Lok Sabha Election: 'हाथ' ने सपा के इन गढ़ों में फिर खड़े कर दिए हाथ
वैसे भी जीत के लिए थी किसी चमत्कार की जरूरत 35 साल पहले मिली थी आखिरी जीत। बीते तीन चुनावों में भी मैदान नहीं उतारा था प्रत्याशी इस बार भी खाली छोड़ दिया मैदान।
आगरा, जेएनएन। चंद दिनों की जिद्दोजहद के बाद आखिरकार हाथ ने मैनपुरी और फीरोजाबाद के सियासी मैदान में उतरने से हाथ खड़े कर दिए हैं। पूर्व में महासचिव बनने के बाद ज्योतिरादित्या सिंधिया ने अपनी पहली बैठक में संगठन को तैयारी का निर्देश दिया था। मैनपुरी लोकसभा सीट के लिए लोकसभा प्रभारी भी तय कर दिया गया। परंतु अब भविष्य के लिहाज से महागठबंधन को सियासी शिष्टाचार का दांव चला गया है। पार्टी ने तय कर दिया है कि मैनपुरी पर वह सपा के चलते सीट खाली छोड़ेगी। हालांकि यहां कांग्रेस की जीत लगभग नामुमकिन मानी जा रही थी, इसके लिए उसे किसी चमत्कार की ही जरूरत पड़ती। क्योंकि कांग्रेस बीते 35 सालों से वर्चस्व बचाने को ही जूझ रही है। लोकसभा तो छोडि़ए, यहां पालिका- पंचायतों तक के चुनावों में फिलहाल वह बेदम ही नजर आती है।
मैनपुरी में सपा का गढ़ तो पिछले आठ लोकसभा चुनावों से बना है, परंतु आजादी के बाद इस सीट पर कांग्रेस का ही दबदबा था। वर्ष 1952 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में पार्टी जीती थी। इसके बाद वर्ष 84 के चुनाव तक कांग्रेस के सूरमा चार बार विजयी रहे। फिर वर्ष 89 में कांग्रेस दूसरे नंबर पर खिसक गई। इसके बाद कांग्रेस का वोटबैंक ऐसा दरका कि वह फिर दोबारा कभी भी जीत की दहलीज तक नहीं पहुंच पाई। कांग्रेस की कमजोरी का अंदाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि पार्टी ने आखिरी बार वर्ष 2004 के लोकसभा उपचुनाव में सुमन चौहान को लड़ाया था। तब पार्टी को केवल 11, 391 वोट ही हासिल हो पाए थे।
वर्तमान में संगठन के मामले में कांग्रेस बहुत मजबूत नहीं दिखती। इसकी एक वजह बीते तीन लोकसभा चुनावों (2009, 2014 और 2014 के उप चुनाव ) में मैदान में न उतरना भी है। पार्टी पदाधिकारी भी कहते हैं कि जब पार्टी चुनाव ही नहीं लड़ेगी तो संगठन मजबूत कैसा होगा? पार्टी भी इस दौरान उदासीन होते गए। हालांकि अब राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने और प्रियंका गांधी के आने के बाद संगठन उत्साह से लबरेज है।
जीत की सुनहरी यादें
1952 में बादशाह गुप्ता जीते।
1962 में बादशाह गुप्ता जीते।
1967 में महाराज सिंह जीते।
1971 में महाराज सिंह जीते।
1984 में चौ. बलराम सिंह जीते।
हार का सिलसिला
1957, बादशाह गुप्ता, दूसरे स्थान पर
1977, महाराज सिंह दूसरे स्थान पर
1980, महाराज सिंह, तीसरे स्थान पर
1989, कृष्णचंद्र यादव दूसरे स्थान पर
1991, कृष्ण चंद्र यादव, तीसरे स्थान पर
1996,कृष्ण चंद, चौथे स्थान पर
1998,शिवनाथ सिंह, छठवें स्थान पर
1999, मुंशीलाल, चौथे स्थान पर
2004, राजेंद्र सिंह जादौन, चौथे स्थान पर
2004, उपचुनाव में सुमन चौहान चौथे स्थान पर
संगठन निराश
पार्टी के फैसले के बाद पदाधिकारी खुलकर कुछ नहीं बोल रहे। परंतु अंदरखाने निराशा जता रहे हैं। उनका कहना है जब पार्टी चुनाव ही नहीं लड़ेगी तो संगठन मजबूत कैसा होगा? पहले इसी कारण पार्टी के नेता और कार्यकर्ता भी इस दौरान उदासीन होते गए। इस बार राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने और प्रियंका गांधी के आने से उत्साह जगा था। परंतु अब फिर यह निराशा में बदल गया है। इस बाबत जिलाध्यक्ष संकोच गौड़ का कहना है कि हम तो चुनाव के लिए पूरी तैयारी किए बैठे थे। हाईकमान ने सीट छोडऩे का फैसला किया है तो उसी हिसाब से काम किया जाएगा।
