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Lok Sabha Election 2019: पूरी तरह से फेल हुए राहुल और प्रियंका, कांग्रेस में गहराया अस्तित्व का संकट

कांग्रेस नरेंद्र मोदी और अमित शाह की सियासत को अब भी समझ नहीं पा रही है। 2019 के चुनाव परिणाम बाद कांग्रेस के अस्तित्व का संकट गहराता जा रहा है।

By Dhyanendra SinghEdited By: Published: Fri, 24 May 2019 03:09 AM (IST)Updated: Fri, 24 May 2019 03:09 AM (IST)
Lok Sabha Election 2019: पूरी तरह से फेल हुए राहुल और प्रियंका, कांग्रेस में गहराया अस्तित्व का संकट
Lok Sabha Election 2019: पूरी तरह से फेल हुए राहुल और प्रियंका, कांग्रेस में गहराया अस्तित्व का संकट

नई दिल्ली, [संजय मिश्र]। लोकसभा चुनाव नतीजों ने कांग्रेस के अस्तित्व पर मंडराते संकट को ज्यादा चिंताजनक ही नहीं और गहरा कर दिया है। राहुल गांधी राष्ट्रीय नेतृत्व का विकल्प बनने में एक बार नाकाम रहे हैं। तो चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस के ब्रह्मास्त्र के रुप में राजनीति के मैदान में उतरीं प्रियंका गांधी वाड्रा पार्टी को जीत दिलाना तो दूर उसे सम्माजनक स्थिति में पहुंचाने में भी विफल रही हैं।

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अपने दोनों शीर्ष चेहरों की नाकामी के साथ सियासी संकट के दोराहे पर खड़ी देश की सबसे पुरानी पार्टी के भविष्य को लेकर चौतरफा सवालों की झड़ी लग गई है जिन पर कांग्रेस को आत्मचिंतन ही नहीं गंभीर मंथन करना होगा। अमेठी की चुनावी करवट केवल राहुल गांधी की शिकस्त भर नहीं बल्कि देश व उत्तरप्रदेश में कांग्रेस की हुई दुर्गति का सबसे बड़ा आइना है।

परिणामों से साफ है कि चुनावी परिदृश्य पर इधर-उधर की बातों और बहानों की आड़ में नाकामी को ढंकने की कांग्रेस नेतृत्व की कोई भी कोशिश पार्टी का बंटाधार ही करेगी। राष्ट्रीय परिणामों से सुर मिलाते अमेठी की सियासी करवट की अंगड़ाई का संदेश साफ है कि कांग्रेस साफ तौर पर देश के बदले मिजाज और चिंतन को अब भी समझ नहीं पा रही है। कांग्रेस की चुनौती ज्यादा गहरी इसीलिए भी दिख रही कि पार्टी जनता की नब्ज पढ़ने के साथ-साथ राजनीति के बदल गए 'गेम' को भी समझ नहीं पा रही है।

पिछले दो लोकसभा चुनाव परिणामों से साफ है कि नरेंद्र मोदी की सियासत को समझना तो दूर कांग्रेस इसे पढ़ भी नहीं पा रही। कांग्रेस मोदी पर जो भी हमला करती है उसे वे अपने फायदे में तब्दील कर लेते हैं। इस चुनाव में राहुल गांधी ने मोदी पर 'चौकीदार चोर है' का हमला किया तो पीएम ने इसी पर अपनी चुनावी थीम बना कांग्रेस को उसके ही नारे के गेम में फंसा लिया। सूट-बूट की सरकार को गरीब चाय वाले के बेटे, नामदार बनाम कामदार, प्रगतिशील उदारवाद को टुकड़े-टुकड़े गैंग पर ही नहीं राष्ट्रवाद पर भी कांग्रेस मोदी की सियासी घेरेबंदी को आखिर तक समझ नहीं पायी। इन मुद्दों की सियासी नब्ज पकड़ने की बजाय कांग्रेस हवा में ही तीर मारती रही।

