18 साल बाद भी उत्तराखंड की स्थायी राजधानी एक अनसुलझा सवाल
राज्य को बने 18 साल गुजर गए। उत्तरांचल का नाम बदलकर उत्तराखंड हो गया। इसके बावजूद राजधानी का मसला सियासी दांवपेचों में इस कदर उलझा कि पांच-पांच सरकारें कोई फैसला नहीं ले पाई।
देहरादून, विकास धूलिया। नौ नवंबर 2000, इस दिन उत्तरांचल देश के मानचित्र पर 27 वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया, तब नवजात सूबे की राजधानी को लेकर एक राय न बन पाने की स्थिति में सबसे बड़े शहर, देहरादून को फौरी व्यवस्था के लिए अस्थायी राजधानी बना दिया गया। तब से लेकर अब तक 18 साल गुजर गए। उत्तरांचल का नाम बदलकर उत्तराखंड हो गया। राज्य किशोर से जवान हो गया, लेकिन राजधानी का मसला सियासी दांवपेचों में इस कदर उलझा कि इस पर पांच-पांच सरकारें कोई फैसला नहीं ले पाईं।
स्थायी राजधानी चयन के लिए आयोग बना। इसे 11 बार एक्सटेंशन दिया गया, 10 साल पहले रिपोर्ट विधानसभा को सौंप दी गई, लेकिन नतीजा फिर भी सिफर। अलबत्ता, इतना जरूर है कि जनभावनाओं को भुनाने के लिए चमोली जिले के गैरसैंण में करोड़ों खर्च कर एक नया विधानसभा भवन बना दिया गया। फिर भी स्थायी राजधानी पर स्टैंड साफ करने से पूरी तरह गुरेज किया जा रहा है।
भाजपा-कांग्रेस का टालमटोल वाला रवैया
उत्तराखंड की जनता अब तक चार विधानसभा और तीन लोकसभा चुनाव देख चुकी है जबकि चौथे लोकसभा चुनाव बस मुहाने पर हैं लेकिन स्थायी राजधानी के सवाल पर इस वक्फे में केंद्र और राज्य में सत्ता में रही भाजपा व कांग्रेस, दोनों का रवैया एक जैसा टालमटोल वाला ही रहा है।
हर चुनाव में स्थायी राजधानी का सवाल मुद्दा जरूर बनता है, मगर केवल सियासत के लिए। अलग राज्य बनने से पहले ही गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने की मांग उठी तो राज्य बनने के बाद पूरी सियासत भी इसी के इर्द-गिर्द घूमती रही।
सुविधा के मुताबिक तय किया जाता रहा स्टैंड
उत्तराखंड की स्थायी राजधानी तय करने को लेकर शुरुआत में जिस तरह का अनमना रुख अपनाया गया, उसका परिणाम यह हुआ कि तब से लेकर अब तक सियासी पार्टियों ने इसका मनमाफिक इस्तेमाल किया।
अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय गठित कौशिक समिति से लेकर मौजूदा भाजपा सरकार तक गैरसैंण के महत्व को रेखांकित करती तो दिखीं, लेकिन कोई स्पष्ट फैसला लेने का साहस नहीं जुटा पाईं। सच तो यह है कि सभी सियासी पार्टियों ने मौके की नजाकत के मुताबिक जनभावनाओं को उद्वेलित करने के लिए गैरसैंण समेत अन्य जगहों को लेकर संकेत तो दिए, लेकिन केवल अपनी सुविधा के लिए।
विधानसभा भवन, यानी जनभावनाओं का दोहन
उत्तराखंड निर्माण से पहले वर्ष 1992 में चमोली जिले के अंतर्गत गैरसैंण को नए राज्य की राजधानी बनाने की मांग उत्तराखंड क्रांति दल ने उठाई थी। इसके ठीक 20 साल बाद वर्ष 2012 में कांग्रेस जब दूसरी बार सूबे में सत्ता में आई, तब सरकार ने इस दिशा में तेजी दिखाई।
पहली बार किसी सरकार ने गैरसैंण के महत्व को प्रदर्शित करने के लिए यहां कैबिनेट बैठक की। इसके बाद तो वर्ष 2014 से गैरसैंण में विधानसभा सत्र के आयोजन का सिलसिला शुरू हो गया, जो वर्ष 2017 में सत्ता परिवर्तन के बाद नई भाजपा सरकार ने भी जारी रखा। कांग्रेस सरकार के समय जनभावनाओं को अपने पक्ष में करने के लिए यहां विधानसभा भवन तैयार कर दिया गया, जिस पर करोड़ों की लागत आई।
विधानसभा सीटों का गणित गड़बड़ाने का भय
स्थायी राजधानी पर स्पष्ट रुख जाहिर न कर पाने के मूल में सियासी पार्टियों में समाया वह भय भी है कि इससे उनका सियासी गणित गड़बड़ा सकता है। खासकर, नए परिसीमन के बाद जिस तरह विधानसभा क्षेत्रों का पुनर्गठन हुआ, उसने सियासतदां को पसोपेश में डाल दिया।
वर्ष 2007-08 में हुए परिसीमन के बाद राज्य की कुल 70 में से अधिकांश सीटें मैदानी क्षेत्र में चली गईं। इनमें देहरादून जिले की 10, हरिद्वार की 11 और ऊधमसिंह नगर जिले की नौ सीटें तो हैं ही, साथ ही पौड़ी गढ़वाल जिले की एक और नैनीताल जिले की चार विधानसभा सीटें भी मैदानी भूगोल की हैं।
यानी कुल सीटों की आधी, 35 सीटें मैदानी क्षेत्र में हैं और यही वजह है कि भाजपा और कांग्रेस न तो गैरसैंण के पक्ष में खुलकर बोल पा रही हैं और न देहरादून या स्थायी राजधानी के अन्य किसी विकल्प के पक्ष में।
दीक्षित आयोग को 11 एक्सटेंशन, नतीजा सिफर
उत्तराखंड के वजूद में आने के दो महीने बाद 11 जनवरी 2001 को सेवानिवृत्त जस्टिस वीरेंद्र दीक्षित की अध्यक्षता में एकल सदस्यीय राजधानी चयन आयोग बनाया गया। इस आयोग को 11 बार कार्यकाल विस्तार दिया गया। लगभग साढ़े सात साल बाद 17 अगस्त 2008 को आयोग ने राजधानी स्थल चयन को लेकर अपनी रिपोर्ट भुवन चंद्र खंडूड़ी के नेतृत्व वाली तत्कालीन भाजपा सरकार को सौंप दी, जिसे 11 महीनों बाद 13 जुलाई 2009 को विधानसभा में प्रस्तुत किया गया।
दीक्षित आयोग ने स्थायी राजधानी के लिए पांच स्थानों का जिक्र अपनी रिपोर्ट में किया। इनमें देहरादून, गैरसैंण के आसपास का क्षेत्र, काशीपुर, रामनगर और ऋषिकेश के नाम शामिल किए गए। इस रिपोर्ट में देहरादून को तमाम मानकों के आधार पर स्थायी राजधानी के लिए सबसे उपयुक्त बताया गया, जबकि गैरसैंण को अनुपयुक्त करार दिया गया। यही कारण है कि इस रिपोर्ट पर अब 10 साल बाद भी कोई कदम उठाने की किसी सरकार ने न जरूरत समझी और न हिम्मत दिखाई।
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