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भारत में पाकिस्तानी फिल्म रिलीज न होने का मलाल

जागरण फिल्म फेस्टिवल में पाकिस्तानी फिल्म निर्माता खालिद अहमद ने भारत में पाकिस्तानी फिल्मों के रिलीज नहीं किये जाने को लेकर चिंता जताई है।

By anand rajEdited By: Published: Sun, 03 Jul 2016 12:50 AM (IST)Updated: Sun, 03 Jul 2016 06:42 AM (IST)
भारत में पाकिस्तानी फिल्म रिलीज न होने का मलाल

स्मिता श्रीवास्तव, नई दिल्ली । पाकिस्तान में हिंदी फिल्में रिलीज होती हैं। ठीक उसी तरह हिंदुस्तान में पाकिस्तानी फिल्में रिलीज होनी चाहिए। यह कहना है पाकिस्तानी फिल्म निर्माता खालिद अहमद का। उन्होंने अपनी यह शिकायत 'सिनेमा बियांड बॉडर्स' नामक विषय पर आयोजित परिचर्चा के दौरान व्यक्त की। परिचर्चा की मेजबानी विख्यात समीक्षक मयंक शेखर कर रहे थे। परिचर्चा में खालिद के अलावा पाकिस्तानी फिल्म निर्माता सबीहा समर भी थीं, जबकि बॉलीवुड से सुधीर मिश्रा और बिजॉय नांबियार मौजूद थे।

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खालिद अहमद ने कहा, हमारी फिल्म महज पांच करोड़ पाकिस्तानी रुपये में बनती है। अगर कोई फिल्म में दस करोड़ पाकिस्तानी रुपये का निवेश करे तो उसे बड़ी बात माना जाता है। भारत में तो सौ करोड़ का कारोबार होता है। लिहाजा हमारी फिल्में यहां के लिए खतरा नहीं हो सकतीं। इन्हें भी हिन्दुस्तान में रिलीज किया जाना चाहिए।

उन्होंने कहा कि मैं 1970 में हिंदुस्तान से पाकिस्तान गया था। मुझे लगता है कि अब आधुनिक पाकिस्तानी युवा मुझसे ज्यादा हिंदुस्तान को जानते हैं। उन्हें फिल्म स्टार के खानदान की पूरी जानकारी है। पाकिस्तानियों की हिंदुस्तानियों से फेसबुक पर दोस्ती है। मैं एक ड्रामा एकेडमी में पढ़ाता भी हूं। वहां पर प्ले फेस्टिवल होता है। यहां से जब एनएसडी का ग्रुप आता है तो आपस में घुलमिल जाते हैं।

उनकी वापसी पर सबकी आंखों में आंसू भरे होते हैं। लिहाजा हमारे बीच कनेक्शन तो है। उनके सुर में सुर मिलाते हुए सबीहा ने कहा, मैं जब कैंब्रिज यूनिवर्सिटी पढ़ने गई तो वहां अपने हमउम्र भारतीयों से मिली। मुझे याद है कि मैं एक दोस्त के घर जा रही थी। तभी एक भारतीय ने बेगम अख्तर का गीत बजाया। मैं चौंकी, मैंने पूछा आप लोग बेगम अख्तर सुनते हो? बोली हां क्यों? मुझे लगता है कि अब जुड़ाव ज्यादा आसान हो गया है।

भारत-पाकिस्तान को करीब लाता है सिनेमा सुधीर ने कहा, सिनेमा का क्या असर होता है उसे लेकर सिनेमा वाले भी पसोपेश में हैं। उनका कहना है सिनेमा से बुरा असर नहीं होता। अगर बुरा नहीं होता तो अच्छा भी नहीं होगा। आपसी संवाद, कहानियां सुनाना, एक-दूसरे के तजुर्बो को समझना, बातचीत का सिलसिला जारी रखना जरूरी है। यह भविष्य के लिए भी अहम है।

दोनों पक्षों का सिनेमा का हमारा अंदाज-ए-बयां एकसमान है। मैं जब कराची में वीडियो की दुकान पर जाता हूं तो उर्दू की इतनी समझ है कि अगर दुकानदार ने चेहरा न देखा हो पहचान नहीं पाएगा कि हिंदुस्तानी है कि पाकिस्तानी। अगर केरल जाऊंगा वहां समझ जाएंगे कि मैं उत्तर भारतीय हूं।

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