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वामदलों ने माना, भाजपा-संघ को राजनीतिक और वैचारिक प्रभुत्व को चुनौती देने में विफल रहे

लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में यूं तो सभी दलों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है लेकिन सबसे ज्यादा अगर किसी पर मार पड़ी है तो वो हैं वामदल।

By Arun Kumar SinghEdited By: Published: Fri, 24 May 2019 08:18 PM (IST)Updated: Fri, 24 May 2019 08:18 PM (IST)
वामदलों ने माना, भाजपा-संघ को राजनीतिक और वैचारिक प्रभुत्व को चुनौती देने में विफल रहे
वामदलों ने माना, भाजपा-संघ को राजनीतिक और वैचारिक प्रभुत्व को चुनौती देने में विफल रहे

नई दिल्ली, प्रेट्र/आइएएनएस। लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में यूं तो सभी दलों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है, लेकिन सबसे ज्यादा अगर किसी पर मार पड़ी है तो वो हैं वामदल। वामदलों की तो दुर्गति हो गई है। जिस पश्चिम बंगाल में कभी इनका एकछत्र राज था, वहां सीट की कौन कहे, जमानत तक नहीं बच पाई। वामदल अब तक के चुनावी इतिहास में सबसे निचले पादान पर पहुंच गए हैं, पूरे देश में इन्हें कुल जमा पांच सीटें ही मिली हैं। माकपा ने माना है कि पूरा विपक्ष भाजपा-संघ के प्रभुत्व को चुनौती तक देने में विफल रहा।

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मा‌र्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के मुखपत्र 'पीपुल्स डेमोक्रेसी' ने अपने संपादकीय में लिखा है, 'यह चुनाव परिणाम 2014 के चुनाव के बाद से शुरू हुए दक्षिणपंथी आक्रामकता के एकत्रीकरण का संकेत है।' अखबार लिखता है, 'वास्तविकता यह है कि वामदल समेत सेक्युलर विपक्षी पार्टियां भाजपा-संघ द्वारा स्थापित राजनीतिक और वैचारिक प्रभुत्व को प्रभावकारी ढंग से चुनौती तक देने में विफल रही हैं।'

संपादकीय में कहा गया है कि प्रधानमंत्री मोदी ने सांप्रदायिक एजेंडे को केंद्र में रखकर राष्ट्रवाद का अभियान चलाया, जिसने बहुसंख्यकों के अंदर राष्ट्रवाद की भावना को उभार दिया। धनबल का प्रयोग किया गया। सोशल मीडिया पर प्रचार में भाजपा ने पानी की तरह पैसा बहाया।

पुलवामा के बाद बालाकोट में एयर स्ट्राइक से भाजपा लोगों के अंदर मोदी की छवि एक मजबूत नेता की बनाने में सफल रही। भाजपा ने राष्ट्रवाद की आड़ में बहुत ही चालाकी से लोगों का ध्यान असल मुद्दों से हटा दिया।

वहीं, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के वरिष्ठ नेता डी राजा ने कहा, 'वामपंथ की राजनीतिक विचारधारा आज भी प्रासंगिक है, लेकिन चुनावी राजनीति के साथ वो तालमेल बिठाने में विफल रही है। हमें जरूरत आत्ममंथन की है, नए सिरे से रणनीति तैयार करने की है और लोगों को पुनर्गठित करने और उनसे जुड़ने की है।'

पश्चिम बंगाल कभी वाम राजनीति का गढ़ हुआ करता था। लेकिन ममता बनर्जी ने 2011 में इन्हें राज्य की सत्ता से बेदखल किया और 2019 के लोकसभा चुनाव में इनका यहां खाता तक नहीं खुला। बड़ी मुश्किल से जाधवपुर में इनका प्रत्याशी अपनी जमानत बचाने में सफल रहा, बाकी तो ऐसा भी नहीं कर पाए। यही नहीं राज्य की 42 सीटों पर वामपंथी पार्टियां दूसरे नंबर पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में विफल रही हैं।

वामदलों का वोट प्रतिशत भी घटकर सात फीसद पर आ गया है, जबकि 2014 के चुनाव में इन्हें 23 फीसद वोट मिला था। जबकि, भाजपा का वोट प्रतिशत 17.2 से 40.1 फीसद तक पहुंच गया है, जबकि तृणमूल ने भी मामूली सुधार करते हुए 39.7 के मुकाबले 43.5 फीसद तक पहुंच गई है।

वामपंथी राजनीति का दूसरा गढ़ केरल रहा है। वहां भी कांग्रेस के हाथों इन्हें शर्मनाक हार झेलनी पड़ी है। माकपा को सिर्फ एक सीट अलपुझा में जीत मिली है। वाम मोर्चा की घटक रिवोलुशनरी सोशलिस्ट पार्टी कोल्लम सीट जीतने में कामयाब रही है, लेकिन वह कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूनाइडेट डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) का हिस्सा है। वाम मोर्च में माकपा, भाकपा, भाकपा-माले, आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक और आरएसपी शामिल है।

हार से तेज हुई एकीकरण की मांग
हैदराबाद : लोकसभा चुनाव के लगभग सात दशक के इतिहास में सबसे शर्मनाक दौर से गुजर रहे वामदलों को एक करने की मांग एक फिर जोर पकड़ने लगी है। इस लोकसभा चुनाव में सबसे खराब प्रदर्शन के बाद भाकपा के वरिष्ठ नेता ने वामदलों को साथ आने का मुद्दा उठाया है।

भाकपा के महासचिव एस सुधाकर रेड्डी ने कहा कि उनकी पार्टी हमेशा से कहती रही है कि वामदलों का एकीकरण समय की मांग है। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि वामदलों में जान डालने के लिए यही एक मात्र समाधान नहीं है, लेकिन इससे पार्टी कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास बढ़ेगा। उन्होंने कहा कि सभी वामदलों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

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