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Lok Sabha Election 2019: Article 370 विवाद के बीच श्रीनगर सीट के मायने क्या हैं?

Lok Sabha Election 2019 श्रीनगर की सीट कश्मीर की राजनीती का केंद्र बिंदु है। राज्य के अलावा इसका राष्ट्रीय राजनीति और भारत-पाक रिश्तों पर भी गहरा प्रभाव है।

By Amit SinghEdited By: Published: Thu, 18 Apr 2019 09:51 AM (IST)Updated: Thu, 18 Apr 2019 06:28 PM (IST)
Lok Sabha Election 2019: Article 370 विवाद के बीच श्रीनगर सीट के मायने क्या हैं?
Lok Sabha Election 2019: Article 370 विवाद के बीच श्रीनगर सीट के मायने क्या हैं?

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। जम्मू-कश्मीर की श्रीनगर-बडगाम लोकसभा सीट, राज्य की सबसे अहम सीट है। इस सीट की अहमियत इतनी ज्यादा है कि ये राज्य की राजनीति से लेकर दिल्ली की सियासत तक को प्रभावित करती रहती है। इतना ही नहीं भारत-पाक संबंधों के लिए भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर से ये सीट काफी महत्वपूर्ण है। राज्य में अनुच्छेद-370 को लेकर गहराए विवाद के बाद ये सीट राजनीतिक पार्टियों के लिए साख का सवाल बन चुकी है।

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श्रीनगर-बडगाम, कभी नेशनल कॉफ्रेंस (नेकां) का मजबूत किला हुआ करती थी। राज्य की सियासत में नेकां का एकछत्र राज रहा है। नेकां ने अपने इस किले को फिर से हासिल करने के लिए वरिष्ठ नेता डॉ. फारुक अब्दुल्ला को मैदान में उतारा है। डॉ. फारुक अब्दुल्ला, राज्य की सियासत में बड़ा चेहरा हैं। ऐसे में नेकां के लिए इस सीट पर करो या मरो जैसी स्थिति है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के तारिक हमीद ने डॉ. फारुक अब्दुल्ला को हराकर, नेकां के किले में सेंध लगा दी थी।

ये है इस सीट की अहमियत
श्रीनगर लोकसभा सीट, सेंट्रल कश्मीर में स्थित है। इस लोकसभा सीट में श्रीनगर, बडगाम और गांदरबल जिलों की 15 विधानसभा सीटें आती हैं। इस सीट पर कुल 12,94,560 मतदाता हैं। इस सीट पर मुख्य मुकाबला 82 वर्षीय डॉ. फारुक अब्दुल्ला, पीडीपी के आगा मोहसिन, पीपुल्स कॉफ्रेंस के इरफान रजा अंसारी और भाजपा के युवा नेता खालिद जहांगीर के बीच है। इस सीट पर मुकाबला इसलिए और दिलचस्प हो गया है, क्योंकि कांग्रेस ने यहां से अपना कोई उम्मीदवार न उतारकर, नेकां को समर्थन किया है। नेकां उम्मीदवार डॉ. फारुक अब्दुल्ला इस सीट से चौथी बार लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं। बहुत से लोगों का मानना है कि ये उनका अंतिम चुनाव हो सकता है। हालांकि, ये रिजल्ट पर निर्भर करेगा।

पीसी व भाजपा के लिए सुनहरा मौका
पीपुल्स कांफ्रेंस (पीसी) और भाजपा के लिए श्रीनगर लोकसभा सीट पर गंवाने के लिए कुछ नहीं है। ऐसे में इन पार्टियों के पास इस सीट पर उपस्थिति दर्ज कराने का सुनहरा मौका है। चुनावी विशेषज्ञों का आंकलन है कि इरफान रजा अंसारी, शिया वोटरों में तो बाजी मार सकते हैं, लेकिन अन्य समुदायों में उनकी अच्छी पकड़ नहीं है। उन पर भाजपा के एजेंट का भी टैग है, जिसका उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। भाजपा के लिए श्रीनगर की संसदीय सीट प्रतिष्ठा का सवाल नहीं है। यहां भाजपा को मिलने वाला वोट बताएगा कि पांच वर्षों में उसने स्थानीय लोगों के दिल में कितनी जगह बनाई है। भाजपा को इससे आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारी के लिए भी मदद मिलेगी। इसलिए भाजपा को इस सीट पर अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद है।

पिछले विस चुनाव में बराबर पर रहीं नेकां व पीडीपी
श्रीनगर लोकसभा सीट के सियासी समीकरण का आंकलन किया जाए तो यहां नेकां और पीडीपी के बीच कांटे की टक्कर दिख रही है। राज्य में हुए पिछले विधानसभा चुनावों में इस पूरे क्षेत्र की 15 विधानसभा सीटों में सात-सात पर नेकां और पीडीपी, जबकि एक सीट पर पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंड ने जीत हासिल की थी। फिलहाल, श्रीनगर सीट पर नेकां मजबूत स्थिति में दिख रही है। डॉ. फारुक अब्दुल्ला की रैलियों में लोगों की भारी इसी तरफ इशारा करती है। कांग्रेस, भाजपा और पीपुल्स कॉफ्रेंस का इस क्षेत्र में खाता तक नहीं खुला था। सबसे बुरी स्थिति भाजपा उम्मदीवारों की रही थी। इस सीट पर ढाई लाख शिया मतदाता और करीब एक लाख कश्मीरी पंडित, सिख व अन्य गैर मुस्लिम मदताता हैं। अलगवादियों का भी इस सीट पर खासा प्रभाव दिखता है।

अब्दुल्ला खानदान का सियासी कद दांव पर
नेकां श्रीनगर सीट पर कोई चूक नहीं चाहती है। एक तो पार्टी प्रमुख फारुक अब्दुल्ला यहां से उम्मीदवार हैं। उनके लिए इस सीट पर जीत दर्ज करना न सिर्फ उनकी प्रतिष्ठा, बल्कि अब्दुल्ला खानदान के सियासी कद के लिए भी जरूरी है। दरअसल, इस क्षेत्र को अब्दुल्ला परिवार की सीट कहा जाता है। वर्ष 1967 से 2014 तक ज्यादातर इस सीट पर अब्दुल्ला परिवार का ही कब्जा रहा है। 1977 में फारुक अब्दुल्ला की मां बेगम अकबर, 1980 में फारुक अब्दुल्ला और 1998, 1999 व 2004 में उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ने इस सीट पर जीत का परचम लहराया। 2009 में फारुक अब्दुल्ला फिर इस सीट से लोकसभा चुनाव लड़े और जीत दर्ज की। सिर्फ 1971, 1996 और 2014 चुनाव में ही गैर नेकां उम्मीदवार ने इस सीट से संसद का सफर तय किया है। 1996 में नेकां ने चुनाव का बहिष्कार कर दिया था। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में फारुक अब्दुल्ला यहां से हार चुके हैं। वर्ष 2017 उपचुनाव में उन्होंने फिर से इस सीट पर जीत हासिल की थी। नेकां का प्रयास है कि इस बार वह इस सीट पर ज्यादा से ज्यादा मतों से जीत दर्ज करे।


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