Lok Sabha Election 2019: 17वें लोकसभा चुनाव में मुद्दा है देशभक्ति की नई परिभाषा का
चाणक्य ने लिखा तस्मात स्वधर्म भूतानां राजा न व्यभिचारयेत। स्वधर्म सन्दधानो हिप्रेत्य चेह न नन्दति। यानी राजा प्रजा को अपने धर्म से च्युत न होने दे। स्वयं भी अपने धर्म का आचरण करे
नई दिल्ली, अतुल पटैरिया। राष्ट्रवाद और देशभक्ति का मुद्दा चुनावी महासमर में केंद्रीय भूमिका में आ गया है। कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने शनिवार को मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए इस दिशा में एक कदम और बढ़ा दिया। लिहाजा, चुनावी परिदृश्य में आज हर भारतीय के लिए राष्ट्रवाद पर गंभीर चिंतन की दरकार बलवती हो उठी है। सोनिया कह रही हैं कि लोगों को देशभक्तिकी एक नई परिभाषा सिखाई जा रही है...।
विविधता स्वीकार नहीं करने वालों को देशभक्तकहा जा रहा है। जब अपनी आस्था पर कायम रहने वालों पर हमले होते हैं तो ये सरकार मुंह मोड़ लेती है। सोनिया ने देशभक्ति और आस्था (धर्म) को आमने-सामने ला खड़ा किया है। आज हमें देशभक्ति की नई और पुरानी परिभाषा को खोज कर इनके बीच अंतर ढूंढना होगा।
सोनिया गांधी ने कहा- देश की आत्मा को सुनियोजित साजिश के जरिये कुचला जा रहा है, जो कि चिंता की बात है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि भाजपा नीत सरकार देश में कानून का शासन कायम करने के अपने कर्तव्य का पालन को तैयार नहीं है।
सोनिया देश की जिस आत्मा की बात कर रही हैं, उसे राष्ट्रवाद के रूप में समझना होगा, उनका इशारा भी इसी ओर है। और, सरकार के जिस कर्तव्य की बात वे कह रही हैं, उसे राष्ट्रधर्म के रूप में लिया जाना चाहिए, उनका आशय भी यही है। कुल मिलाकर कांग्रेस ने देशभक्ति, राष्ट्रवाद और राष्ट्रधर्म को नए सिरे से परिभाषित करने की बात कह डाली है। सोनिया कह रही हैं कि लोगों को देशभक्ति की नई परिभाषा सिखाई जा रही है...।
लिहाजा, यह बड़ा सवाल बन गया है कि देशभक्ति की पुरानी परिभाषा क्या है? पळ्रानी परिभाषा की बात करें तो महात्मा गांधी के लिए देशभक्ति क्या थी? उनके लिए राष्ट्रधर्म और राष्ट्रवाद क्या था? बहुत कम शब्दों में कहें तो- ईश्वर अल्लाह तेरो नाम..., यह महात्मा गांधी का राष्ट्रधर्म था। और, जब वे कहते कि- सबको सन्मति दे भगवान..., तो यह था उनका राष्ट्रवाद और यही देशभक्ति। लेकिन हासिल क्या हुआ? देश का बंटवारा। परिभाषा की खोज में 2300 साल पहले भी जाया जा सकता है।
‘अर्थशास्त्र’ के प्रथम अधिकरण में आचार्य चाणक्य ने लिखा है- तस्मात स्वधर्म भूतानां राजा न व्यभिचारयेत। स्वधर्म सन्दधानो हि, प्रेत्य चेह न नन्दति॥ यानी राजा प्रजा को अपने धर्म से च्युत न होने दे। स्वयं भी अपने धर्म का आचरण करे...। यह बात 2300 साल पहले की है। भले ही तब राजतंत्र था, लेकिन यह सिद्धांत शासन के सभी रूपों पर लागू होता है। यह युक्ति देने वाले आचार्य चाणक्य ही थे जिन्होंने एक भारत-एक राष्ट्र-एक राजा-एक सेना के प्रथम विचार को मूर्त रूप दिया था।
16 मुख्य महाजनपदों के छोटे-छोटे राज्यों में बंटे समान धार्मिक-सांस्कृतिक मूल्यों वाले भारतीय भूखंड को उन्होंने विशाल साम्राज्य में बदल दिया था। पूरब से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक, भारतीय इतिहास का विशालतम साम्राज्य और विशालतम सेना। कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंध भी ऐसे कि रोमन साम्राज्य तक जिनका विस्तार जा पहुंचा। चाणक्य ने अपने शिष्य और भारत के पहले चक्रवर्ती सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य का विवाह सिकंदर की पुत्री हेलेना से कराया था। यह चाणक्य के भारत के वैभव की बानगी भर है। शून्य से शुरुआत कर मौरिय वंश के एक साधारण बच्चे चंद्रगुप्त को चाणक्य ने न केवल भारत का चक्रवर्ती सम्राट बना दिया था बल्कि चंद्रगुप्त के भारत को इतना सशक्त राष्ट्र बनाया था कि जिसके आगे दुनिया की कोई शक्ति न ठहरने पाए। यह सब चाणक्य ने केवल एक ही प्रेरणा से किया था और वह था- राष्ट्रवाद।
