[ शक्ति सिन्हा और मॉरिस कुगलर ]: अधिकांश विश्लेषकों के उलट लेबनानी-अमेरिकी विद्वान नसीम तलेब ने एक बड़ी दिलचस्प बात कही है कि कोविड-19 महामारी उतनी विध्वंसक नहीं जितना हमने अपनी प्रतिक्रिया से उसे बना दिया है। इससे बचने के लिए लॉकडाउन जरूरी था। इसके चलते भारतीय अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से को बंद करना पड़ा जिससे वस्तु एवं सेवाओं के मोर्चे पर गतिरोध पैदा हो गया है। इस कारण लाखों-करोड़ों रोजगारों पर ग्रहण लगता दिख रहा है। इससे भी बदतर बात यह है कि तमाम उद्यमों के लिए यह गतिरोध महज ठहराव भर नहीं, क्योंकि उनके पास लंबे दौर की आपदा से जूझने के लिए संसाधनों का अभाव है। उत्पादन नेटवर्क और आर्पूित शृंखला में गिरावट बड़े नुकसान का संकेत है। इस दौर के लंबा खिंचने का मानव जीवन और आजीविका पर दूरगामी नकारात्मक असर पड़ने की आशंका वक्त के साथ बलवती होती जा रही है।

देश में 130 रेड, 284 ऑरेंज और 319 ग्रीन जोन हैं, देश की 40 फीसदी आबादी रेड जोन में रहती है

जब आर्थिक असंतुलन की सुई उस बिंदु तक पहुंच गई जहां से वह किसी मानवीय आपदा की वजह बन सकती थी तब से लॉकडाउन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के विषय में सोचा जाने लगा। इस रणनीति के तहत कोरोना संक्रमण के लिहाज से देश को तीन भागों रेड, ऑरेंज और ग्रीन जोन में बांटा गया। देश में अभी 130 रेड, 284 ऑरेंज और 319 ग्रीन जोन हैं। हालांकि इसे समग्रता से समझने की आवश्यकता है। देश की 40 प्रतिशत आबादी रेड जोन में रहती है। देश की जीडीपी में 50 प्रतिशत योगदान, बैंक खातों में 70 प्रतिशत जमा और कुल कर्ज में 83 प्रतिशत हिस्सेदारी इसी जोन की है।

ग्रीन जोन में देश की 25 फीसदी आबादी रहती है

इसके उलट ग्रीन जोन में देश की 25 प्रतिशत आबादी रहती है। जीडीपी में इसका 19 प्रतिशत योगदान है तो बैंक जमा में 10 प्रतिशत से कम और बैंक कर्ज में छह प्रतिशत से भी कम हिस्सेदारी है। ग्रामीण परिवेश वाले इस इलाके की र्आिथकी मुख्य रूप से कृषि पर आधारित है और आबादी की उतनी घनी बसावट न होने के कारण यहां संक्रमण का प्रसार सीमित है। उसके फैलने का खतरा भी कम है। ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था के सर्वाधिक उत्पादक क्षेत्र हाल-फिलहाल पूरी क्षमता के साथ उत्पादन शुरू करने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में सुधार की कोई योजना तैयार बनाने में भौगोलिक पहलू बहुत चुनौतीपूर्ण है।

लॉकडाउन से पहले भारतीय अर्थव्यवस्था में दबाव के संकेत दिखने लगे थे

वास्तव में लॉकडाउन से पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था में दबाव के संकेत दिखने लगे थे। बिजली, ईंधन, कारों, वाणिज्यिक वाहनों से लेकर कर राजस्व की स्थिति से यह स्पष्ट दिख रहा था। बड़े पैमाने पर रोजगार प्रदान करने वाला कंस्ट्रक्शन सेक्टर पिछले कुछ समय से मुश्किलों में फंसा है। सीआइआइ के एक सर्वेक्षण के अनुसार अप्रैल से जून तिमाही के दौरान कंपनियों के राजस्व में 40 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। यह वास्तविकता एमएमएमई के लिए तो और भी कड़वी है जिनके लिए नकदी से लेकर कर्ज की धारा सूखी होने के साथ ही राजस्व में कमी का खतरा मंडरा रहा है।

भारतीय अर्थव्यव्स्था को उबारने के लिए राहत पैकेज की दरकार

भारतीय अर्थव्यव्स्था को मौजूदा गिरावट से उबारने का पहला कदम तो यही होगा कि एक राहत पैकेज दिया जाना चाहिए। निजी क्षेत्र को संभालना और गरीबों को सहायता प्रदान करना बेहद जरूरी है। मुश्किल यह है कि राजस्व में छह लाख करोड़ रुपये की कमी आने की आशंका है। राज्यों को मिलने वाली कर हिस्सेदारी में भी 2.4 लाख करोड़ रुपये से अधिक की कटौती हो सकती है। इस कारण राजकोषीय गुंजाइश बहुत सीमित है, जबकि आवश्यकता बहुत अधिक की है। ऐसे में अगर हम सरकारी राहत पैकेज की व्यावहारिकता पर विचार करते हैं तो उस बारे में भी अवश्य सोचें कि ऐसा न करने की कितनी बड़ी कीमत चुकानी होगी।