फीरोजाबाद के सियासी घमासान से पहली बार दूर रहेगी कांग्रेस
प्रियंका गांधी की सक्रिय राजनीति से बूढ़ी कांग्रेस की रगों में आया उबाल अब सैफई परिवार के सम्मान में एक बार फिर यहां ठंडा होता नजर आ रहा है। सम्मान की सियासत में सैफई के चाचा शिवपाल के सामने प्रत्याशी खड़ा न किए जाने के फैसले से ताल ठोंक रहे पहलवान बाहर हो गए। सुहागनगरी की सियासत में ऐसा पहली बार होगा,जब कांग्रेस सियासी घमासान को दूर से देखेगी।
आजाद भारत के पहले चुनाव में कांग्रेस ने खाता खोला, मगर सियासत का सफर यहां एकतरफा नहीं रहा। पहले चुनाव में जीत के बाद दूसरे चुनाव में कांग्रेस हार गई। इसके बाद छह चुनाव एक बार जीत और एक बार हार में गुजर गए। सातवें चुनाव 1980 में हुए सातवीं लोकसभा के चुनाव में पार्टी की गिरावट आई और तीसरे नंबर पर पहुंच गई। 1984 में इंदिरा लहर में एक बार फिर कांग्रेस काबिज हुई, लेकिन उसके बाद से वनवास होता गया। हर चुनाव लड़ा लेकिन चौथे से पांचवें नंबर पर ही रह गई। 2009 के उपचुनाव में राजबब्बर जीते, लेकिन फिर वही हाल हो गया। इतना सब होने के बाद कभी मैदान से बाहर नहीं हुई।
आधा दर्जन से अधिक थे दावेदार
पांच दिन पहले पार्टी के राष्ट्रीय सचिव रोहित चौधरी और प्रभारी किशन मुदगल ने स्थानीय कार्यकर्ताओं की बैठक कर आवेदकों की सूची तैयार की थी। आधा दर्जन लोगों ने दावेदारी की थी।
विस में आए थे यूपी के लड़के
पिछले विस चुनाव में चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस और सपा का गठबंधन हुआ था। राहुल गांधी और अखिलेश यादव यूपी के लड़के बनकर आए थे। इस गठबंधन में जिले की पांचों विस सीटें सपा के खाते में चली गई थीं। हालांकि कांग्रेस उस समय सपा के साथ चुनावी समर में उतरी थी, मगर इस बार सम्मान की सियासत में यह तय नहीं हो पा रहा है कि कांग्रेसी जाएंगे कहां?
प्रसपा थी गठबंधन को तैयार
सपा छोड़ प्रसपा बनाने वाले शिवपाल सिंह यादव कांग्रेस से गठबंधन के लिए हमेशा से तैयार रहते थे। कई बार उन्होंने कहा कि यदि कांग्रेस के साथ वे गठबंधन को तैयार हैं तो सेक्युलर दलों को एक साथ आना चाहिए। इसके अलावा उन्होंने अन्य छोटे दलों से गठबंधन किया। हालांकि प्रसपा से गठबंधन के लिए कांग्रेस की ओर से अब तक कोई पहल नहीं की गई। इस बारे में कांग्रेस जिलाध्यक्ष हरीशंकर तिवारी का कहना है कि हम अपनी तैयारी में हैं। हाईकमान की ओर से अभी कोई इस तरह का संदेश नहीं आया है। कांग्रेस हमेशा से दावेदार खड़े करती रही है। इस बार भी दावेदार तैयार हैं। बाकी हाईकमान के फैसले पर निर्भर करेगा।
पहले चुनाव से 2014 तक के सूरमा
1952 रघुवीर सिंह यादव- जीते
1957 रघुवीर सिंह यादव- हारे
1962 शंभूनाथ चतुर्वेदी- जीते
1967 छत्रपति अम्बेश- हारे
1971 छत्रपति अम्बेश-जीते
1977 राजाराम पिप्पल- हारे
1980 तीसरे
1984 गंगाराम- जीते
1989- गंगाराम- हारे
1991 - आजाद कर्दम- हारे - तीसरा नंबर
1996- गुलाब सेहरा- हारे चौथा नंबर
1998- बच्चू सिंह हारे- पांचवां नंबर
1999- आरपीआइ गठबंधन
2004- डॉ शिवनारायण गौतम-हारे-पांचवां नंबर
2009- राजेंद्र पाल- हारे-पांचवां नंबर
2009- उपचुनाव राजबब्बर-जीते
2014- अतुल चतुर्वेदी- हारे चौथा नंबर