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बिहार में राजद की बैसाखी को थाम सबसे बुरे दौर से गुजर रही है कांग्रेस, जानिए

बिहार में कांग्रेस अपने अबतक के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। यहां उसे राजद के भरोसे रहना पड़ रहा है। बिहार में कभी अपने पहचान रखने वाली पार्टी आज अपना आत्मविश्वास खो चुकी है।

By Kajal KumariEdited By: Published: Mon, 01 Apr 2019 10:42 AM (IST)Updated: Mon, 01 Apr 2019 11:49 PM (IST)
बिहार में राजद की बैसाखी को थाम सबसे बुरे दौर से गुजर रही है कांग्रेस, जानिए
बिहार में राजद की बैसाखी को थाम सबसे बुरे दौर से गुजर रही है कांग्रेस, जानिए

पटना [अरुण अशेष]। बिहार में कांग्रेस सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। 1996 के बाद लगातार राजद के सहारे चल रही पार्टी में इतना आत्मविश्वास नहीं बचा है कि सहयोगी दलों के साथ अपनी शर्तों को लेकर आमने-सामने बैठकर बातचीत कर सके। नतीजा सामने है।

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1950 के प्रोविंसियल एसेंबली के चुनाव से अब तक यह पहला मौका है जब औरंगाबाद लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस का उम्मीदवार चुनाव नहीं लड़ रहा है। राजद ने बिना उससे सलाह किए सहयोगी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) को यह सीट दे दी। औरंगाबाद कांग्रेस के लिए प्रतीक है।

दो उप चुनाव के साथ इस लोकसभा क्षेत्र में अबतक 18 चुनाव हुए। उनमें नौ बार सत्येंद्र नारायण सिन्हा या उनके परिजनों की जीत हुई। बेटिकट हुए निखिल कुमार उन्हीं के पुत्र हैं। मजबूरी ऐसी कि अपनी प्रतिक्रिया तक जाहिर नहीं कर सके।

ऐसा नहीं है कि इन वर्षों में कांग्रेस ने अपने पैर पर चलने की कोशिश नहीं की। 2009 में एक बार लड़खड़ा कर गिरी तो फिर साहस नहीं जुटा पाई। ऐसी हालत एक दिन में नहीं बनी। 2000 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 24 सीटों पर जीती थी।

कांग्रेस को स्वतंत्र पहचान बनाने का अवसर मिला था, लेकिन उस अवसर को उसने सुविधा के हवाले कर दिया। 24 में से 22 विधायक राबड़ी देवी की सरकार में मंत्री बन गए। एक को विधानसभा अध्यक्ष की कुर्सी मिल गई। एक विधायक ने मंत्री पद इसलिए ठुकराया कि उन्हें राज्यमंत्री क्यों बनाया जा रहा है। सुविधा भोगने की इस प्रवृत्ति ने पार्टी को तबाह कर दिया।

ताजा हाल यह है कि महागठबंधन में उसे लोकसभा की सिर्फ नौ सीटें ऑफर की गईं। राज्यसभा की एक सीट  का भी ऑफर दिया गया, ताकि इसके नाम पर बड़े-बड़े कांग्रेसी सालभर राजद नेताओं की गणेश परिक्रमा करते रहें। लोकसभा की नौ सीटों में भी कांग्रेस को पसंद का अधिकार नहीं दिया गया। सीटों की यह संख्या शायद 2014 के चुनाव परिणाम के आधार पर तय की गई।

उस चुनाव में राजद ने कांग्रेस को 12 सीटें दी थीं। उम्मीदवारों की तलाश हुई तो पता चला कि कांग्रेस के पास लड़ने लायक चेहरे हैं ही नहीं। राजद ने तीन उम्मीदवार उधार में दिए थे। हालत में सुधार नहीं हुआ है। इस बार भी बाहर से उम्मीदवार लेने पड़ रहे हैं। भाजपा सांसद कीर्ति आजाद इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं।

कांग्रेस जिस दरभंगा लोकसभा सीट को परंपरागत बता रही है, उस पर 1980 के बाद उसकी कभी जीत ही नहीं हुई। 1984 के लहर में भी कांग्रेस के उम्मीदवार और तत्कालीन केंद्रीय राज्यमंत्री हरिनाथ मिश्र हार गए थे।

यही हाल पूर्णिया का है। वहां से कांग्रेस ने भाजपा के पूर्व सांसद उदय सिंह उर्फ पप्पू सिंह को उम्मीदवार बनाया है। पूर्णिया में कांग्रेस की माधुरी सिंह 1984 में अंतिम चुनाव जीती थीं। वह पप्पू सिंह की मां थीं। 1990 में सत्ता से दूर हुई कांग्रेस 1995 के चुनाव में विधानसभा में विपक्ष का दर्जा गंवा बैठी। तीसरे नंबर की पार्टी रही भाजपा उस चुनाव में विपक्ष में आ गई। इसके बावजूद कांग्रेस सचेत नहीं हुई।

भाजपा ने न सिर्फ उससे विपक्ष का दर्जा छीना, बल्कि धीरे-धीरे वह उसके जनाधार पर भी काबिज होती चली गई। सवर्ण भाजपा की ओर चले गए। पिछड़े और अल्पसंख्यक समाजवादी धारा की पार्टियों से जुड़ गए और अनुसूचित जातियां अलग-अलग दलों के साथ चली गईं। ले-देकर कांग्रेस के पास उम्मीदवारों की बिरादरी और प्रभाव के दायरे में आने वाले लोग रह गए।

हाल-फिलहाल तीन राज्यों (मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान) में विधानसभा चुनाव जीतने के बावजूद बिहार में कांग्रेस के जनाधार का विस्तार नहीं हुआ। इसी तीनफरवरी को गांधी मैदान में आयोजित कांग्रेस की रैली में भीड़ जुटाने का श्रेय निर्दलीय विधायक अनंत सिंह को दिया जा रहा है। अनंत कभी कांग्रेसी नहीं रहे, बस मुंगेर से टिकट की उम्मीद में कांग्रेस पर अहसान कर दिया।


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