LokSabha Election 2019: जब कोई नहीं था तब झानुरेती थीं आदिवासी गांवों में भाजपा की स्टार प्रचारक
उन दिनों आदिवासियों के सबसे बड़े नेता के तौर पर शिबू सोरेन को जाना जाता था। भाजपा के सामने संताल और उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडल में अपनी पैठ बनाने की तगड़ी चुनाैती थी।
धनबाद, गौतम ओझा। 'वोट दिबे कोन खाने, कमल फूलेर मध्य खाने' - यह वह नारा था जो भाजपा आदिवासियों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए वर्ष 1989 में लाई थी। सूबे के सीएम रहे बाबूलाल मरांडी उस समय महज एक कैडर थे। उनके साथ ही भाजपा की समर्पित महिला कार्यकर्ता झानुरेती ने गांव गांव में इस नारे को बुलंद किया। दोनों कार्यकर्ताओं ने उस दौर में जो मशाल जलाई आज वह दहक रही है।
दरअसल बात 1989 की है। उन दिनों आदिवासियों के सबसे बड़े नेता के तौर पर शिबू सोरेन को जाना जाता था। पार्टी के सामने संताल और उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडल में अपनी पैठ बनाने की तगड़ी चुनौती थी। तब कई बार ये महसूस किया गया कि अगर पार्टी को इन इलाकों में अपने को स्थापित करना है तो इसके लिए आदिवासी कैडरों को तैयार करना होगा। संगठन की स्वीकृति मिलने के बाद से इसकी तैयारी हो गई। कई आदिवासी युवक-युवतियों को पार्टी में बतौर स्टार प्रचारक तैयार किया गया था। इनका काम आदिवासी और बंगाली गांवों व टोले में घूम-घूमकर पार्टी के पक्ष में प्रचार करना था।
बाबूलाल मरांडी और झानुरेती टुडू की हैसियत भी पार्टी में बतौैर एक कैडर ही हुआ करती थी। उन दिनों गिरिडीह लोकसभा क्षेत्र से रामदास प्रसाद सिंह को बतौर प्रत्याशी भाजपा ने चुनाव मैदान में उतारा। समीकरण के हिसाब से इस सीट पर भाजपा को काफी उम्मीद थी। बाबूलाल और झानुरेती टुडू को इन इलाकों में प्रचार का जिम्मा दिया गया। इन दोनों ने भी अपने प्रत्याशी के पक्ष में बांग्ला भाषा का यह नारा हर गली में बुलंद किया। जो काफी लोकप्रिय हुआ। चुनाव परिणाम आया और रामदास प्रसाद की जीत हुई। उस दौर में टुंडी विधानसभा से सत्यनारायण दुधानी भाजपा के विधायक हुआ करते थे। बाद में बाबूलाल मरांडी केंद्रीय मंत्री व झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री भी बने। मतभेद होने पर उन्होंने पार्टी से किनारा कर झाविमो का गठन किया। आज वे भाजपा के विरोध में महागठबंधन में शामिल हो चुके हैं। दूसरी ओर झानुरेती टुडू नेपथ्य में खो गई। पाकुड़ आमरापाड़ा स्थित पांडराकोला की रहनेवाली झानुरेती को पार्टी ने भी भुला दिया।