नई दिल्‍ली। लखीमपुर खीरी की घटना के बाद राजनीतिक दलों के बीच जारी आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। ऐसा तब हो रहा है, जब किसान संगठनों और प्रशासन के बीच समझौता हो चुका है। इस समझौते के बाद होना तो यह चाहिए कि किसान संगठनों और केंद्र सरकार के बीच बातचीत शुरू करने की पहल हो, लेकिन दुर्भाग्य से इसके आसार कम ही हैं, क्योंकि पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड आदि राज्यों में विधानसभा चुनाव निकट हैं। न केवल विपक्षी दल कृषि कानून विरोधी आंदोलन को भुनाने के लिए आतुर हैं, बल्कि किसान संगठन भी इसी कोशिश में दिख रहे हैं। इसी कारण जहां विपक्षी नेता लखीमपुर खीरी पहुंचने के लिए बेचैन दिख रहे हैं, वहीं उत्तर प्रदेश प्रशासन उन्हें रोकने के लिए हरसंभव कोशिश कर रहा है।

मौजूदा माहौल में इसके स्पष्ट संकेत दिख रहे हैं कि विपक्षी दल लखीमपुर खीरी की घटना को लेकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते रहेंगे। हैरानी नहीं कि लखीमपुर खीरी कृषि कानून विरोधी आंदोलन का नया ठिकाना बन जाए। अब जब राजनीतिक कारणों से इस आंदोलन का विस्तार होता दिख रहा है, तब केंद्र सरकार के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह इस आंदोलन को अनियंत्रित होने से रोकने के लिए सक्रिय हो।

चूंकि यह आंदोलन मुख्यत: बड़े किसानों की ओर से चलाया जा रहा है इसलिए केंद्र सरकार को आम किसानों और विशेष रूप से छोटे किसानों के बीच अपनी पहुंच बढ़ाकर उनके समक्ष यह स्पष्ट करना चाहिए कि कृषि कानूनों का विरोध किस तरह उनके हितों पर चोट पहुंचाने वाला है। सरकार की ओर से छोटे किसानों के बीच यह संदेश जाना ही चाहिए कि यदि खेती के मामले में बड़े किसानों की मनमर्जी चली तो फिर उनके लिए संकट और बढ़ जाएगा।

इस मामले में केंद्र सरकार को तत्परता दिखाने की आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि कृषि कानून विरोधी आंदोलन को जारी हुए एक साल होने वाला है। नि:संदेह ऐसी ही तत्परता उत्तर प्रदेश सरकार को इसके लिए दिखानी चाहिए कि लखीमपुर खीरी कांड का सच यथाशीघ्र सामने आए। यह जितनी जल्दी पता चले, उतना ही अच्छा कि आखिर आठ लोगों की जान लेने वाली घटना किन परिस्थितियों में हुई?

भाजपा कार्यकर्ताओं की कार पर हमले के बाद वह अनियंत्रित होकर किसानों से जा टकराई या फिर उसने जानबूझकर उन्हें टक्कर मारी? इसी तरह यह भी सामने आना चाहिए कि तीन भाजपा कार्यकर्ता और एक पत्रकार को किन लोगों ने पीट-पीट कर मार डाला? यह सब सच्चाई इसलिए जल्द सामने लाई जानी चाहिए, क्योंकि राजनीतिक दल अपनी-अपनी सुविधा से आधा-अधूरा सच बयान करने में जुटे हुए हैं।