[ संजय गुप्त ]: उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली-एनसीआर में रेल पटरियों के इर्द-गिर्द बसी झुग्गी बस्तियों को हटाने का आदेश देकर अतिक्रमण और अनियोजित विकास के खिलाफ एक पहल की है। अकेले दिल्ली में 70 किमी रेल पटरियों के किनारे करीब 48 हजार झुग्गियां बसी हुई हैं। ये गंदगी और प्रदूषण फैलाने के साथ ही रेलवे की सुरक्षा के लिए भी खतरा हैं। दुर्भाग्य से रेल पटरियों के किनारे जो स्थिति दिल्ली में है वही देश के अन्य हिस्सों और खासकर बड़े शहरों में भी है। कहीं-कहीं तो रेल पटरियों के बिल्कुल करीब ऐसी भी बस्तियां हैं जहां दो-तीन मंजिला इमारतें भी बनी हुई हैं और जिनमें हजारों लोग रहते हैं।

रेल पटरियों के किनारे बसी झुग्गी बस्तियांं गंदगी और प्रदूषण फैलाती हैं

ऐसी बस्तियों में न तो सीवर की व्यवस्था होती है और न ही सफाई की। इस कारण वे वहां रहने वालों की सेहत के साथ-साथ पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचाती हैं। इसके अलावा वे वहां रह रहे लोगों की सुरक्षा के लिए भी खतरा बनती हैं। दो वर्ष पहले अमृतसर में रेल पटरियों के किनारे बसी ऐसी ही एक बस्ती में दशहरे के अवसर पर रावण दहन का आयोजन हो रहा था। लोग रेल पटरियों पर खड़े होकर रावण दहन देख रहे थे, तभी एक ट्रेन गुजरी और दर्जनों लोग मारे गए।

रेल पटरियों के किनारे की झुग्गी बस्तियों को हटाने का आदेश पर अमल नहीं हो सका

अमृतसर हादसे के बाद रेल पटरियों के किनारे अवैध कब्जों और बस्तियों की ओर देश का ध्यान अवश्य गया, लेकिन हुआ कुछ नहीं और इसका प्रमाण है दिल्ली-एनसीआर में रेल पटरियों के किनारे की झुग्गी बस्तियों को हटाने का आदेश। ऐसा आदेश दो वर्ष पहले एनजीटी ने भी दिया था, लेकिन उस पर अमल नहीं हो सका। इसी कारण सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ा कि उसके आदेश के अमल में राजनीतिक हस्तक्षेप आड़े नहीं आना चाहिए। इस आदेश के बाद यह सवाल उठ सकता है कि आखिर झुग्गी बस्तियों से हटाए गए लोग कहां जाएंगे? हैरानी नहीं कि जल्द ही यह सवाल एक राजनीतिक मसला बन जाए। जो भी हो, यह एक हकीकत है कि देश के कई शहरों में इसी तरह रेल पटरियों के किनारे बस्तियां हैं। इनमें वह मानव संसाधन रहता है जो शहरों की तमाम जरूरतें पूरी करता है-कोई कामगार के रूप में, कोई ड्राइवर या ऑटो-रिक्शा चालक, कार्यालय सहायक या फिर घरेलू सहायक के रूप में। रेहड़ी-पटरी वाले और निर्माण कार्यों में लगे मजदूर भी इन बस्तियों में रहते हैं।

झुग्गी बस्तियों की गंदगी की अनदेखी, बस्तियों में आबादी का घनत्व ज्यादा

चूंकि इन बस्तियों में आबादी का घनत्व ज्यादा होता है इसीलिए वहां गंदगी भी खूब होती है। इस समस्या से सरकारें अनभिज्ञ नहीं, लेकिन वे उसकी अनदेखी ही करती हैं, क्योंकि यहां दलों को वोट बैंक दिखता है। उन्हें यदि कुछ नहीं नजर आता तो यह कि आखिर इन बस्तियों में लोग किस तरह स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक माहौल में रहते हैं? चूंकि छोटे-छोटे कमरों में दर्जनों लोग रहते हैं इसलिए सेहत के साथ उनकी निजता की भी रक्षा नहीं होती। क्या यह अमानवीय नहीं कि जो जगह 10-20 लोगों के रहने के लिए हो वहां 50-60 और कभी-कभी तो इससे अधिक लोग रहें? यह स्थिति लोगों के स्वाभाविक विकास के प्रतिकूल है, फिर भी कोई देखने-सुनने वाला नहीं।