कांग्रेस के नेतृत्व को यह भी समझना होगा कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने देश की सियासत की शैली ही नहीं स्वरूप को बदल कर रख दिया है। जहां कुछ भी नहीं दिखता वहां से भी ये दोनों कुछ न कुछ निकाल लेते हैं। पश्चिम बंगाल हो या ओडि़सा या फिर तेलंगाना में भाजपा की सफलता के उदाहरण से साफ है कि कांग्रेस अब भी मोदी-शाह की सियासत को समझ नहीं पा रही।

राहुल-प्रियंका इस चुनाव में भी साफ तौर पर रणनीतिकारों के भरोसे रहे जबकि एक बार फिर साबित हो गया कि मोदी और शाह नेता ही नहीं बल्कि खुद ही रणनीतिकार हैं। लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी से लेकर सुमित्रा महाजन जैसे दिग्गजों के चुनाव नहीं लड़ाने के बड़े फैसले की चाहे जितनी आलोचना हो मगर रणनीति के हिसाब से वे मुफीद साबित हुए हैं। मगर कांग्रेस नेतृत्व लकीर के फकीर की अपनी राह पर चलते हुए पार्टी हित में ऐसा कोई साहसिक कदम उठाते नहीं दिखा।

प्रियंका गांधी को उत्तरप्रदेश में ट्रंप कार्ड के तौर पर आखिरी में उतारा भी गया तो उनका पूरा उपयोग करने में हिचकिचाहट बार-बार नजर आयी। कांग्रेस नेतृत्व को यह समझना होगा कि उत्तरप्रदेश में ग्रास रूट की राजनीति करने वाले अखिलेश यादव और मायावती जैसे दिग्गज भी सूबे में मोदी-शाह के सियासी फर्राटे को रोकने में नाकाम साबित हो रहे हैं तो फिर राहुल-प्रियंका की उपरी मौसमी राजनीति पार्टी की तकदीर कैसे बदलेगी।

चुनाव के दौरान मुद्दों के हिसाब से विरोधी को अपने दांव में फंसाने की भाजपा की सियासत को भी कांग्रेस पढ़ने में नाकाम रही। मसला चाहे बालाकोट व राष्ट्रवाद को हो या फिर सिख दंगे या बोफोर्स के बहाने भ्रष्टाचार। मोदी जरूरत के हिसाब से मुद्दे उछालते रहे कांग्रेस जब तक इन्हें लपक कर समझती तब तक दूसरे मुद्दे के फंदे से वे उसे घेर लेते। ऐसे में राहुल और प्रियंका के साथ कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को ठंढे दिमाग से सोचना होगा कि पार्टी को अब तक के सबसे मुश्किल हालात से कैसे उबारना होगा।

कांग्रेस के लिए तत्काल इसका उत्तर देना भी आसान नहीं है और पार्टी को इसका उत्तर भी अपने अंदर से ही तलाशना होगा। इसके लिए नेतृत्व को ठंढे दिमाग से सोचना होगा कि चौबीसों घंटे सियासत करने वाले विरोधी खेमे के नेतृत्व के सामने उसकी मौसमी सियासत की शैली भला कैसे टिकेगी। जाहिर तौर पर कांग्रेस को अभी से हाईकमान की पुरानी संस्कृति को दफन कर कार्यकर्ताओं के साथ सीधा संवाद बनाना होगा। ताकि कार्यकर्ताओं का टूटा मनोबल वापस लौटे।

प्रियंका गांधी को वाकई कांग्रेस का ब्रह्मास्त्र बनना है तो फिर बंद कमरे में बैठकों से बात नहीं बनेगी बल्कि उन्हें उत्तरप्रदेश के साथ पूरे देश में कांग्रेस के लिए 'सियासी तपस्या' करनी होगी। अगर कांग्रेस नेतृत्व ने तत्काल यह पहल शुरू नहीं की तो देश की सबसे पुरानी पार्टी का इतिहास बना चुकी कांग्रेस सत्ता सियासत की बजाय देश के राजनीतिक इतिहास के पन्नों तक सिमट कर रह जाएगी।

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