सपा और बसपा में तालमेल की विधिवत घोषणा होने के साथ ही एक बार फिर यह रेखांकित हुआ कि भारतीय राजनीति में कुछ भी हो सकता है और एक-दूसरे के प्रबल विरोधी दल भी हाथ मिला सकते हैं। जिस तरह परस्पर विरोधी दलों का एक साथ आना कोई नई बात नहीं उसी तरह उनमें अलगाव होना भी नहीं। आम तौर पर ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि उनकी दोस्ती किसी सीमित लक्ष्य या तात्कालिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही होती है। अखिलेश यादव और मायावती की ओर से एक मंच पर आकर चाहे जैसे दावे क्यों न किए गए हों, सच यही है कि वे अपनी राजनीतिक जमीन बचाने और आगामी लोकसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने के लिए ही एक साथ आए हैं। सपा हो या बसपा या फिर ऐसे ही अन्य क्षेत्रीय दल, वे समाज और देशहित की बातें तो खूब करते हैं, लेकिन राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर उनका कोई स्पष्ट नजरिया मुश्किल से ही देखने को मिलता है।

कई बार तो राष्ट्रीय मसले उनकी प्राथमिकता में ही नहीं होते। ऐसे दल जब तक राष्ट्रीय मसलों पर प्रभावी नीति और नजरिये के साथ सामने नहीं आते वे राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित नहीं कर सकते। सपा-बसपा गठबंधन तय होते ही यह स्पष्ट हो गया कि उत्तर प्रदेश में इन दोनों दलों की दोस्ती भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस के लिए भी चुनौती बनेगी। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस तो पहले से ही बहुत कमजोर है, लेकिन भाजपा पिछली बार जैसा प्रदर्शन करने की उम्मीद कर रही थी। अब उसके लिए ऐसा करना आसान नहीं होने वाला।

कांग्रेस की चाहत के बावजूद अखिलेश यादव और मायावती ने उसे अपने गठबंधन में शामिल करना बेहतर नहीं समझा तो इसका अर्थ है कि भाजपा के खिलाफ अपने नेतृत्व में महागठबंधन बनाने की तैयारी कर राहुल गांधी को सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों वाले इस राज्य में अपने दम पर चुनाव लड़ना होगा, लेकिन सपा-बसपा ने जिस तरह अमेठी और रायबरेली में कोई उम्मीदवार न उतारने का फैसला किया उससे यह भी स्पष्ट है कि चुनाव बाद कांग्रेस से तालमेल की संभावनाएं बनाए रखी गई हैं। अगर ऐसे किसी तालमेल की नौबत आती है तो वह राजनीतिक सौदेबाजी का पर्याय न बने तो बेहतर।

अच्छा होता कि सपा-बसपा नेता अपने गठबंधन को स्थाई रूप देने के वायदे और भरोसे के साथ सामने आते। अभी भी समय है। दोनों दलों को चाहिए कि वे लोगों का भरोसा अर्जित करने के लिए कोई साझा कार्यक्रम लाएं और उसके प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी प्रकट करें। ऐसा करके ही वे एक बड़ी ताकत बन सकते हैं। सपा-बसपा ने अभी यह साफ नहीं किया कि उनकी ओर से प्रधानमंत्री का दावेदार कौन होगा? यह किसी से छिपा नहीं कि जहां मायावती प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखती हैं वहीं अखिलेश अपने पिता मुलायम सिंह को इस पद पर बैठे देखना चाहते हैं। भले ही सपा-बसपा ने भाजपा के साथ कांग्रेस को भी निशाने पर लिया हो, लेकिन सोनिया गांधी और राहुल गांधी की सीटों का ख्याल रखना यह नहीं कहता कि इन दोनों दलों से समान दूरी बनाए रखी जाएगी।