झुग्गी बस्तियों को हटाना तो आसान है, पर उनका पुनर्वास करना कठिन

शहरों के बीच ऐसी बस्तियों को हटाना तो आसान है, पर उनका पुनर्वास करना कठिन। यदि कभी इन बस्तियों को हटाया जाता है तो वहां रह रहे लोगों को शहर के बाहरी हिस्से में रहने का प्रबंध करना पड़ता है। इससे उन्हें काम-धंधे के सिलसिले में अपने गंतव्य तक पहुंचने में समय भी जाया करना पड़ता है और पैसा भी, क्योंकि वे जहां काम कर रहे होते हैं वहां से बहुत दूर हो जाते हैं। कई बार तो 40-50 किमी दूर।

कामगारों-मजदूरों को शहरों के बीच बसाने की ठोस योजनाएं बने

हालांकि अब आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के लिए सरकारी आवास बनने शुरू हो गए हैं, लेकिन आम तौर पर वे शहरों के बाहरी इलाकों में ही बन रहे हैं। जरूरी यह है कि कामगारों-मजदूरों को शहरों के अंदरूनी हिस्से में बसाने की ठोस योजनाएं बनें। ऐसी योजनाएं तभी कारगर हो सकती हैं जब शहरों में खाली पड़ी उन जमीनों की तलाश की जाए, जिनका सदुपयोग नहीं हो रहा है। यह एक तथ्य है कि सार्वजनिक उपक्रमों, छावनियों के साथ केंद्र-राज्य सरकार के विभिन्न विभागों, पुरानी मिलों, कृषि विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों, सुरक्षा बलों के शिविरों आदि के पास शहरों में सैकड़ों एकड़ ऐसी जमीन है जिसका उपयोग नहीं हो रहा है। आखिर ऐसी जमीन का इस्तेमाल शहरों को संचालित करने में सहायक बनने वाले कमजोर तबके की आवास समस्या को हल करने में क्यों नहीं हो सकता? जमीन के ऐसे टुकड़ों को तो प्राथमिकता के आधार पर शहरों की आवास समस्या हल करने में सहायक बनना चाहिए, लेकिन नीति-नियंताओं की अनदेखी के कारण वे अनुपयुक्त पड़े हैं। ये जमीनें ऐसी संपदा बनकर रह गई हैं जिनसे किसी को कोई लाभ नहीं मिल रहा।

झुग्गी बस्तियों में रहने वालों के बेहतर पुनर्वास के बगैर हटाने का कोई मतलब नहीं

झुग्गी बस्तियों में रहने वालों के बेहतर पुनर्वास के बगैर इन बस्तियों को हटाने का कोई मतलब नहीं। वे दूसरी जगह बस जाएंगी। शहरों को झुग्गी बस्तियों से छुटकारा तभी मिल सकता है जब उनमें रहने वाले गरीब वर्ग के लिए विभिन्न सरकारी विभागों, छावनियों की जमीनों पर बहुमंजिला आवासीय इमारतें बनाई जाएं। चूंकि ये जमीनें बहुत महंगी हैं, इसलिए गरीब तबके के लोगों के लिए वहां बने घर खरीदना आसान नहीं होगा। बेहतर होगा कि ये घर किराये पर उठाए जाएं, ताकि जमीनों पर मालिकाना हक संबंधित विभागों का ही बना रहे। इससे उन्हें आय भी होगी और गरीबों को राहत भी मिलेगी। इन बहुमंजिला घरों का निर्माण करते समय इस पर भी ध्यान देना होगा कि उनमें आबादी का घनत्व एक सीमा से अधिक न बढ़ने पाए। अन्यथा ऐसे इलाके भी झुग्गी बस्तियों में तब्दील हो सकते हैं, क्योंकि बड़े शहरों में एक झुग्गी माफिया भी पनप चुका है।

झुग्गी बस्तियों को हटाना समस्या का सही समाधान नहीं

हमारे नीति-नियंताओं और खासकर शहरी योजनाकारों को यह भी समझना होगा कि झुग्गी बस्तियों को हटाना समस्या का सही समाधान नहीं है। सही समाधान है कामगार तबके के लिए शहरों के अंदरूनी हिस्सों में व्यवस्थित और साफ-सुथरे बहुमंजिला आवास का निर्माण।

गरीबों के लिए बनाई जाएं बहुमंजिला इमारतें

चूंकि शहरी आबादी बढ़ रही है इसलिए गरीबों के लिए बनाई जाने वाली बहुमंजिला इमारतों के रखरखाव की भी कोई ठोस व्यवस्था बनानी होगी। इसके लिए भले ही न्यूनतम शुल्क लिया जाए, लेकिन साफ-सफाई को अतिरिक्त महत्व देना होगा। इसी के साथ इसकी भी चिंता करनी होगी कि ऐसे इलाकों में स्कूल, अस्पताल आदि भी बनें और वहां नए सिरे से अतिक्रमण न होने पाए, अन्यथा वही स्थिति बनेगी, जिसे दूर करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]