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फ्लैश बैक : महात्मा गांधी से मिलने के बाद बदल गई इनके जीवन की दिशा, बन गए पूर्वी यूपी के 'लेनिन'

संविधान शिल्पियों में से एक शिब्बन लाल सक्सेना पेशे से डिग्री कालेज के अध्यापक थे। 1932 में महात्मा गांधी के आह्वान पर अध्यापन त्यागकर पूर्ण रुप से राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लिया।

By Pradeep SrivastavaEdited By: Published: Fri, 15 Mar 2019 10:38 AM (IST)Updated: Sun, 17 Mar 2019 08:59 AM (IST)
फ्लैश बैक : महात्मा गांधी से मिलने के बाद बदल गई इनके जीवन की दिशा, बन गए पूर्वी यूपी के 'लेनिन'

गोरखपुर, राजेश्वर शुक्ला। प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना। शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, आजादी के बाद सांसद, संविधान सभा के सदस्य.....। पर इन सबसे बढ़कर इनकी पहचान है जन नेता के रूप में। जन नेता यानी, अवाम की पीड़ा को महसूस करने वाला, लोगों के सुख-दुख का साझीदार, जनता के हक की लड़ाई लडऩे वाला। प्रो. शिब्बनलाल इन सभी पैमानों पर खरे उतरते थे और शायद यही वजह थी कि उन्हें कभी पूर्वी उत्तर प्रदेश का 'लेनिन' कहा गया। आज के दौर में जब नेतागिरी शब्द प्राय: दूसरे अर्थों में प्रयुक्त किया जाता हो, तब नेता शब्द को स'चे अर्थों में साकार करने वाले प्रो. शिब्बन लाल की कहानी जानना जरूरी हो जाता है। आम चुनाव के अवसर पर आइए रूबरू होते हैं जन नेता प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना से...।

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किसानों-मजदूरों के थे मसीहा

संविधान शिल्पियों में से एक शिब्बन लाल सक्सेना पेशे से डिग्री कालेज के अध्यापक थे। 1932 में महात्मा गांधी के आह्वान पर अध्यापन त्यागकर पूर्ण रुप से राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लिया। उन्होंने महराजगंज के किसानों -मजदूरों की सामाजिक-आर्थिक उन्नति के लिए कार्य किया। गोरखपुर संसदीय सीट से दो बार सांसद रहे हरिकेश बहादुर कहते हैं कि शिब्बन लाल ने मजदूरों के लिए लड़ाइयां लड़ी और जेल भी गए। उस दौर की राजनीति को ताजा करते हुए बुजुर्ग नेता हरिकेश कहते हैं कि तब राजनीति संघर्ष, त्याग, तपस्या व बलिदान पर आधारित थी अब जातिवाद, वंशवाद, भ्रष्टाचार व अपराध पर टिक गई है। बता दें कि हरिकेश बहादुर और शिब्बन लाल समकालीन रहे।

अब तक अधूरा है सपना

महराजगंज से तीन बार सांसद चुने गए प्रो. शिब्बन लाल अंतिम बार 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर सांसद चुने गये थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्हें महराजगंज का पहला सांसद होने का गौरव प्राप्त है। उन्होंने महराजगंज को रेलवे लाइन से जोडऩे के लिए 1946 में ही प्रयास शुरू कर दिया था, अफसोस, वह सपना अभी तक अधूरा ही है। आजादी के बाद उन्होने कांग्रेस पार्टी को छोड़ दिया और अपनी खुद की पार्टी बनाकर लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुए।

महात्मा गांधी से मुलाकात ने बदल दी दिशा

1930 में शिब्बनलाल सेंट एंड्रयूज कालेज में गणित के प्रवक्ता नियुक्त हुए और उन्होने यहीं से कारखाना मजदूरों को एकत्र कर मालिकों की मनमानी का विरोध करना शुरु कर दिया। उसी समय महात्मा गांधी एक सभा में भाषण देने के लिए गोरखपुर आए हुए थे। गांधी जी से उनकी पहली मुलाकात यहीं हुई और गांधी जी ने उन्हें कांग्रेस में आने की सलाह दी जिसे शिब्बनलाल ने स्वीकार कर लिया। अखबार में प्रकाशित एक खबर के अनुसार महात्मा गांधी से उन्हें पता चला कि  महाराजगंज में जमींदारों ने राजबली नाम के एक किसान को जिंदा जला दिया है। गांधी जी ने उस समय उपस्थित लोगों से महराजगंज की दयनीय हालत के बारे में चर्चा की और वहां जाकर जागृति फैलाने का अनुरोध  किया। शिब्बनलाल ने महाराजगंज जाकर लोगो को एक करने का बीड़ा उठाया और गांधी जी से आशीर्वाद लेकर अपने प्रवक्ता पद से इस्तीफा देकर महराजगंज आ गए।

लड़ी हक की लड़ाई

गन्ना किसानों की बेहतरी के लिए उन्होंने गन्ना उत्पादन नियंत्रण बोर्ड की भी स्थापना की जिस समय पूरा भारत गांधी के अहिंसा मार्ग पर चलते हुए आजादी के सपने देख रहा था उसी समय महराजगंज शिब्बनलाल के नेतृत्व में जमींदारी प्रथा के उन्मूलन की दिशा में कदम बढ़ा रहा था। 1937 से लेकर 1940 तक शिब्बनलाल ने विभिन्न किसान आंदोलनों से अंग्रेज सरकार की नाक में दम कर दिया जिसकी वजह से सरकार को जमीनों का एक बार फिर से सर्वे कराना पड़ा और जमीनों का पुन: आवंटन करना पड़ा। इस कारण तत्कालीन महराजगंज के एक लाख 25 हजार किसानों को उनकी जमीनों पर मालिकाना हक मिला। अखबारों ने शिब्बनलाल को 'पूर्वी उत्तर प्रदेश का लेनिन' कहकर संबोधित किया था। किसानों की जमीनों पर मालिकाना हक की इस व्यवस्था को 'गण्डेविया बंदोबस्त' कहते हैं।

चुनावी सफर

1957 में निर्दल चुनाव लड़े और 52.57 फीसद वोट पाकर विजयी हुए। उन्होंने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी हरिशंकर को 27 हजार से अधिक वोटों से हराया था। सक्सेना को 92 हजार 617 वोट मिले थे। इसके बाद 1962 में उन्हें महादेव प्रसाद से हार का सामना करना पड़ा। 1967 में गोरक्षपीठ के महंत दिग्विजय नाथ ने 42 हजार से अधिक वोटो से हरा दिया। 1971 में निर्दल प्रत्याशी के रूप में उन्हें फिर विजय हासिल हुई। इस बार उन्हें 93 हजार से अधिक वोट मिले। 1977 में शिब्बन लाल सक्सेना को 61.88 फीसद वोट मिले। उन्होंने रघुबर प्रसाद को एक लाख 31 हजार से अधिक वोटो से शिकस्त दी थी।


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