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‘प्यासा’ ही रहा सिनेमा का यह ‘गुरु’, पुण्यतिथि पर याद आये गुरुदत्त

कैफी आज़मी- ‘रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई, तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई, माना कि उजालों ने तुम्हें दाग दिए थे, बे रात ढले शमा बुझाता नहीं कोई’।

By Hirendra JEdited By: Published: Wed, 10 Oct 2018 09:23 AM (IST)Updated: Thu, 11 Oct 2018 07:59 AM (IST)
‘प्यासा’ ही रहा सिनेमा का यह ‘गुरु’, पुण्यतिथि पर याद आये गुरुदत्त
‘प्यासा’ ही रहा सिनेमा का यह ‘गुरु’, पुण्यतिथि पर याद आये गुरुदत्त

मुंबई। 10 अक्टूबर को महान अभिनेता और फ़िल्मकार गुरुदत्त की पुण्यतिथि है। जब भी भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग की बात होती है गुरुदत्त का नाम बड़े ही अदब से लिया जाता है। आज सिनेमा के छात्रों को चार फ़िल्में ज़रूर देखने की सलाह दी जाती है- ‘प्यासा’, ‘कागज़ के फूल’, ‘साहिब बीवी और गुलाम’ और ‘चौदहवीं का चांद’। यह चारों फ़िल्में गुरुदत्त की फ़िल्में हैं। 

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‘‘ये दुनिया जहां आदमी कुछ नहीं है, वफा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है जहां प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है, ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?’’ गुरुदत्त का जिक्र आते ही सिनेमा के दीवानों को ‘प्यासा’ की याद आ जाती है। ‘प्यासा’ फ़िल्म ही नहीं बल्कि इसके सारे गीत भी कालजयी हैं। क्या आप जानते हैं साल 2010 में अमेरिका की टाइम पत्रिका ने दुनिया भर से सर्वकालिक सौ महान फ़िल्मों का चयन किया जिसमें भारत की एकमात्र फ़िल्म जो रखी गयी, वह ‘प्यासा’ ही थी। यह एक गहन शोध व सर्वेक्षण के बाद जारी की गयी सूची थी। साल 2010 में सीएनएन ने एशियाई अभिनेताओं की जो एक सूची बनायी है, उस सूची में गुरुदत्त एशिया के 25 मुख्य अभिनेताओं में से एक माने गए हैं।

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गुरुदत्त का वास्तविक नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण था। कर्नाटक के बैंगलोर शहर में 9 जुलाई 1925 को पैदा हुए गुरुदत्त के पारिवारिक पृष्ठभूमि की बात करें तो उनके पिता एक स्कूल में हेडमास्टर थे। बाद में उनकी नौकरी एक बैंक में हो गई। वहीं उनकी मां एक साधारण गृहिणी थी। गुरुदत्त ने अपने बचपन के प्रारंभिक दिन कोलकाता में गुजारे। बंगाल की संस्कृति से उनका बहुत गहरा लगाव था। इस संस्कृति की इतनी गहरी छाप उन पर पड़ी कि उन्होंने अपने बचपन का नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण से बदलकर गुरुदत्त रख लिया।

गुरुदत्त खुद ऊंचे दर्जे के अभिनेता, निर्देशक और फ़िल्म निर्माता थे। लेकिन, शायद यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुदत्त बहुत उच्चकोटि के नर्तक भी थे और जब वह महज 21 साल के थे, उन्होंने प्रभात स्टूडियो की साल 1946 में बनी फ़िल्म ‘हम एक हैं’ का नृत्य निर्देशन किया था। 

1942 में 10वीं पास करने के बाद पारिवारिक कारणों से गुरुदत्त की पढ़ाई छूट गयी। गुरुदत्त 1942 से 1944 तक उदय शंकर के नृत्यग्राम में रहे और वहीं उन्होंने नृत्य सीखा। फिर यहां से 19 साल की उम्र में वो पूना चले गए उसके बाद सबसे पहले सहायक निर्देशक के रूप में उन्होंने फ़िल्मों में काम करना शुरू कर दिया। बाद में फ़िल्मों में उन्हें छोटे-मोटे रोल भी मिलने लगे। इसी समय गुरुदत्त का परिचय देवानंद से हुआ और दोनों एक दूसरे के गहरे दोस्त बन गए। देवानंद ने ही उन्हें ‘बाज़ी’ में पहला बड़ा ब्रेक दिया। इसके बाद गुरुदत्त ने पीछे मुड़कर नहीं देखा!

