...जब दिल्ली की इस सीट पर बसपा प्रत्याशी ने बढ़ा दी थी कांग्रेस और भाजपा की मुश्किलें
पश्चिमी दिल्ली संसदीय सीट के लिए जब 2009 में पहली बार चुनाव हुए थे तब बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के उम्मीदवार को यहां करीब पांच फीसद वोट मिले थे।
नई दिल्ली[गौतम कुमार मिश्र]। अस्तित्व में आने के बाद पश्चिमी दिल्ली संसदीय सीट के लिए जब 2009 में पहली बार चुनाव हुए थे तब बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के उम्मीदवार को यहां करीब पांच फीसद वोट मिले थे। कांग्रेस व भाजपा के बाद बसपा यहां तीसरे स्थान पर थी। भले ही बसपा तीसरे स्थान पर थी, लेकिन यह संदेश देने में सफल रही थी कि पश्चिमी दिल्ली संसदीय क्षेत्र में उसका भी कोई वजूद है।
अब इसे समय-समय पर खाद-पानी देने की जरूरत है, लेकिन पांच साल बाद जब वर्ष 2014 में लोकसभा चुनाव हुए तब यहां बसपा के खाते में एक फीसद से भी कम वोट आए। बसपा यहां तीसरे स्थान से नीचे लुढ़कते हुए पांचवें स्थान पर पहुंच गई। बसपा की यहां हालत इस कदर पतली हुई कि वर्ष 2014 में बसपा उम्मीदवार से अधिक मत पाने में एक निर्दलीय उम्मीदवार सफल हो गया। स्पष्ट है कि बसपा ने इस सीट पर जो रुतबा वर्ष 2009 में हासिल किया था वह वर्ष 2014 तक आते आते खत्म हो गया।
आखिर कैडर आधारित पार्टी की ऐसी दशा इस सीट पर क्यों हुई? इसका एक उत्तर तो यह है कि बसपा से वर्ष 2009 में जिस दीपक भारद्वाज को टिकट दिया था, उनका क्षेत्र में अपना रुतबा था। चाहे प्रचार हो या क्षेत्र में सक्रियता की बात हो, उन्होंने हर क्षेत्र में मेहनत दिखाई और पार्टी को एक सम्मानित स्थान पर पहुंचाया। उन्होंने मतदाताओं के बीच खुद को सशक्त विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किया, तब दिल्ली की अधिकांश संसदीय सीटों पर सीधे- सीधे मुकाबला कांग्रेस व भाजपा के बीच होता था, लेकिन दीपक भारद्वाज ने अपने व्यक्तित्व व मेहनत के दम पर पश्चिमी दिल्ली संसदीय सीट के मुकाबले को त्रिकोणीय मुकाबला बना दिया।
उस समय पश्चिमी दिल्ली संसदीय सीट पर भाजपा ने जहां प्रो. जगदीश मुखी जैसे सशक्त उम्मीदवार को उतारा था तो कांग्रेस ने महाबल मिश्र को टिकट दिया था, लेकिन कांग्रेस हो या भाजपा दोनों ही पार्टियों के सामने बसपा के उम्मीदवार का कद कम नहीं था। मुकाबले की दौड़ में बसपा उम्मीदवार हमेशा बने रहे, लेकिन वर्ष 2014 में बसपा की हालत खराब हो गई।
स्थिति ऐसी हुई कि बसपा के कई समर्पित नेताओं ने पार्टी का साथ छोड़ दिया, जिसे बसपा का कैडर वोट समझा जाता था उसके सामने अब विकल्प के तौर पर एक नई पार्टी थी। जो इलाके बसपा के गढ़ समझे जाते थे वहां अब आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने सक्रियता बढ़ा दी। बसपा का जो जनाधार था वह अब बंटने लगा। इसके कैडर वोट दूसरी पार्टियों में शिफ्ट होने लगे। हालत यह रही कि बसपा के चुनाव चिह्न् पर जिस राजपाल सिंह ने चुनाव लड़ा, उन्हें केवल 8787 वोट मिले। इस सीट पर बसपा के प्रत्याशी को निर्दलीय प्रत्याशी के मुकाबले भी कम वोट पा सका।