नई दिल्ली [ मनोज जोशी ]। भारत ने हाल में न्यूजीलैंड में आयोजित अंडर 19 क्रिकेट विश्व कप जीता। इसके पहले हॉकी के जूनियर वर्ग में भारत ने ऐसा ही कारनामा लखनऊ में किया था। विश्व महिला यूथ बॉक्सिंग में ज्योति गुलिया, साक्षी चौधरी, शशि चोपड़ा और अंकुशिता बोरो ने स्वर्ण पदक जीतने का कमाल किया। इसी तरह सोनम और अंशू ने एथेंस में विश्व कैडेट कुश्ती में स्वर्ण पदक जीतकर सबको चौंका दिया। कुछ साल पहले झज्जर, हरियाणा के सुमित नागल ने अपने वियतनामी साझेदार के साथ विंबलडन का जूनियर युगल खिताब जीता और मानव ठक्कर ने लक्जमबर्ग में विश्व जूनियर टेबल टेनिस सर्किट फाइनल में रजत पदक अपने नाम किया। जाहिर है कि ये कुछ उदाहरण भारत के जूनियर स्तर पर दबदबे की कहानी बयान करते हैं। वैसे ऐसा पहली बार नहीं हुआ। भारत ने जूनियर विश्व कप क्रिकेट का खिताब पहले भी तीन बार जीता है। हॉकी में भारत 2001 में हॉबर्ट (ऑस्ट्रेलिया) में जूनियर वर्ल्ड चैंपियन बन चुका है। हमारे बीसियों पहलवान और मुक्केबाज वर्ल्ड कैडेट और जूनियर वर्ग के खिताब जीत चुके हैं और तमाम अन्य खेलों में हमें जूनियर स्तर पर ऐसी बड़ी कामयाबियां मिलती रही हैं। आखिर क्यों हम ओलंपिक में दो पदकों तक ही सीमित हो जाते हैं और क्यों हमें कई खेलों की विश्व चैंपियनशिप से खाली हाथ लौटना पड़ता है?

जूनियर प्रतिभाएं सीनियर स्तर पर अपने प्रदर्शन को क्यों नहीं दोहरा पातीं?

अगर क्रिकेट में जूनियर स्तर की पिछली उपलब्धियों को देखें तो रनों का अंबार लगाने वाले उन्मुक्त चंद अपने प्रदर्शन में निरंतरता क्यों नहीं ला पाए? कहां गए ऑलराउंडर बाबा अपराजित और कहां गए स्विंग के फनकार संदीप शर्मा। कुश्ती में विश्व कैडेट चैंपियन बनने वालों में सुशील, योगेश्वर और रमेश गुलिया को छोड़कर कोई भी पहलवान ओलंपिक या विश्व स्तर पर पदक जीतने वाला वैसा प्रदर्शन क्यों नहीं कर पाया। इसी तरह टेनिस खिलाड़ी सुमित नागल का भी अब कहीं अता-पता नहीं। युकी भाम्ब्री ने ऑस्ट्रेलियाई ओपन का जूनियर खिताब जीता था। उन्होंने नाम जरूर कमाया, लेकिन वह सीनियर स्तर पर कभी अपना दबदबा कायम नहीं कर पाए। सवाल है कि जूनियर प्रतिभाएं सीनियर स्तर पर अपने प्रदर्शन को क्यों नहीं दोहरा पातीं?

खेल जगत का एक बड़ा वर्ग कॉलेज में प्रवेश या नौकरी पाने के लिए आता है

इसका पहला कारण तो यह है कि खेल जगत का एक बड़ा वर्ग कॉलेज में प्रवेश या नौकरी पाने के लिए इस क्षेत्र में आता है। ये दोनों उद्देश्य पूरे होने के बाद उनमें वैसी गंभीरता नहीं रह पाती जैसी सीनियर वर्ग की कड़ी प्रतियोगिताओं के लिए चाहिए। यही वजह है कि जूनियर स्तर पर विश्व खिताब जीतने वाले कई खिलाड़ी राष्ट्रीय स्पर्धा में भी मुश्किल से कांस्य पदक के आसपास का प्रदर्शन कर पाते हैं।

जूनियर स्तर पर स्टार बनने के बाद पांव जमीन पर रखना बेहद चुनौतीपूर्ण काम है

दूसरा बड़ा कारण स्टारडम है। जूनियर स्तर पर स्टार बनने के बाद कॉलर ऊंचा करके घूमना और अपने फैंस के बीच घिरे रहने से उस खिलाड़ी को अपने विशिष्ट होने का अहसास होने लगता है और यहीं से उसके पतन की कहानी शुरू हो जाती है। ग्लैमर की चकाचौंध में उसे भी इसका अहसास नहीं हो पाता कि उसका खेल हाशिये पर चला गया है। विराट कोहली ने माना था कि कम उम्र में बड़ी कामयाबी मिलने पर अपने पांव जमीन पर रखना बेहद चुनौतीपूर्ण काम है।

