मिशन 2019: पाला बदलते ही उपेंद्र कुशवाहा व मांझी के बदले हालात, दाता से बने याचक
बिहार की राजनीति में कभी इन नेताओं की बड़ी हैसियत थी। कभी इनके पास टिकट लेने वालों की लाइन लगती थी लेकिन आज ये खुद टिकट के लिए परेशान हैं। स्थिति का विश्लेषण करती खबर।
By Amit AlokEdited By: Published: Fri, 08 Mar 2019 10:43 AM (IST)Updated: Fri, 08 Mar 2019 10:53 PM (IST)
पटना [अरुण अशेष]। ये राजनीति के कुछ ऐसे चेहरे हैं, जो कभी दूसरों के लिए टिकट का बंदोबस्त करते थे। उम्मीदवारों की सिफारिश करते थे। सिफारिश न मानने पर बगावत की धमकी देते थे। लेकिन आज खुद और इज्जत बचाने के लिए कुछ दूसरे के टिकट के लिए परेशान हैं। हम बात कर रहे हैं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) छोड़ महागठबंधन में आने वाले हिंदुरूतानी अवाम मोर्चा (हम) सुप्रीमो जीतन राम मांझी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के मुखिया उपेंद्र कुशवाहा की। इस लिस्ट में शरद यादव व पप्पू यादव भी शामिल हैं।
तब मांझी का बाजार भाव था तेज
'हम' सुप्रीमो व पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी 2015 के विधानसभा चुनाव में टिकटार्थियों से घिरे रहते थे। उन्हें दम लेने की फुरसत नहीं मिलती थी। राजनीति के बाजार में भाव काफी तेज था।
करीब साल भर पहले हुए लोकसभा चुनाव में राजग को राज्य में शानदार कामयाबी मिली थी। हिसाब बता रहा था कि विधानसभा चुनाव में भी वही परिणाम दोहराया जाएगा। नतीजा यह निकला कि एक से एक ताकतवर उम्मीदवार मांझी के पीछे पड़ गए थे। उम्मीदवारों की धारणा थी- इसे टिकट मत कहो, विधानसभा में घुसने का सर्टिफिकेट बोलो।
आज एक-दो टिकट के लिए परेशान
वही मांझी आज एक-दो टिकट के लिए रांची-पटना की दूरी पाट चुके हैं। संघर्ष के साथी कहे जाने वाले वृषिण पटेल उनसे अलग हो गए। इसलिए कि मांझी उनके लिए एक अदद सीट का प्रबंध नहीं कर पा रहे थे। सीटें नहीं मिलीं तो कुछ और बड़े नेता भी उन्हें नमस्ते कह देंगे।
कम नहीं उपेंद्र कुशवाहा का भी दर्द
कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में शामिल रहे रालोसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा की दास्तान में भी कम दर्द नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को सौ फीसद कामयाबी मिली थी। अगले साल के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी के टिकट को शुभ माना गया था। उम्मीदवारों की लंबी कतार लगती थी। रालोसपा का टिकट मतलब, जीत की गारंटी। उन्होंने 40 सीटों की मांग की। भारी मोल-भाव के बाद 23 सीटें मिलीं। परिणाम राजग के लिए हताशाजनक था। रालोसपा भी अछूती नहीं रही।
विधानसभा की 21 में से 19 सीटों पर हार क्या हुर्ई, राजग में रालोसपा का भाव कम होने लगा। यह इतना कम हुआ कि राजग से बाहर हो गए।
अब महागठबंधन में उन्हें कितनी सीटें मिलेंगी? दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता है। बेटिकट होने की पक्की जानकारी मिलने के बाद पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष नागमणि भाग खड़े हुए।
टिकट के लिए परेशान हैं शरद यादव
बड़े समाजवादी नेता हैं शरद यादव। सांसद-विधायक तो मामूली बात है। मुख्यमंत्री बनाने तक में उनकी भूमिका रही है। जिंदगी में कितना टिकट बांटा होगा, शायद उन्हें याद भी न हो। आज अपने चुनिंदा सहयोगियों को टिकट दिलाने में भी परेशानी महसूस कर रहे हैं।
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समझौते की कोशिश में पप्पू यादव
