शंकर शरण। आम चुनावों की घोषणा के पहले से शुरू हुआ दलबदल का सिलसिला अब तक कायम है। इससे अनेक जगह मतदाता भ्रमित होंगे कि चेहरा किसका है और चुनाव चिह्न कौनसा है? दलबदल केवल चुनाव के समय ही नहीं, बल्कि चुनाव बाद भी होता है। विधायी संस्थाओं को इससे बचाने के लिए दलबदल रोधी कानून बनाया गया, लेकिन वह भी अभीष्ट की पूर्ति नहीं कर पाया। आखिर दलबदल कानून क्यों विफल रहा? सर्वप्रथम, यह कानून अपनी बुनियाद में ही असंगत है। यूरोप, अमेरिका या अन्य किसी प्रतिष्ठित लोकतंत्र में ऐसा कानून नहीं है।

न्यूजीलैंड में बना था, लेकिन वहां भी इसे जल्द हटा दिया गया। फिर पोलैंड, चेक, एस्टोनिया, लिथुआनिया और लातविया के अध्ययन से पाया गया कि सांसदों को दलबदल का अधिकार रहने से वास्तव में वहां दलीय व्यवस्था बेहतर एवं स्थिर हुई है। दक्षिण अफ्रीका का अनुभव भी ऐसा ही है। सभी जगह पाया गया कि सांसदों की स्वतंत्रता रहने से दलों में अपनी नीतियों-गतिविधियों को सुविचारित रखने की प्रवृत्ति रहती है।

जिन कुछ देशों में दलबदल विरोधी कानून हैं, वहां कोई खास उपलब्धि हासिल नहीं हुई।

भारत का ही अनुभव है कि इससे केवल सत्ताधारी दलों के मैनेजरों की ताकत बढ़ती है। वे सांसदों, विधायकों पर पूर्ण नियंत्रण रखते हैं, जिससे दलों की महत्ता जनप्रतिनिधियों से भी ऊपर हो जाती है। सत्ताधारी दलों के शीर्ष पर विराजमान कुछ चुनिंदा लोग जनप्रतिनिधियों पर अपनी इच्छा थोपकर मनमाने फैसले करते हैं। दलबदल विरोधी कानून संविधान की भावना के भी विरुद्ध है। मूलतः इसीलिए यूरोपीय देशों में सांसदों को वैचारिक या कार्यगत स्वतंत्रता है। उन पर दलीय अंकुश नहीं है, क्योंकि संसद सर्वोच्च कानून-निर्मात्री संस्था है।

यदि उसी के सदस्य के हाथ-मुंह बंधे हों, तब संसद में वे राजनीतिक दल के प्रबंधकों की कृपा के मोहताज रहेंगे। यह भी किसी से छिपा नहीं कि दलीय सूत्रधारों की तिकड़मों से ही अनेक सांसद और विधायक इस या उस पार्टी में आते-जाते हैं। प्रायः इसमें खरीद-बिक्री के आरोप लगते हैं। विधायकों को बसों में भर कर बंदी की तरह ले जाने के दृश्य बहुत आम दिखते हैं।

दलबदल कानून न केवल निष्फल है, बल्कि इससे नेताओं का चरित्र गिरने-गिराने की प्रवृत्ति ही बढ़ी है। सांसदों, विधायकों की दलगत स्वतंत्रता रहने पर संयम, मर्यादा और नैतिकता का महत्व अधिक होता। यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जापान आदि का यही अनुभव है। आखिर इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, जापान जैसे लोकतांत्रिक देशों में ऐसा कानून न होने से वहां कोई भगदड़ नहीं मची रहती। अमेरिकी संसद में सत्ताधारी दल की सदस्य-संख्या विपक्ष से दो-तीन कम रहने पर भी दलबदल कराकर सत्तारूढ़ की स्थिति ऊंची करने की घटनाएं नहीं होतीं।

दलबदल विरोधी कानून सिद्धांतहीन भी है। आखिर जब किसी दल के दो तिहाई सांसद/विधायकों का दूसरी पार्टी में जाना जायज है, तो दो-चार सांसद/विधायक का जाना नाजायज क्यों? इसीलिए थोक दलबदल के बाद ‘असली’ पार्टी और चुनाव-चिह्न वाले दावों पर न्यायालयों के फैसलों में भी विसंगति रही है। कभी वे विधायक की संख्या को आधार बताते हैं, तो कभी संगठन की बात करते हैं। जबकि पार्टी के विधायकों या सांसदों में टूट के मामलों में असली-नकली की बात ही बेमानी है।

