यह पहली बार नहीं जब किसी अदालत ने साक्ष्य के अभाव में किसी को आरोपों से बरी किया हो, लेकिन अतिरिक्त स्पेक्ट्रम आवंटन के कथित घोटाले में शामिल करार दिए गए पूर्व दूरसंचार सचिव श्यामल घोष को दोषमुक्त करार देते हुए सीबीआइ की विशेष अदालत ने जिस तरह जांच एजेंसी को फटकार लगाई वह कई गंभीर सवाल खड़े करती है। इस अदालत ने पाया कि श्यामल घोष और तीन दूरसंचार कंपनियों के खिलाफ फर्जी एवं मनगढ़ंत आरोप पत्र दायर किए गए और अदालत को गुमराह भी किया गया। अदालत ने सख्त रवैया दिखाते हुए सीबीआइ को फर्जीवाड़ा करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने के आदेश दिए हैं। फिलहाल कहना कठिन है कि अदालत के आदेश का पालन कब तक और किस रूप में होगा, लेकिन यह अवश्य स्पष्ट हो रहा है कि संप्रग सरकार के समय में सीबीआइ भ्रष्टाचार की जांच करने के बजाय मनमानी करने और यहां तक कि अदालत की आंखों में धूल झोंकने का भी काम कर रही थी। सीबीआइ के लिए इससे अधिक लज्जा की बात और कोई नहीं हो सकती कि घोटाला न होते हुए भी उसने काल्पनिक घोटाले की खोज कर डाली और साक्ष्य न होने के बावजूद पूर्व दूरसंचार सचिव को अभियुक्त बना दिया। इस पर किसी को भी ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं कि यह काम तत्कालीन सरकार के नीति-नियंताओं के इशारे पर ही किया गया होगा। यह मानने के भी अच्छे-भले कारण हैं कि ये लोग 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला उजागर होने के बाद शर्मसार होने के बजाय इस जुगत में लगे कि कैसे अतिरिक्त स्पेक्ट्रम आवंटन में घोटाला तलाशा जाए और उसे वाजपेयी सरकार के नौकरशाहों के मत्थे मढ़ा जाए। हैरानी की बात यह है कि वे ऐसा करने में सफल भी रहे। इसका मतलब है कि सीबीआइ तब कठपुतली की तरह काम रही थी।

होना तो यह चाहिए कि इसकी तह तक पहुंचा जाए कि एक मनगढ़ंत घोटाले में तथ्यों को तोड़-मरोड़कर फर्जी आरोप पत्र किसके इशारे पर तैयार किया गया, लेकिन इसके आसार कम हैं कि ऐसा हो सकेगा। अभी तक का अनुभव यही बताता है कि ऐसे मामलों में आम तौर पर बलि के बकरे तलाश कर कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। संप्रग शासन और साथ ही सीबीआइ को शर्मिंदा करने वाले इस प्रकरण में जो भी हो, विशेष अदालत की टिप्पणियां पिछली सरकार के एक और काले कारनामे को बयान कर रही हैं। यह सोचा भी नहीं जा सकता कि केंद्रीय सत्ता में उच्च पदों पर बैठे लोग राजनीतिक बदले की भावना के तहत काम करते हुए इस हद तक जा सकते हैं। दुर्भाग्य से यह एकलौता मामला नहीं। पिछले दिनों ही सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के जरिये यह सामने आया कि गुजरात का एक आइपीएस अफसर किस तरह राजनीतिक दलों का मोहरा बना हुआ था? उसके कारनामों की ढंग से जांच हो जाए तो कुछ नेताओं के लिए मुंह छिपाना मुश्किल हो सकता है। यह शर्मनाक है कि स्वायत्त बताई जाने वाली सीबीआइ के बारे में रह-रहकर यह सामने आता रहता है कि वह सही तरीके से काम करने के बजाय अपने आकाओं की कठपुतली बन जाना पसंद करती है। जरूरी केवल यह नहीं है कि सीबीआइ अपनी साख के प्रति सतर्क रहे, बल्कि यह भी है कि मोदी सरकार भी यह सुनिश्चित करे कि यह शीर्ष जांच एजेंसी इस तरह काम करे कि उसकी विश्वसनीयता बढ़े।

[मुख्य संपादकीय]