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मुरैना लोकसभा सीट: हाईप्रोफाइल सीट ग्वालियर छोड़कर नरेंद्र सिंह तोमर क्यों गए मुरैना, जानिए

लोकसभा चुनाव 2019 में छठे चरण का मतदान 12 मई (रविवार) को होगा। छठवें चरण में मध्यप्रदेश की आठ सीट मुरैना भिण्ड ग्वालियर गुना सागर भोपाल राजगढ़ और देवास में वोट डाले जाएंगे।

By NiteshEdited By: Published: Fri, 10 May 2019 05:39 PM (IST)Updated: Fri, 10 May 2019 05:39 PM (IST)
मुरैना लोकसभा सीट: हाईप्रोफाइल सीट ग्वालियर छोड़कर नरेंद्र सिंह तोमर क्यों गए मुरैना, जानिए
मुरैना लोकसभा सीट: हाईप्रोफाइल सीट ग्वालियर छोड़कर नरेंद्र सिंह तोमर क्यों गए मुरैना, जानिए

नई दिल्ली, (जागरण स्पेशल)। लोकसभा चुनाव 2019 में छठे चरण का मतदान 12 मई (रविवार) को होगा। छठवें चरण में मध्यप्रदेश की आठ सीट मुरैना, भिण्ड, ग्वालियर, गुना, सागर, भोपाल, राजगढ़ और देवास में वोट डाले जाएंगे। इनमें से सात सीट बीजेपी के कब्जे में है। बस गुना सीट पर कांग्रेस का कब्जा है। मुरैना से इस बार केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर चुनाव लड़ रहे हैं। तोमर ने पिछला चुनाव ग्वालियर से जीता था। मुरैना से तोमर का मुकाबला कांग्रेस के राम निवास रावत से है। हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में रावत मुरैना से हार गए थे। इस सीट पर 1996 से भाजपा का कब्जा है।

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मुरैना का सियासी इतिहास

उत्तर प्रदेश और राजस्थान की सीमा से लगा मध्य प्रदेश का मुरैना संसदीय क्षेत्र भाजपा का गढ़ माना जाता है। यहां अबतक 13 चुनाव हो चुके हैं। जिसमें से सात बार भाजपा, दो बार कांग्रेस, एक-एक बार जनसंघ, भारतीय लोकदल तो एक बार निर्दलीय चुनाव जीत चुके हैं। बीते 23 सालों से यहां भाजपा का ही कब्जा है।

नरेंद्र सिंह तोमर का सियासी सफर

नरेंद्र सिंह तोमर बीजेपी के बड़े नेताओं में से एक हैं। वह 2003 से 2008 तक मध्य प्रदेश की सरकार में ग्रामीण एव पंचायत विकास मंत्री व जनसंपर्क मंत्री के पद पर रहे। इसके बाद उन्होंने 2008 में बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष का पद संभाल लिया। तोमर 2009 में मुरैना- श्योपुर सीट से लोकसभा का चुनाव लड़कर पहली बार दिल्ली के संसद भवन पहुंचे। वर्ष 2014 में उन्होंने ग्वालियर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और मौजूदा मोदी सरकार में मंत्री हैं।

रावत का सियासी सफर

रावत फिलहाल मध्य प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष हैं। 2003 से पहले दिग्विजय सरकार में मंत्री रहे, वे पांच बार विधायक भी रह चुके हैं, 2018 के विधानसभा चुनाव में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में एक बार फिर से रावत पर भरोसा जताया है। 2009 में भी तोमर और रावत आमने सामने रहे थे लेकिन बीजेपी ने बाजी मार ली थी।

वोट का गणित

इस सीट के बारे में कहा जाता है कि यहां कोई लहर काम नहीं आती, क्‍योंकि यहां चुनाव जातिगत आधार पर होता रहा है। मुरैना-श्योपुर संसदीय सीट पर जातिवाद की राजनीति हावी है। यहां ठाकुर और ब्राम्हण की लड़ाई रहती है। जातिवाद की राजनीत के कारण ही इस सीट का रूख विपरीत दिशा में बहती है। मुरैना-श्योपुर संसदीय क्षेत्र में सवर्ण वोटर निर्णायक भूमिका में होते हैं। लेकिन बीते साल एट्रोसिटी एक्ट को लेकर हुए आंदोलन की वजह से बीजेपी को विधानसभा चुनाव में खामियाजा उठाना पड़ा। जातीय समीकरण के हिसाब से देंखे तो संसदीय क्षेत्र में करीब पौने तीन लाख दलित मतदाता, करीब दो लाख ब्राह्मण मतदाता, करीब दो लाख क्षत्रिय मतदाता, करीब सवा लाख वैश्य मतदाता हैं, मुस्लिम मतदाताओं की संख्या यहां करीब 80 से 90 हजार के आसपास है।

सुरक्षा की दृष्टि से अहम है मुरैना सीट

कानून व्यवस्था के मद्देनजर छठवें चरण में मुरैना सीट को अहम माना जा रहा है। इसके अलावा भोपाल और भिंड सीट को भी संवेदनशील के रूप में चिन्हित किया गया है। इसके मद्देनजर इस चरण में दो हजार से ज्यादा मतदान केंद्रों पर तीसरी आंख (वेबकास्टिंग और सीसीटीवी) के जरिए नजर रखी जाएगी। केंद्रीय अर्द्धसैनिक बल और राज्य सशस्त्र बल की दोनों चरणों के मुकाबले यहां कंपनियां ज्यादा तैनात होंगी। भिंड और मुरैना को कानून व्यवस्था की दृष्टि से पुलिस प्रशासन ने अति संवेदनशील की श्रेणी में रखा है।

चुनावी खर्च

लोकसभा चुनाव में मुरैना श्योपुर सीट पर मामला त्रिकोणीय बन रहा है, लेकिन चुनावी खर्च के मामले में भाजपा प्रत्याशी नरेंद्र सिंह तोमर व बसपा प्रत्याशी करतार सिंह भड़ाना के बीच में मुकाबला चल रहा है। इस मुकाबले में दूसरे चरण में खर्च का ब्योरा जब प्रशासन के पास पहुंचा तो नरेंद्र सिंह तोमर बसपा के करतार सिंह भड़ाना से दो लाख से आगे हैं। जबकि कांग्रेस प्रत्याशी रामनिवास रावत खर्च के मामले में दोनों से काफी पीछे है। रावत ने तोमर के मुकाबले 18 लाख खर्च कम किए हैं।

मुरैना में सबसे ज्यादा खर्च

मुरैना के आसपास क्षेत्र की लोकसभा सीटों पर प्रत्याशियों का इतना अधिक खर्च नहीं हुआ है, जितना मुरैना में प्रत्याशियों ने किया है। इसके पीछे बताया जाता है कि यहां पर प्रशासन की टीमें प्रत्याशियों के खर्च पर बारीकी से निगाह रखे हुए हैं।

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