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Loksabha Election 2019 : गठबंधन ने बदले समीकरण, अबकी आसान न होगा बसपा को बूझ पाना

बसपा के सामने इस चुनाव में मजबूती से खड़े होने की चुनौती थी इस कारण उसे सपा से हाथ मिलाना पड़ा। गठबंधन ने उसके समीकरण बदले हैैं माना जा रहा है कि इस बार उसे बूझ पाना आसान न होगा।

By Umesh TiwariEdited By: Published: Sun, 17 Mar 2019 09:52 PM (IST)Updated: Mon, 18 Mar 2019 05:00 AM (IST)
Loksabha Election 2019  : गठबंधन ने बदले समीकरण, अबकी आसान न होगा बसपा को बूझ पाना
Loksabha Election 2019 : गठबंधन ने बदले समीकरण, अबकी आसान न होगा बसपा को बूझ पाना

लखनऊ [अजय जायसवाल]। सियासत की सौदेबाजी में हर मसौदा अपने पक्ष में लिखाने का हुनर बसपा की पहचान है और इस लोकसभा चुनाव के पहले सपा से गठबंधन में भी उसने ऐसी ही इबारत लिखकर यह संकेत दे दिया है कि उसे बूझ पाना आसान न होगा। बीते लोकसभा चुनाव से अब तक का वक्त बसपा का बुरा दौर रहा है लेकिन, अब वह उम्मीदों की राह पर दिखाई पड़ रही है। हालांकि यह उम्मीदें भी प्रदेश की 80 सीटों में 42 की कुर्बानी पर खड़ी हुई हैं।

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सूबे की राजनीति में तकरीबन 35 वर्ष पहले धीरे से कदम रखने वाली जिस बहुजन समाज पार्टी ने एक दशक पहले सभी राजनीतिक पार्टियों को पछाड़ते हुए बहुमत की सत्ता हासिल की थी, उसे ही पिछले लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नसीब नहीं हुई। जिस 'दलित-ब्राह्मण' सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर 2007 में मायावती ने 206 विधानसभा सीटें जीतकर चौथी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की थी, उसके फेल होने के बाद बसपा का 'दलित-मुस्लिम' गठजोड़ भी कोई गुल नहीं खिला सका।

पिछले चुुनाव में मोदी की सुनामी से 'दलित-मुस्लिम' फार्मूला तहस-नहस होने के साथ ही 'हाथी' के पांव उखड़ते गए। 'हाथी' की सवारी करने वाले सवर्णों के साथ ही दरकते परम्परागत दलित और मुस्लिम वोट बैंक से बसपा तीसरे नंबर की पार्टी बनकर रह गई है। लगातार घटते जनाधार से उसके राष्ट्रीय पार्टी के दर्जे पर भी खतरा मंडरा रहा है।

पार्टी की घटती ताकत पर एक के बाद एक जनाधार वाले नेताओं में नसीमुद्दीन सिद्दीकी, स्वामी प्रसाद मौर्य, ब्रजेश पाठक, आरके चौधरी, ठाकुर जयवीर सिंह, जुगल किशोर, कैसरजहां व इंद्रजीत सरोज आदि की बगावत से भी बसपा का माहौल बिगड़ता ही रहा। पार्टी के सामने 17वीं लोकसभा चुनाव के लिए मजबूती से खड़े होने की चुनौती थी। इस चुनौती से निपटने के लिए मायावती ने ढाई दशक से धुर विरोधी सपा से हाथ मिलाकर यह साफ कर दिया कि अस्तित्व की रक्षा में वह कोई भी दायरा तोडऩे को अब तैयार है।

जानकारों का साफतौर पर मानना है कि सपा-बसपा के हाथ मिलने का सपा से कहीं अधिक बसपा को फायदा होने वाला है, क्योंकि उसके पास ज्यादा कुछ खोने को है ही नहीं। गठबंधन की ताकत से उसकी सीटें निश्चित तौर पर बढ़ेगी। गौरतलब है कि पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी को सीट भले ही नहीं मिली थी लेकिन, 34 सीटों पर वह दूसरे पायदान पर थी। इस बार सपा व रालोद के साथ गठबंधन में बसपा के हिस्से में 80 में से 38 सीटें ही आई हैैं लेकिन, सपा का साथ मिलने से उसे इन सीटों पर सीधा फायदा मिल सकता है। गठबंधन में अपने कोटे वाली सीटों पर बसपा प्रमुख मायावती ने जातीय समीकरण और आर्थिक स्थिति को देखते हुए प्रत्याशी भी तय कर दिए हैैं।

बसपा का उप्र की लोस सीटों पर प्रदर्शन

चुनावी वर्ष    जीती सीटें     मिले मत (फीसद में)

2014                00              19.77

2009                20              27.42

2004                19              24.67

1999                 14             22.08

1998                 04             20.90

1996                 06             20.61

1991                  01             08.70

1989                  02             09.93 


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