चाणक्य का राष्ट्रवाद सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है- एक भूगोल-एक धर्म- एक संस्कृति। भारत पर सिकंदर के आक्रमण और छोटे-छोटे राज्यों की पराजय से विचलित होकर ही चाणक्य ने व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश करने का संकल्प किया था। उनकी सर्वोपरि इच्छा थी कि वे भारत को एक गौरवशाली और विशाल राज्य (जिसे वे अखण्ड भारत कहते हैं) बना दें। उन्होंने इसमें शतप्रतिशत सफलता पाई। लेकिन राष्ट्रधर्म और राष्ट्रवाद के सिद्धांतो में शासकों की थोड़ी सी चूक ने अनर्थ कर दिया। एक ही समय पर 64 पंथों का उदय हुआ। महावीर और बुद्ध जैसे प्रवर्तकों ने जैन और बौद्ध पंथ को विस्तार दिया। स्वयं चंद्रगुप्त भी जैन पंथी हो गए। चंद्रगुप्त के बाद उनके उत्साही पुत्र सम्राट अशोक ने पिता से मिले विशाल साम्राज्य को सशक्त बनाने में खून की नदियां बहाने में भी संकोच नहीं किया।
लेकिन बौद्ध पंथ के प्रभाव में उन्होंने राष्ट्रवाद और राष्ट्रधर्म की जगह स्वधर्म को महत्व देते हुए र्अंहसा (बौद्ध मत) को आत्मसात कर लिया। चक्रवर्ती सम्राट र्अंहसा का पुजारी बन बौद्ध मत के प्रचार-प्रसार में जुट गया। राष्ट्रधर्म की जगह धर्म को तवज्जो देने का परिणाम बाद में पूरे राष्ट्र को भुगतना पड़ा। उनका यह कदम भारत के भविष्य के लिए निर्णायक साबित हुआ। यदि ऐसा न हुआ होता तो शक, कुषाण, हूण, तुर्क, मंगोल और मुगलों के पैर हमारी धरती पर कभी न पड़ने पाते। चंद्रगुप्त और अशोक ने चाणक्य के सूत्र की अव्हेलना की, जिसकी सजा कई पीढ़ियों को मिली। आदर्श स्थितियों में राष्ट्रवाद एक आदर्श को ही स्थापित करता है। हर राष्ट्र का अपना विशेष राष्ट्रवाद होता है, जो उसके लिए विशेष महत्व रखता है।
2300 साल पहले का यह इतिहास एक उदाहरण मात्र है कि राष्ट्रवाद के आदर्श से डिगने का परिणाम किस कदर भारी पड़ता है। इससे यदि किसी भी तरह की खिलवाड़ हो जाए, तो सजा पूरे राष्ट्र और उसके निवासियों को भोगनी पड़ती है। लिहाजा, शासक और आज के लोकतांत्रिक परिदृश्य में राजनीतिक दलों को इस बात को सुनिश्चित करना होगा कि राजनीतिक हितों के कारण हमारे गौरवशाली राष्ट्रवाद को कोई नुकसान न पहुंचे। आज जब भारत 17वें लोकसभा चुनाव का उत्सव मना रहा है, राष्ट्रवाद को लेकर चल रही राजनीतिक खींचतान को एक चेतावनी समझा जाना चाहिए। भारत के राष्ट्रवाद में सभी भारतीयों के लिए समान महत्व है।
भारत के राष्ट्रवाद की आत्मा भारत के संविधान में बसती है, जो सभी को समता प्रदान करता है। हर नागरिक को केवल इसी बात को आत्मसात करने की आवश्यकता है। आज यही हमारे राष्ट्रवाद की सबसे बेहतर परिभाषा है। हां, लेकिन जब हमारे वीर जवान सरहद पर दुश्मन का सामना करते हैं तो केवल एक ही प्रेरणा उन्हें मनोबल से भर देती है और वह तब होता है जब वे कहते हैं- भारत माता की जय...। यही देशभक्ति की परिभाषा है।
स्वामी विवेकानंद के लिए देशभक्ति की परिभाषा:
राष्ट्रीय एकता के बारे में स्वामी विवेकानंद ने कहा है- भले ही भारत में भाषाई, जातिवाद, ऐतिहासिक एवं क्षेत्रीय विवधताएं हैं, लेकिन इन विविधताओं को भारत की सांस्कृतिक एकता एक सूत्र में पिरोये हुए है। देश के हर व्यक्ति को राष्ट्रवाद के निर्माण में योगदान देने की आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति एवं भारतीय धर्म के प्रति उनका गर्व एवं आदर शिकागो के धर्म संसद में उनके द्वारा दिए गए संभाषण से ज्ञात होता है, जब उन्होंने कहा था- मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति दोनों की शिक्षा दी है।
मुझे एक ऐसे देश का व्यक्तिहोने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अविशिष्ट अंश को स्थान दिया, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिल गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व अनुभव करता हूं, जिसने महान जरथ्रुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है।
'देशभक्तिराष्ट्रीय गौरव, देश के प्रति प्रेम व भक्ति की भावना, मातृभूमि के प्रति लगाव की भावना और अपने देशवासियों के साथ जो समान भावना साझा करते हैं, भावनात्मक बंधन है। यह लगाव जातीय, सांस्कृतिक, राजनीतिक या ऐतिहासिक पहलुओं सहित अपनी मातृभूमि से संबंधित कई अलग-अलग भावनाओं का संयोजन हो सकता है। इसमें अवधारणाओं का एक समूह शामिल है, जो राष्ट्रीयता के भाव से निकटता से संबंधित है।'
-प्लेटो, नेशनलिज्म (स्टेनफोर्ड एनसाइक्लोपीडिया ऑफ फिलॉसफी)