सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश व्यापक प्रभाव वाला है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं भी पति से भरण-पोषण यानी गुजारा भत्ता पाने की अधिकारी हैं। यह इसलिए एक बड़ा और बेहद महत्वपूर्ण निर्णय है, क्योंकि इसके माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी सरकार की ओर से उठाए गए एक गलत कदम का प्रतिकार करने के साथ ही मुस्लिम महिलाओं को न्याय देने का काम किया है।

एक तरह से इस निर्णय के जरिये सुप्रीम कोर्ट ने यही रेखांकित किया कि बहुचर्चित शाहबानो मामले में उसकी ओर से दिया गया फैसला सर्वथा उचित एवं संविधानसम्मत था और राजीव गांधी सरकार ने उसे पलट कर सही नहीं किया था।

ज्ञात हो कि शाहबानो पर सुप्रीम कोर्ट का 1985 का फैसला भी गुजारा भत्ता से संबंधित था, लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति के चलते राजीव गांधी सरकार ने इस फैसले को पलट दिया था और 1986 में कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के दबाव में आकर उनके मन मुताबिक और शरिया के अनुकूल मुस्लिम महिला अधिनियम बनाया था। इस अधिनियम का एकमात्र उद्देश्य मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन करना था।

अब सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह अधिनियम किसी पंथनिरपेक्ष कानून पर हावी नहीं होगा और तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं गुजारा भत्ता के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत याचिका दायर कर सकती हैं।

तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला केवल यही नहीं कह रहा कि अलग-अलग समुदाय की महिलाओं को भिन्न-भिन्न कानूनों से संचालित नहीं किया जा सकता, बल्कि समान नागरिक संहिता की आवश्यकता भी जता रहा है। इसी के साथ यह भी संदेश दे रहा है कि देश के लोग संविधान से चलेंगे, न कि अपने पर्सनल कानूनों से, वे चाहे जिस पंथ-मजहब के हों।

यह अपेक्षा अनुचित नहीं कि विपक्षी दलों के वे नेता सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की प्रशंसा करने के लिए आगे आएं, जो पिछले कुछ समय से संसद के भीतर-बाहर संविधान की प्रतियां लहराकर यह दावा करने में लगे हुए हैं कि उन्होंने उसकी रक्षा की है और वे उसे बचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यदि संविधान के प्रति उनकी प्रतिबद्धता सच्ची है तो उन्हें इस फैसले का स्वागत करना ही चाहिए। इसकी भरी-पूरी आशंका है कि इस फैसले से कुछ मुस्लिम संगठन असहमति जताने के साथ उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दें।

पता नहीं वे क्या करेंगे, लेकिन राहत की बात यह है कि इस समय केंद्र में मोदी सरकार है, न कि तथाकथित सेक्युलरिज्म की दुहाई देने वाली कोई सरकार। यह सही समय है कि मोदी सरकार समान नागरिक संहिता लागू करने के अपने वादे को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़े। इसका कोई औचित्य नहीं कि देश में अलग-अलग समुदायों के लिए तलाक, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार, गोद लेने आदि के नियम-कानून इस आधार पर हों कि उनका उनका पंथ-मजहब क्या है?