: Published: Wed, 08 Mar 2017 01:18 PM (IST)Updated: Thu, 25 Oct 2018 02:38 PM (IST)
पल दो पल के नहीं वो युगों के शायर हैं, पुण्यतिथि पर याद आये साहिर लुधियानवी
पल दो पल के नहीं वो युगों के शायर हैं, पुण्यतिथि पर याद आये साहिर लुधियानवी

मुंबई। आज साहिर लुधियानवी की 38 वीं पुण्यतिथि है। इतने वर्षों के बाद भी साहिर सबको याद हैं तो यह करिश्मा है उनके लिखे गीतों का! भारत लोकगीतों व गीतों का देश है। हर मौके के लिए हमारे कल्चर में ढेरों गीत हैं। गीतों के इस समृद्ध विरासत को और भी समृद्ध किया है हिंदी सिनेमा ने। कई गीतकार हमारे बीच से निकले जिन्होंने शब्दों को नए मायने दिए और अपनी गीतों से संवेदनाओं को एक नयी उंचाई दी। एक ऐसे ही गीतकार और शायर हैं- साहिर लुधियानवी। 

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कैफ़ी आज़मी ने अपने दोस्त और शायर साहिर साहब के लिए कहा है- "साढ़े पांच फ़ुट का क़द, जो किसी तरह सीधा किया जा सके तो छह फ़ुट का हो जाए, लंबी लंबी लचकीली टांगे, पतली सी कमर, चौड़ा सीना, चेहरे पर चेचक के दाग़, सरकश नाक, ख़ूबसूरत आंखें, आंखों से झींपा –झींपा सा तफ़क्कुर, बड़े बड़े बाल, जिस्म पर क़मीज़, मुड़ी हुई पतलून और हाथ में सिगरेट का टिन।" साहिर के व्यक्तित्व का इससे बेहतर डिस्क्रिप्शन आपको शायद ही मिले।

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8 मार्च 1921 को जन्में मशहूर शायर साहिर लुधियानवी ने 59 साल की उम्र में 1980 में दुनिया को अलविदा कहा था। लेकिन, उनके गीत आज भी उतने ही ताजा और अर्थपूर्ण नज़र आते हैं। उनकी शायरी और नगमों के अलावा कई किस्से भी मशहूर हैं। मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम और उनकी प्रेम कहानी भी इन्हीं में से एक है। जैसे साहिर को लेकर एक यह किस्सा काफी प्रचलित है कि वो एक बार कार से लुधियाना जा रहे थे। मशहूर उपन्यासकार कृश्न चंदर भी उनके साथ थे। शिवपुरी के पास डाकू मान सिंह ने उनकी कार रोक कर उसमें सवार सभी लोगों को बंधक बना लिया। जब साहिर ने उन्हें बताया कि उन्होंने ही डाकुओं के जीवन पर बनी फ़िल्म 'मुझे जीने दो' के गाने लिखे थे तो उन्होंने उन्हें सम्मानसहित जाने दिया था।

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यह करिश्मा था शायर साहिर का! उनके शब्दों और गीतों ने हिंदी सिनेमा और हिंदुस्तान की अवाम पर भी एक गहरा असर छोड़ा है। आज भी प्यासा फ़िल्म से उनकी यह पंक्तियां कितनी प्रासंगिक जान पड़ती है। "ये कूचे, ये नीलामघर दिलकशी के,ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के,कहां है कहां है मुहाफ़िज़ खुदी के? जिन्हें नाज़ है हिंद पर,वो कहां हैं?" ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं। आज ही नहीं आने वाले कल और अगली सदी के शायर हैं साहिर। 1963 में आई ताजमहल के लिए उन्हें फ़िल्मफेयर अवॉर्ड से नवाजा गया। इसके बाद 1976 में उन्होंने कभी कभी के गीत 'मैं पल दो पल का शायर हूं' के लिए भी फ़िल्म फेयर जीता।


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