राहत पैकेज के बिना अर्थव्यवस्था की तस्वीर और बदरंग होकर अपस्फीति का शिकार हो सकती है

ऊंचा घाटा जरूर चिंता का विषय है, पर हमें यह भी सोचना होगा कि सरकारी राहत पैकेज के अभाव में अर्थव्यवस्था की तस्वीर और बदरंग होकर अपस्फीति का शिकार भी हो सकती है। अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय देशों में भारी-भरकम सरकारी राहत पैकेजों के पीछे यही दलील है। इन देशों के पास निश्चित ही अधिक संसाधन हैं, लेकिन भारत के पास जो भी गुंजाइश हो उसका पूरा उपयोग किया जाना चाहिए।

घाटे की भरपाई मुद्रीकरण से की जा सकती है

पारंपरिक मौद्रिक नीति के उलट घाटे की भरपाई मुद्रीकरण से की जा सकती है। इसे लेकर डरने की ज्यादा जरूरत नहीं, क्योंकि जब मांग रसातल में है तो मुद्रास्फीति के भी सिर उठाने के आसार कम हैं। आरबीआइ के मुद्रा भंडार का भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

ब्याज दरें दशक के न्यूनतम स्तर पर हैं

ब्याज दरें दशक के न्यूनतम स्तर पर हैं जिनके निकट भविष्य में इसी दायरे में रहने का अनुमान है। वैसे तो सरकार पहले ही 1.7 लाख करोड़ रुपये का राहत पैकेज दे चुकी है, लेकिन वह जीडीपी के मामूली हिस्से के बराबर ही है। फिलहाल नाजुक तबके की मदद प्राथमिकता होनी चाहिए। उन्हेंं खानपान की चीजें मुहैया तो कराई जा रही हैं, लेकिन केवल उसी से जिंदगी पटरी पर आने से रही।

गरीबों की जेब में तत्काल पैसे पहुंचाने की दरकार

गरीबों की जेब में तत्काल पैसे पहुंचाने की दरकार है। कुछ रकम पहुंचाई भी गई है, लेकिन इसे और बढ़ाया जाए। करीब 50 प्रतिशत आबादी में प्रत्येक को एक हजार रुपये की तत्काल मदद पहुंचानी होगी ताकि चार लोगों के परिवार में कम से कम एकमुश्त 4,000 रुपये तो पहुंच सकें।

ढांचागत सुधारों की ओर कदम बढ़ाना होगा

कुछ तात्कालिक कदमों से इतर ढांचागत सुधारों की ओर भी कदम बढ़ाना होगा। जैसे कि आयकर और जीएसटी ढांचे में सुधार के साथ ही उनमें पारदर्शिता प्राथमिकता होनी चाहिए। सरकारी खरीद और समय से भुगतान न केवल उद्योगों, बल्कि सरकारी खजाने को भी बड़ी राहत पहुंचाएगा। सरकारी और निजी क्षेत्र को अपनी शोध एवं विकास क्षमताएं भी बढ़ानी होंगी ताकि गुणवत्ता में भारत की धाक और बढ़ सके।

आरबीआइ बैंकों को अधिक कर्ज देने के लिए प्रोत्साहित करे

कोराना वायरस जनित आपदा बैंकिंग क्षेत्र में सुधारों का भी अवसर बननी चाहिए। इसके लिए बेसल से लेकर एनपीए प्रावधानों में अपेक्षित बदलाव लाए जाएं। आरबीआइ बैंकों को अधिक कर्ज देने के लिए प्रोत्साहित करे। अधिक निवेश भारत की उत्पादकता बढ़ाने में मददगार होगा। इससे जहां मध्य वर्ग को राहत मिलेगी वहीं गरीबी की परिधि भी घटेगी। निश्चित रूप से चुनौतियां बेशुमार हैं, लेकिन उनका तोड़ निकालने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी जानी चाहिए।

            

( शक्ति सिन्हा महाराजा सयाजीराव विवि, वडोदरा के अटल बिहारी वाजपेयी इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक रिसर्च एंड इंटरनेशनल स्टडीज के निदेशक और मॉरिस कुगलर अमेरिका के जॉर्ज मेसन विवि में प्रोफेसर हैं )