26 वर्ष की आयु में गुरुदत्त ने ‘बाज़ी’ का निर्देशन किया। ‘बाज़ी’ की कहानी बलराज साहनी और गुरुदत्त ने मिल कर लिखी थी तथा पटकथा और संवाद पूरी तरह से बलराज साहनी के ही थे। ‘बाज़ी’ देवानंद की फ़िल्म निर्माण कम्पनी नवकेतन की भी पहली फ़िल्म थी। ‘बाज़ी’ की अपार सफलता के बाद गुरुदत्त ने देवानंद को लेकर एक और फ़िल्म का निर्देशन किया- ‘जाल’। यह फ़िल्म भी सुपरहिट रही। गुरुदत्त ने बतौर अभिनेता जो फ़िल्में की उनमें चांद, प्यासा, 12 ओ क्लॉक, कागज के फूल, चौदहवीं का चांद, सौतेला भाई, साहिब बीवी और गुलाम, भरोसा, बहूरानी, सुहागन व सांझ और सवेरा थीं। उन्होंने अभिनय से ज्यादा निर्देशन में कमाल किया और यह भी कह सकते हैं कि अपने ही निर्देशन में उन्होंने कमाल का अभिनय किया।

गुरुदत्त एक उम्दा निर्माता भी थे। उन्होंने साल 1955 में पहली बार आर-पार, 1956 में सीआईडी, 1957 में प्यासा, 1959 में कागज के फूल, 1960 में चौदहवीं का चांद, 1962 में साहिब बीवी और गुलाम जैसी फ़िल्में बनायीं। उनकी एक फ़िल्म अधूरी ही रह गयी थी जिसे वह 1957 में ‘गौरी’ शीर्षक से बना रहे थे। ऐसा कहा जाता है कि अगर गुरुदत्त ने इतनी सारी फ़िल्में न भी की होतीं तो उनकी सिर्फ दो फ़िल्में ही उन्हें भारतीय सिनेमा में अजर-अमर का खिताब दे सकती थीं। उनमें से एक है ‘प्यासा’ और दूसरी ‘कागज के फूल’। दोनों में गुरुदत्त ने न सिर्फ कमाल का निर्देशन किया है बल्कि अद्भुत अभिनय भी किया है।

‘बाज़ी’ की शूटिंग के दौरान से ही गुरुदत्त और गीता राय एक-दूसरे के निकट आए। जहां एक ओर दत्त गीता की आवाज़ के दीवाने हो गए थे, वहीं दूसरी ओर गीता भी दत्त के प्रभावशाली व्यक्तित्व पर मुग्ध थीं। दरअसल, दोनों अंतर्मुखी प्रवृति के थे। कम बोलने वाले, गंभीर, लेकिन आंखों ही आंखों में बहुत कुछ कह जाने वाले। एक दिन जब रिहर्सल और रिकॉर्डिग से फुर्सत मिली, तो गुरुदत्त ने गीता को शादी के लिए प्रस्ताव रख दिया। गीता गुरुदत्त को चाहने लगी थीं, लेकिन बिना माता-पिता की मर्जी के वे शादी नहीं कर सकती थीं। ‘बाज़ी’ अभी रिलीज़ नहीं हुई थी। गीता ने कहा, परिवार वालों से कहना होगा। बाद में गीता राय के माता पिता की सहमति से दोनों का विवाह साल 1953 में हुआ। लेकिन, गुरुदत्त का वैवाहिक संबंध खुशनुमा नहीं रहा और वहीदा रहमान से उनके प्रेम संबंधों की भी चर्चा ख़बरों का हिस्सा बनी।

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बहरहाल, इसके बाद गुरुदत्त को शराब की लत ने जकड़ लिया। शराब की लत से लंबे समय तक जूझने के बाद 10 अक्टूबर 1964 को उनकी मौत की ख़बर आई और इस प्रकार एक प्रतिभाशाली जीवन का असमय अंत हो गया। उनकी मौत को लेकर भी तब कई तरह की बातें कही गयी। महज 39 साल की उम्र में ही इस दुनिया से विदा लेने वाले गुरुदत्त की मृत्यु पर शायर और गीतकार कैफी आज़मी ने लिखा था- ‘रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई, तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई, माना कि उजालों ने तुम्हें दाग दिए थे, बे रात ढले शमा बुझाता नहीं कोई’।


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