महिलाओं को चाहिए सत्ता में भागीदारी का अधिकार
क्या महिलाओं की स्थिति में सुधार आया या फिर उनका वोट सिर्फ एक लोकतांत्रिक औपचारिकता बनकर रह गया
नई दिल्ली (जेएनएन)। अमेरिका और ब्रिटेन में महिलाओं को वोटिंग का अधिकार मिलने में सौ साल से ज्यादा लगे, जबकि भारत में महिलाओं को आजादी मिलने के तुरंत बाद ही वोटिंग करने का अधिकार मिला, लेकिन इस अधिकार से महिलाओं को क्या मिला? क्या महिलाओं की स्थिति में सुधार आया, या फिर उनका वोट सिर्फ एक लोकतांत्रिक औपचारिकता बनकर रह गया, क्या उन्हें शासन या सत्ता में वो जगह और उससे भी ज़रूरी वो आवाज़ मिल पाई है, जिसकी वो हकदार हैं?
देश को आजाद हुए 72 साल बीत चुके हैं, लेकिन अभी तक आबादी के अनुपात में महिलाओं की नुमाइंदगी संसद में नहीं है। सोलहवीं लोकसभा की बात करें तो सदन में मात्र 62 महिलाएं जीत कर आई थी यानि सिर्फ 11.3 फीसद, ये स्थिति तब है, जबकि मौजूदा लोकसभा में महिलाओं की संख्या अब तक की सर्वाधिक है!
आंकड़ों को देखें, तो 16वीं लोकसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का प्रतिशत 11.93 रहा, 15वीं लोकसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का प्रतिशत 11.74 रहा। वहीं 14वीं लोकसभा में महिलाओं के प्रतिशत का आंकड़ा 9.54 रहा। दूसरी ओर 12वीं और 10वीं लोकसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का प्रतिशत 8.07 और 7.70 रहा।
ये आंकड़े आपको चौंका सकते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि महिलाएं वोट देने नहीं आ रही हैं, 70 बरस से ऊपर के इस लोकतंत्र में चुनाव दर चुनाव वोटिंग में महिलाओं की हिस्सेदारी लगातार बढ़ी है। पिछले लोकसभा चुनाव में महिलाओं की भागीदारी 65 प्रतिशत से ज्यादा रही, जोकि पुरुषों के वोटिंग प्रतिशत से कुछ ही कम था। लोकसभा चुनाव में महिलाओं का मतदान प्रतिशत 65.5 रहा, जबकि पुरुषों का मतदान प्रतिशत 67.09 रहा। इन दोनों के बीच महज 1.59 प्रतिशत का अंतर रहा।
1971 के लोकसभा चुनाव की बात करें, तो महिलाओं के मतदान का प्रतिशत 49.11 प्रतिशत था, वहीं 60.09 प्रतिशत पुरुषों ने मतदान किया था। 1971 में महिलाओं और पुरुषों के बीच मतदान प्रतिशत का अंतर 10.98 प्रतिशत था।
2019 के लोकसभा चुनाव में यह अंतर और भी कम हो सकता है। या ये भी हो सकता है कि महिलाएं मताधिकार के प्रयोग में पुरूषों से आगे निकल जाएँ? सवाल यह है कि जब महिलाएं वोट देने में आगे हैं तो फिर उन्हें टिकट देने में राजनीतिक पार्टियां क्यों पिछड़ जाती हैं? राजनीतिक दल यह दावा करते हैं कि महिलाओं की चुनाव जीतने की क्षमता यानि ‘विनिबिलिटी’ कम होती है, जबकि आंकड़े कुछ और कहानी कहते हैं।
पब्लिक इन्फॉर्मेशन पोर्टल Factly.in की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में, महिला उम्मीदवारों की सफलता दर 9 प्रतिशत से ज्यादा थी, जबकि पुरुषों की सफलता दर 6 प्रतिशत से ऊपर थी।
हालांकि भारतीय राजनीति में महिलाओं को अभी तक वोटबैंक के रूप में ट्रीट नहीं किया जाता है, जबकि जाति और धर्म के आधार पर भारतीय राजनीति के अहम पहलू हैं। हर पार्टी इस आधार पर अपना चुनावी गणित बनाती है। जाति के आधार पर किसी भी उम्मीदवार को उसकी जाति के वोट मिल जाते हैं, जबकि महिलाओं को महज महिला होने के कारण महिलाओं के वोट नहीं मिलते। भारतीय राजनीति और समाज का ये स्याह पहलू है।
चुनावी बहस में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर चर्चा अक्सर महिलाओं की सुरक्षा और उन्हें सुरक्षित रखने जैसे पैतृक विचारों तक सीमित हो जाती है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी बार-बार महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने की बात करते हैं, लेकिन 2019 के चुनाव के लिए कांग्रेस की कोर ग्रुप कमेटी में नौ सदस्य हैं, और सभी पुरुष हैं।
हालांकि राजनीतिक पार्टियों के रवैये में बदलाव देखने को मिल रहा है, बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने और टीएमसी प्रमुख ने 41 फीसदी टिकट महिला उम्मीदवारों को देने का फैसला किया है। ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने लोकसभा चुनाव में 33 फीसदी सीटें महिला उम्मीदावारों को देने का ऐलान किया है।
समय आ गया है कि महिलाओं की भूमिका नीति-निर्धारण के मामले में बढ़े, जब तक महिलाएं किसी भी संगठन, पार्टी और सरकार में नीतिगत फैसले नहीं लेंगी, यथास्थिति का बदलना दुष्कर होगा। साथ ही चुनावों के आसपास का जो पूरा नैरेटिव है, वो सिर्फ सुरक्षा और महिलाओं को सुरक्षित रखने तक ही सीमित न हो, इसे आगे बढ़ाकर सत्ता में भागीदारी तक ले जाना होगा, और इसके लिए महिलाओं को सत्ता की बात करनी होगी।