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Lok Sabha Election 2019: गोरखालैंड- न निगलते बने न उगलते !

पश्चिम बंगाल राज्य में कुल 42 लोकसभा सीट है। उसमें एकमात्र दार्जीलिंग लोकसभा सीट को छोड़कर अन्य सारी की सारी 41 सीट वाली बंगाली बहुल आबादी बंग-भंग विरोधी है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Mon, 01 Apr 2019 03:27 PM (IST)Updated: Mon, 01 Apr 2019 03:27 PM (IST)
Lok Sabha  Election 2019: गोरखालैंड- न निगलते बने न उगलते !
Lok Sabha Election 2019: गोरखालैंड- न निगलते बने न उगलते !

इरफान-ए-आजम, सिलीगुड़ी। पश्चिम बंगाल राज्य में कुल 42 लोकसभा सीट है। उसमें एकमात्र दार्जीलिंग लोकसभा सीट को छोड़कर अन्य सारी की सारी 41 सीट वाली बंगाली बहुल आबादी बंग-भंग विरोधी है। इस बहुसंख्यक आबादी को बंगाल का विभाजन मंजूर नहीं।

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अलग राज्य गोरखालैंड स्वीकार नहीं। सो, एकमात्र दार्जीलिंग सीट के लिए कोई पार्टी गोरखालैंड का राग अलाप कर बाकी की 41 सीटों पर विरोध मोल लेने का दुस्साहस नहीं कर सकती। वहीं, यदि गोरखालैंड का राग न अलापे तो दार्जीलिंग के गोरखाओं का कोपभाजन बनना पड़ेगा। गौरतलब है कि जब एक-एक वोट कीमती होता है तो यहां तो एक सीट का सवाल है। यही वजह है कि गोरखालैंड का मुद्दा न निगलते बन रहा है न उगलते।

उल्लेखनीय है कि दार्जीलिंग पार्वत्य क्षेत्र के गोरखाओं द्वारा अलग राज्य गोरखालैंड की मांग सदी भर से ज्यादा पुरानी है। पहले पहल वर्ष 1907 में हिल मेंस एसोसिएशन ऑफ दार्जीलिंग ने अलग राज्य गोरखालैंड की ब्रिटिश सरकार से मांग की थी। उसके बाद कालांतर में यह मांग ठंडी पड़ गई। वर्ष 1980 में सुभाष घीसिंग ने गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट गठित कर नए सिरे से गोरखालैंड की आवाज उठाई। 1986 में बड़ा ¨हसक आंदोलन हुआ। 1200 लोगों की जानें गई। तब, जा कर 1988 में केंद्र की कांग्रेस व राज्य की माकपा सरकार ने पहाड़ के लिए स्वायत्त शासन की व्यवस्था की। दार्जीलिंग गोरखा हिल काउंसिल (डीजीएचसी) गठित हुआ। सुभाष घीसिंग उसके प्रशासक बने।

उन्होंने दो दशक तक पहाड़ पर एक छत्र निरंकुश शासन किया। कालांतर में गोरखालैंड की मांग फिर ठंडी पड़ गई। उनके दाहिना हाथ विमल गुरुंग ने वर्ष 2007 में उनसे बगावत कर ली। अपना गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (गोजमुमो) गठित किया। नए सिरे से फिर गोरखालैंड आंदोलन शुरू हुआ। कई जानें गईं। तब, जुलाई 2011 में राज्य की ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस सरकार व केंद्र की कांग्रेस सरकार ने पहाड़ को और अधिक स्वायत्ता की व्यवस्था दी। गोरखालैंड टेरिटोरिअल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) बना। विमल गुरुंग उसके प्रशासक हुए। मगर, राज्य सरकार से हमेशा उनकी अनबन ही रही। सो, उन्हें राज्य सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा।

वर्ष 2017 में बात बहुत बिगड़ गई। जगह-जगह ¨हसक प्रदर्शन हुए। उसके लिए विमल गुरुंग को जिम्मेदार करार देते हुए राज्य की ममता सरकार ने उन पर कानूनी शिंकजा कस दिया। विमल गुरुंग अपने दाहिना हाथ रौशन गिरि संग भूमिगत होने को बाध्य हुए। नवंबर 2017 से अब तक वह भूमिगत ही हैं। इधर, विमल गुरुंग के बाएं हाथ रहे विनय तामांग राज्य की ममता बनर्जी सरकार की मेहरबानी से जीटीए का शासन संभाल रहे हैं। अब फिर आम चुनाव का बिगुल बज गया है। हर दल फिर मदान में है। मगर, इक्का-दुक्का स्थानीय दल व उसके उम्मीदवार के अलावा कोई भी गोरखालैंड पर खुल कर कुछ नहीं कह रहा। इसे लेकर पहाड़ के लोग भी असमंजस में हैं।

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (विमल गुरुंग गुट) के भूमिगत अध्यक्ष विमल गुरुंग समय-समय पर विज्ञप्ति, ऑडियो, वीडियो वार्ता जारी कर पैगाम देते रहते हैं कि उनका गोजमुमो गोरखाओं के पहचान संकट को दूर करने को संकल्पित है। उनके गोजमुमो ने अपने परम प्रतिद्वंद्वी गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) से भी हाथ मिला लिया है। पहाड़ के पूर्व प्रशासक स्वर्गीय सुभाष घीसिंग के पुत्र मन घीसिंग गोजमुमो (विमल गुरुंग गुट) के साथ हो गए हैं। इन दोनों ने इस आम चुनाव में भाजपा को अपना समर्थन दिया है। तृणमूल कांग्रेस को गोजमुमो (विनय तामांग गुट) का समर्थन है। कांग्रेस व माकपा अलग-अलग अकेले चुनावी मैदान में है। अन्य कई निर्दलीय भी हैं।


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