जन अधिकार पार्टी के संस्थापक राजेश रंजन ऊर्फ पप्पू यादव के पास 2015 के विधानसभा चुनाव में इतने टिकट थे कि बांटने में थकान महसूस हो रही थी। फिर भी 64 टिकट बांट दिए। यह अलग बात है कि उनके किसी उम्मीदवार की जीत नहीं हो पाई। पप्पू यादव 2014 में राजद टिकट पर सांसद बने। जल्द ही उनका झुकाव राजग की ओर हो गया। राजद से लड़ झगड़ कर अपनी पार्टी बना ली-जन अधिकार पार्टी।
वही पप्पू अब दूसरे दलों से समझौते की कोशिश में जुटे हैं। कांग्रेस से उनकी बातचीत चल रही है। राजद को महागठबंधन में पप्पू यादव की एंट्री पर सख्त एतराज है।
तब मांझी का बाजार भाव था तेज
'हम' सुप्रीमो व पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी 2015 के विधानसभा चुनाव में टिकटार्थियों से घिरे रहते थे। उन्हें दम लेने की फुरसत नहीं मिलती थी। राजनीति के बाजार में भाव काफी तेज था।
करीब साल भर पहले हुए लोकसभा चुनाव में राजग को राज्य में शानदार कामयाबी मिली थी। हिसाब बता रहा था कि विधानसभा चुनाव में भी वही परिणाम दोहराया जाएगा। नतीजा यह निकला कि एक से एक ताकतवर उम्मीदवार मांझी के पीछे पड़ गए थे। उम्मीदवारों की धारणा थी- इसे टिकट मत कहो, विधानसभा में घुसने का सर्टिफिकेट बोलो।
आज एक-दो टिकट के लिए परेशान
वही मांझी आज एक-दो टिकट के लिए रांची-पटना की दूरी पाट चुके हैं। संघर्ष के साथी कहे जाने वाले वृषिण पटेल उनसे अलग हो गए। इसलिए कि मांझी उनके लिए एक अदद सीट का प्रबंध नहीं कर पा रहे थे। सीटें नहीं मिलीं तो कुछ और बड़े नेता भी उन्हें नमस्ते कह देंगे।
कम नहीं उपेंद्र कुशवाहा का भी दर्द
कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में शामिल रहे रालोसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा की दास्तान में भी कम दर्द नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को सौ फीसद कामयाबी मिली थी। अगले साल के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी के टिकट को शुभ माना गया था। उम्मीदवारों की लंबी कतार लगती थी। रालोसपा का टिकट मतलब, जीत की गारंटी। उन्होंने 40 सीटों की मांग की। भारी मोल-भाव के बाद 23 सीटें मिलीं। परिणाम राजग के लिए हताशाजनक था। रालोसपा भी अछूती नहीं रही।
विधानसभा की 21 में से 19 सीटों पर हार क्या हुर्ई, राजग में रालोसपा का भाव कम होने लगा। यह इतना कम हुआ कि राजग से बाहर हो गए।
अब महागठबंधन में उन्हें कितनी सीटें मिलेंगी? दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता है। बेटिकट होने की पक्की जानकारी मिलने के बाद पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष नागमणि भाग खड़े हुए।
टिकट के लिए परेशान हैं शरद यादव
बड़े समाजवादी नेता हैं शरद यादव। सांसद-विधायक तो मामूली बात है। मुख्यमंत्री बनाने तक में उनकी भूमिका रही है। जिंदगी में कितना टिकट बांटा होगा, शायद उन्हें याद भी न हो। आज अपने चुनिंदा सहयोगियों को टिकट दिलाने में भी परेशानी महसूस कर रहे हैं।
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समझौते की कोशिश में पप्पू यादव
जन अधिकार पार्टी के संस्थापक राजेश रंजन ऊर्फ पप्पू यादव के पास 2015 के विधानसभा चुनाव में इतने टिकट थे कि बांटने में थकान महसूस हो रही थी। फिर भी 64 टिकट बांट दिए। यह अलग बात है कि उनके किसी उम्मीदवार की जीत नहीं हो पाई। पप्पू यादव 2014 में राजद टिकट पर सांसद बने। जल्द ही उनका झुकाव राजग की ओर हो गया। राजद से लड़ झगड़ कर अपनी पार्टी बना ली-जन अधिकार पार्टी।
वही पप्पू अब दूसरे दलों से समझौते की कोशिश में जुटे हैं। कांग्रेस से उनकी बातचीत चल रही है। राजद को महागठबंधन में पप्पू यादव की एंट्री पर सख्त एतराज है।
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