पुण्यतिथि: 185 गीत गाकर अमर हो गए केएल सहगल, जानिये देश के पहले सबसे बड़े स्टार के बारे में
अपनी दिलकश आवाज़ से सिने प्रेमियों के दिल पर राज करने वाले के.एल. सहगल ने 18 जनवरी 1947 को इस संसार को अलविदा कहा।
मुंबई। भारतीय सिनेमा जगत के महान पार्श्व गायक और अभिनेता कुंदन लाल सहगल की आवाज़ में पिरोये गये अनेक गीत जैसे ‘‘एक बंगला बने न्यारा रहे कुनबा जिसमे सारा..’’, ‘‘जब दिल ही टूट गया..’’, ‘‘बाबुल मोरा नैहर छूटल जाये..’’ और ‘‘गम दिये मुस्तकिल कितना नाजुक है दिल ये ना जाना..’’ आज भी अपनी विशिष्ट पहचान के साथ लोगों के दिलो- दिमाग पर राज करते हैं।
कुंदन लाल सहगल अपने चहेतों के बीच के.एल. सहगल के नाम से मशहूर थे। जम्मू के नवाशहर में हुआ था। उनके पिता अमरचंद सहगल जम्मू शहर में न्यायालय के तहसीलदार थे। बचपन से ही सहगल का रुझान गीत-संगीत की ओर था। उनकी मां केसरीबाई कौर धार्मिक कार्यकलापों के साथ-साथ संगीत में भी काफी रूचि रखती थीं। कुंदन लाल सहगल अक्सर अपनी मां के साथ भजन-कीर्तन जैसे धार्मिक कार्यक्रमों में जाया करते थे और अपने शहर में हो रही रामलीला के कार्यक्रमों में भी हिस्सा लिया करते थे। सहगल ने किसी उस्ताद से संगीत की शिक्षा नही ली थी लेकिन, सबसे पहले उन्होंने संगीत के गुर एक सूफी संत सलमान युसूफ से सीखे।
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बचपन से ही सहगल में संगीत की काफी समझ थी और एक बार सुने हुये गीतों के लय को वह बारीकी से पकड़ लेते थे। सहगल को अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ी थी और जीवनयापन के लिये उन्होने रेलवे में टाइमकीपर की छोटी सी नौकरी भी की थी। बाद में उन्होने रेमिंगटन नामक टाइपराइटिंग मशीन की कंपनी में सेल्समैन की नौकरी भी की। वर्ष 1930 में कोलकाता के न्यू थियेटर के बी.एन.सरकार ने उन्हें 200 रुपये मासिक पर अपने यहां काम करने का मौका दिया। यहां उनकी मुलाकात संगीतकार आर.सी.बोराल से हुई जो सहगल की प्रतिभा से काफी प्रभावित हुए। धीरे- धीरे सहगल न्यू थियेटर में अपनी पहचान बनाते चले गये।
शुरूआती दौर में बतौर अभिनेता वर्ष 1932 में प्रदर्शित एक उर्दू फ़िल्म ‘मोहब्बत के आंसू’ में उन्हे काम करने का मौका मिला। वर्ष 1932 में ही बतौर कलाकार उनकी दो और फ़िल्में ‘सुबह का सितारा’ और ‘ज़िन्दा लाश’ भी प्रदर्शित हुई लेकिन, इन फ़िल्मों से उन्हें कोई ख़ास पहचान नहीं मिली। साल 1933 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘पुराण भगत’ की कामयाबी के बाद बतौर गायक सहगल कुछ हद तक फ़िल्म उद्योग में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गये। इसके साथ वर्ष 1933 में ही प्रदर्शित फ़िल्म ‘यहूदी की लड़की’, ‘चंडीदास’ और ‘रूपलेखा’ जैसी फ़िल्मों की कामयाबी से उन्होंने दर्शकों का ध्यान अपनी गायकी और अदाकारी की ओर आकर्षित किया।
साल 1935 में शरतचंद्र चटर्जी के लोकप्रिय उपन्यास पर आधारित पी.सी.बरूआ निर्देशित फ़िल्म ‘देवदास’ की कामयाबी के बाद बतौर गायक अभिनेता सहगल शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे। इस फ़िल्म मे उनके गाए गीत भी काफी लोकप्रिय हुये। इस बीच सहगल ने न्यू थियेटर निर्मित कई फ़िल्मों में भी काम किया। बंगला फ़िल्मों के साथ-साथ न्यू थियेटर के लिये उन्होंने 1937 में ‘प्रेसिडेट’, 1938 में ‘साथी’ और ‘स्ट्रीट सिंगर’ और साल 1940 में ‘ज़िंदगी’ जैसी कई कामयाब फ़िल्मों को अपनी गायकी और अदाकारी से सजाया। बाद में 1941 में सहगल मुंबई के रणजीत स्टूडियो से जुड़ गये। 1942 में प्रदर्शित उनकी ‘सूरदास’ और 1943 में ‘तानसेन’ ने टिकट खिड़की पर सफलता का नया इतिहास रचा। 1944 में उन्होंने न्यू थियेटर की हीं निर्मित फ़िल्म ‘मेरी बहन’ में भी काम किया। ‘मेरी बहन’ का गाया उनका गीत ‘’दो नैना मतवारे..’’ सिने प्रेमी आज भी नही भूल पाये हैं।
वर्ष 1946 में सहगल ने संगीत सम्राट नौशाद के संगीत निर्देशन में फ़िल्म ‘शाहजहां’ में ‘‘गम दिये मुस्तकिल..’’ और ‘’जब दिल हीं टूट गया..’’ जैसे गीत गाकर अपना अलग समां बांधा। सहगल के सिने करियर में उनकी जोड़ी संगीतकार पंकज मल्लिक के साथ खूब जमी। पंकज मल्लिक के अलावा सहगल के पसंदीदा संगीतकारों में सी.बोराल, खेम चंद्र प्रकाश और नौशाद जैसे चोटी के संगीतकार शामिल हैं।
अपने दो दशक के सिने करियर में सहगल ने 36 फ़िल्मों में अभिनय किया। हिंदी के अलावा उन्होने उर्दू, बंगला, तमिल फ़िल्मों में भी अभिनय किया। सहगल की मौत के बाद बी.एन.सरकार ने उन्हे श्रद्धांजलि देते हुये उनके जीवन पर एक वृत्तचित्र ‘अमर सहगल’ का निर्माण किया। इस फ़िल्म में सहगल के गाए गीतों में से 19 गीत को शामिल किया गया।
सहगल ने अपने संपूर्ण सिने करियर के दौरान लगभग 185 गीत गाये। जिनमें 142 फ़िल्मी और 43 गैर फ़िल्मी हैं। अपनी दिलकश आवाज़ से सिने प्रेमियों के दिल पर राज करने वाले के.एल. सहगल ने 18 जनवरी 1947 को इस संसार को अलविदा कहा।