बंगाल से त्रिपुरा तक उखड़ चुकी वामपंथी पार्टियों को अब गिरिडीह-कोडरमा से आस
अपने गढ़ पश्चिम बंगाल से लेकर त्रिपुरा तक से उखड़ चुकी वामपंथी पार्टियों के लिए कोडरमा और गिरिडीह लोकसभा सीट आशा की किरण है। झारखंड में इसकी जिम्मेदारी भाकपा माले ने उठाई है।
जागरण संवाददाता, गिरिडीह: अपने गढ़ पश्चिम बंगाल से लेकर त्रिपुरा तक से उखड़ चुकी वामपंथी पार्टियों के लिए कोडरमा लोकसभा सीट आशा की किरण है। झारखंड में वाम राजनीति को निराशा के इस दलदल से निकालकर दिल्ली पहुंचाने की जिम्मेदारी फिलहाल धुर वामपंथी राजनीतिक पार्टी भाकपा माले ने उठाई है। कारण, सूबे की 14 लोकसभा सीट में से एकमात्र कोडरमा सीट ही है, जहां कोई वामपंथी पार्टी चुनाव जीतने के लिए लड़ रही है। यह वामपंथी पार्टी है भाकपा माले।
यही कारण है कि इस लोकसभा चुनाव में वाम राजनीति का केंद्र बिंदु कोडरमा बनती जा रही है। पहले वाम राजनीति का केंद्र धनबाद एवं हजारीबाग होता था। इस बार दोनों जगहों पर वाम राजनीति सुस्त पड़ गयी है। धनबाद सीट तीन बार जितने वाली वामपंथी पार्टी मार्क्सवादी समन्वय समिति का कोई बड़ा नेता जहां वहां से चुनाव तक लड़ने को तैयार नहीं है वहीं हजारीबाग में भाकपा की हालत बेहद कमजोर हो चुकी है। दूसरी ओर कोडरमा लोकसभा सीट में माले लगातार अपनी ताकत बढ़ा रही है। 2004 के चुनाव से कोडरमा सीट पर गंभीरता से लड़ रही माले ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। हर चुनाव में इसकी ताकत बढ़ती गयी। पिछले चुनाव में माले यहां मोदी लहर में भी भाजपा की निकटतम प्रतिद्वंद्वी थी। बाबूलाल मरांडी की पार्टी झाविमो के प्रत्याशी प्रणव वर्मा तीसरे नंबर पर चले गए थे। इसी आंकड़े के आधार पर माले एवं उसकी सहयोगी पार्टी मासस कोडरमा सीट के लिए महागठबंधन पर दबाव बनाए हुए हैं।
हालांकि बाबूलाल के मैदान में उतरने के बाद स्पष्ट हो गया है कि माले को कोडरमा सीट महागठबंधन देने वाला नहीं है। खुद माले महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने भी स्वीकार किया है कि झारखंड में महागठबंधन होने वाला नहीं है। पार्टी के दिवंगत नेता महेंद्र सिंह के शहादत दिवस पर ही माले ने कोडरमा लोकसभा क्षेत्र में चुनावी बिगुल फूंक दिया था। पिछले तीन चुनावों से यहां भाजपा एवं झाविमो से मोर्चा लेने वाले पार्टी प्रत्याशी व राजधनवार के विधायक राजकुमार यादव पार्टी के केंद्रीय कमेटी के सदस्य विनोद सिंह के साथ मिलकर पूरे कोडरमा लोकसभा क्षेत्र में पदयात्रा कर चुके हैं।
विनोद सिंह एवं राजकुमार भाजपा के साथ-साथ बाबूलाल पर सीधे हमला बोल रहे हैं। झाविमो को भाजपा की बी टीम करार देने से भी दोनों नेता पीछे नहीं हट रहे हैं। मासस के अध्यक्ष व पूर्व विधायक आनंद महतो व विधायक अरूप चटर्जी भी इस कोशिश में हैं कि महागठबंधन कम से कम वाममोर्चा के लिए एक सीट कोडरमा छोड़ दे। झारखंड जहां वाम राजनीति अंतिम सांस गिन रहा है, वहां माले की कोडरमा में दमदार उपस्थिति राहत देने वाली बात है। महागठबंधन नेतृत्व भी कोडरमा में त्रिकोणीय लड़ाई की स्थिति देखकर परेशान है।
2004 लोकसभा चुनाव का परिणाम
- बाबूलाल मरांडी [झाविमो] 366656 [27 फीसद]
- चंपा वर्मा [झामुमो] 211712 [15 फीसद]
- राजकुमार यादव [माले] 136554 [10 फीसद]
2009 लोकसभा चुनाव का परिणाम
- बाबूलाल मरांडी [झाविमो] 199462 [14 फीसद]
- राजकुमार यादव [माले] 150942 [10 फीसद]
- लक्ष्मण स्वर्णकार [भाजपा] 115145 [8 फीसद]
2014 लोकसभा चुनाव का परिणाम
- डॉ. रवींद्र कुमार राय [भाजपा] 365410 [22 फीसद]
- राजकुमार यादव [माले] 266756 [16 फीसद]
- प्रणव वर्मा [झाविमो] 160638 [9 फीसद]
माले ने ली इंट्री तो कांग्रेस-राजद की बज गयी घंटी: कोडरमा लोकसभा क्षेत्र कांग्रेस एवं राजद का भी गढ़ रहा है। भाजपा बनाम कांग्रेस तो कभी भाजपा बनाम राजद की लड़ाई यहां होती रही है। लेकिन जैसे ही 2004 के लोकसभा चुनाव में यहां भाकपा माले के राजकुमार यादव ने इंट्री ली कांग्रेस एवं राजद दोनों सरेंडर कर गए। वहीं बाबूलाल मरांडी भाजपा से अलग होकर भी यहां अपनी जमीन मजबूत करने में सफल रहे। इसका नतीजा यह रहा कि यहां लड़ाई के केंद्र में बाबूलाल एवं राजकुमार यादव दोनों रहे। वहीं कांग्रेस ने तो मैदान ही छोड़ दिया। कभी इस सीट के लिए गठबंधन में हाय-तौबा मचाने वाली कांग्रेस एवं राजद ने तो अब इस सीट पर दावा भी नहीं ठोक रहे हैं।
कोडरमा में माले अकेले भाजपा को रोकेगी: दीपंकर भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा है कि कोडरमा में भाजपा को माले अपने दम पर रोकेगी। माले यहां अपने दम पर भाजपा को हराने में सक्षम है। महागठबंधन से माले की सेहत पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। पिछले चुनाव में भी माले ने अपने दम पर भाजपा का मुकाबला किया था। जहां तक बाबूलाल मरांडी का सवाल है तो वे भाजपा को रोकने में सक्षम नहीं हैं। दस साल वे वहां के सांसद रहे और जब जवाब देने की बारी आयी तो वे पलायन कर गए। महागठबंधन का वे उम्मीदवार बनकर आते हैं तो इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। इसका फायदा भाजपा को ही मिलेगा। यहां लड़ाई माले एवं भाजपा के बीच है।