संविधान के अनुसार संख्या का मामला विधायी सदन का है। सरकार बनाने, कोई कानून या प्रस्ताव पास करने में सदन में मत संख्या का स्थान है। किसी राजनीतिक दल की वैधता उसके सांसद/विधायक की संख्या से तय करना असंगत है। इसीलिए न्यायालय और चुनाव आयोग के निर्णय अंतर्विरोधी होते रहे हैं। यह स्थिति पुनर्विचार की मांग करती है। दलबदल को कानून द्वारा रोकना असंभव सा है। कानून बनाकर कभी भी चरित्र या नैतिकता नहीं सुनिश्चित होती। जब नैतिकता और चरित्र हो, तभी अच्छा कानून बनता है।

यह कोरी कल्पना है कि कठोर कानून बनाने से दलबदल रुकेगा, क्योंकि स्वयं कानून बनाने वाले ही दलबदल करते-कराते हैं। रोग की जड़ कहीं और है। राजनीतिक दल कोई राजकीय संस्थान नहीं हैं। वे अन्य सामाजिक, व्यापारिक संस्थाओं की तरह स्वैच्छिक संस्था हैं। इससे राज्य और संविधान का कोई लेनादेना नहीं। इसलिए दलों को विशेष महत्व न देकर अन्य संस्थाओं की तरह सामान्य एवं जवाबदेह बनाया जाए। गड़बड़ी यही हुई है कि समय के साथ हमारे राजनीतिक दल अनुचित महत्व हासिल कर राजकीय उपकरण बन गए हैं, जबकि संविधान ने राजनीतिक दलों का नोटिस तक नहीं लिया था। जैसे कोई एक कंपनी छोड़ दूसरी कंपनी में काम करने के लिए स्वतंत्र है, वही स्थिति दलों और उनके सदस्यों की भी होनी चाहिए।

आखिर आम मतदाता भी समय-समय पर अपना वोट इस पार्टी के बदले अन्य को देते हैं। वही अधिकार किसी सांसद, विधायक को भी है। संविधान ने इस पर कोई रोक नहीं लगाई थी। कानून बनाकर इसे रोकने से केवल सत्ताधारी दल के मैनेजरों को ही ताकत मिली, जो अपने विधायकों-सांसदों पर लगाम लगाए रखते हैं और दूसरे दलों के विधायक-सांसद तोड़ते हैं। ऐसे में यह कानून न केवल निष्फल और अदृश्य पार्टी मैनेजरों को अनुचित ताकत देता है, बल्कि विधायक, सांसद के स्वतंत्र विचार और कार्य-अधिकार को भी बाधित करता है। इसीलिए किसी पुराने परिपक्व लोकतंत्र में ऐसा कोई कानून नहीं, क्योंकि यही मानवीय स्वतंत्रता-गरिमा के अनुकूल है।

हमारी संसद, चुनाव आयोग तथा सुप्रीम कोर्ट को प्रतिष्ठित लोकतंत्रों के आदर्श व्यवहारों का आकलन कर देश में भी राजनीतिक दलों के विशेषाधिकार खत्म करने चाहिए। दल और राज्य का घालमेल बंद होना चाहिए। दलों को भी अन्य सामाजिक संस्थाओं की तरह अपने आय-व्यय के लिए समान रूप से सार्वजनिक स्तर पर उत्तरदायी बनाना चाहिए। तभी दलों की ओर संदिग्ध, लोभी और अयोग्य लोगों का आकर्षण घटेगा।

जब राजनीतिक दल अन्य सामाजिक संस्थाओं की तरह जवाबदेह बनाए जाएंगे, तभी उनके अनुपयुक्त तत्वों द्वारा राज्य-तंत्र का दोहन करने की आशंका घटेगी। तब स्वतः अनेक बुराइयां कम हो जाएंगी, जो अभी दलों को तरह-तरह के कानूनों से छूट तथा अन्य कई विशेषाधिकार मिल जाने से बनी हुई हैं। मुख्य ध्यान इस बिंदु पर ही देना चाहिए। यही न्यायोचित और संविधानसम्मत भी होगा।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)