यह गहन चिंता का विषय है कि पश्चिम बंगाल चुनावी हिंसा से मुक्त होने का नाम नहीं ले रहा है। इस राज्य में मतदान के चौथे चरण के दौरान भी जिस तरह कई स्थानों पर हिंसा और धांधली देखने को मिली उससे यही स्पष्ट हो रहा है कि चुनाव आयोग अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह सही ढंग से नहीं कर पा रहा है। आखिर जब वह पिछले तीन चरणों में मतदान के समय इससे भली तरह अवगत हो चुका था कि सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस सरकार और उसका प्रशासनिक तंत्र स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए प्रतिबद्ध नहीं तो फिर ऐसे उपाय क्यों नहीं किए जा सके जिससे मतदाताओं को डरा-धमकाकर उन्हें वोट डालने से रोकने के साथ मतदान केंद्रों में धांधली करने वालों पर लगाम लग सकती? आज पश्चिम बंगाल में जैसी चुनावी धांधली देखने को मिल रही है वैसी ही कभी बिहार, हरियाणा और देश के कुछ अन्य हिस्सों में भी देखने को मिलती थी, लेकिन निर्वाचन आयोग ने सख्ती दिखाकर हालात बदल दिए।

समझना कठिन है कि आज का निर्वाचन आयोग यही काम पश्चिम बंगाल में क्यों नहीं कर पा रहा है? क्या यह आवश्यक नहीं कि वह फर्जी मतदान वाले केंद्रों में फिर से मतदान के आदेश से और जिन अफसरों ने लापरवाही का परिचय दिया उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करे? केवल इतने से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि पश्चिम बंगाल में केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती बढ़ाई गई है। अगर यह तैनाती अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रही है तो इसका मतलब है कि हालात कहीं अधिक गंभीर है। आज अगर चुनावी धांधली के लिए कोई राज्य कुख्यात है तो वह पश्चिम बंगाल ही है।

चुनावों के दौरान करीब-करीब हर राज्य में केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती करनी ही पड़ती है, लेकिन पश्चिम बंगाल में विपक्षी दल उन्हें मतदान केंद्रों में तैनात करने की मांग कर रहे हैैं। इसका मतलब है कि राज्य के पुलिस एवं प्रशासन का हद से ज्यादा राजनीतिकरण हो गया है या फिर उसने सत्ताधारी दल की मनमानी के समक्ष हथियार डाल दिए हैैं। दोनों ही स्थितियां शुभ संकेत नहीं। यह सामान्य बात नहीं कि आम लोग यह मांग कर रहे हैैं कि वे वोट तभी डालेंगे जब मतदान केंद्रों में केंद्रीय बलों की तैनाती होगी। इस तरह की मांग तो यही बताती है कि लोगों का राज्य की मशीनरी पर से भरोसा उठ गया है।

अगर पश्चिम बंगाल में केंद्रीय सुरक्षा बलों की उपस्थिति के बावजूद चुनावी धांधली हो रही है तो इसका अर्थ है कि राज्य में लोकतांत्रिक तौर-तरीकों के लिए स्थान कम होता जा रहा है। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैैं कि एक समय जिन अनुचित तौर-तरीकों का इस्तेमाल वामपंथी दल करते थे उनका ही सहारा तृणमूल कांग्रेस ले रही है। चूंकि इसके कहीं कोई आसार नहीं कि राजनीतिक दल साफ-सुथरे तरीके से चुनाव कराने में निर्वाचन आयोग का सहयोग देंगे इसलिए इसके अलावा और कोई उपाय नहीं कि आयोग अपेक्षित सख्ती का परिचय देने में संकोच न करे। यह आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है कि वह मतदान के आगामी चरणों को धांधली और हिंसा से मुक्त रखने के लिए हर संभव कदम उठाए।