 सीनियर स्तर पर जूनियर खिलाड़ियों से अपेक्षाएं काफी अधिक होती हैं

तीसरा बड़ा कारण इन खिलाड़ियों का सीनियर स्तर के दबाव को झेल पाने में नाकाम होना है। सीनियर स्तर पर इन खिलाड़ियों से अपेक्षाएं काफी अधिक होती हैं। हर किसी की नजर इन पर टिकी होती है।

खेल मनोवैज्ञानिक का होना बेहद जरूरी है

हर कोई उनसे पुराने स्वर्णिम प्रदर्शन की पुनरावृत्ति चाहता है। इन सब बातों के दबाव को कम करने के लिए खेल मनोवैज्ञानिक का होना बेहद जरूरी है, लेकिन इस पक्ष को अधिकांश खेलों में आम तौर पर नजरअंदाज किया जाता रहा है। चौथा कारण सीनियर स्तर पर खेल के स्तर का बेहद ऊंचा होना या यह कहिए कि पराकाष्ठा तक पहुंचना है। क्रिकेट में जूनियर स्तर पर फील्डिंग का स्तर सीनियर स्तर से कहीं हल्का है। खिलाड़ी ज्यादातर मौकों पर अपने निजी प्रदर्शन पर ही ध्यान देते हैं। यही स्थिति दूसरे खेलों के साथ भी है। भारतीय खेल जगत में ऐसे भी तमाम उदाहरण हैं जहां खिलाड़ियों से जूनियर स्तर पर हारने वाले खिलाड़ी ओलंपिक या विश्व चैंपियनशिप का पदक जीतते हैं, लेकिन हमारी उपलब्धि उन्हें जूनियर स्तर पर हराने भर तक सीमित रहती है। जिस कनाडाई पहलवान टोन्या बरबीक को अलका तोमर ने कॉमनवेल्थ खेलों के फाइनल में हराया, उन्हीं टोन्या ने आगे चलकर ओलंपिक और वल्र्ड चैंपियनशिप में रजत पदक जीते। जिन पप्पू यादव ने 1993 की एशियाई चैंपियनशिप के फाइनल में दक्षिण कोरिया के सिम क्वोन हो को हराया, उसी सिम क्वोन ने आगे चलकर ओलंपिक, वल्र्ड चैंपियनशिप और एशियाई खेलों में प्रत्येक में दो-दो स्वर्ण पदक अपने नाम किए। जिस जापानी पहलवान रिसाको कवई से साक्षी मलिक अपने दर्शकों के बीच एशियाई चैंपियनशिप में बुरी तरह हारीं, उसे छह साल पहले बबीता हरा चुकी थीं। कहने का मतलब यह है कि अपने करियर के शुरुआती दिनों में हारने वाले ये विदेशी खिलाड़ी उस हार से सबक लेकर आगे ओलंपिक में पदक जीतते हैं जबकि हमारे खिलाड़ी आम तौर पर उसी उलटफेर तक सीमित रह जाते हैं।

क्रिकेट सही मायने में छोटे शहरों तक पैर पसार रहा है

क्रिकेट में अच्छा पहलू यह है कि हाल में जूनियर विश्व कप जीतने वाली टीम में कई खिलाड़ी ऐसे हैं जो दिल्ली, मुंबई या बेंगलुरु से ही नहीं, बल्कि छोटे शहरों से आए हैं। धोनी ने कुछ साल पहले रांची से आकर भारतीय क्रिकेट पर राज किया। इस बार टीम के लेफ्ट आर्म स्पिनर अनुकूल राय समस्तीपुर से, विकेटकीपर हार्विक देसाई गुजरात में भावनगर से, मध्यक्रम के बल्लेबाज रियान पराग गुवाहाटी से, हिमांशु राणा सोनीपत से, तेज गेंदबाज कमलेश नगरकोटी बाड़मेर से और ईशान पोरेल हुगली से ताल्लुक रखते हैं। मतलब साफ है कि क्रिकेट सही मायने में छोटे शहरों तक पैर पसार रहा है और उसके अच्छे परिणाम भी आए हैं।

अच्छा प्रदर्शन करने वाले जूनियर खिलाड़ियों को सीनियर टीम में मौका मिलना चाहिए

जरूरी है कि अच्छा प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों को सीनियर टीम में मौका भी सही समय पर दिया जाए। आज अगर इस टीम के कप्तान पृथ्वी शॉ और तेज गेंदबाज कमलेश नगरकोटी में संभावनाएं दिखाई दे रही हैं तो उन्हें सीनियर टीम के साथ पनपने का मौका भी जल्द से जल्द मिलना चाहिए। सचिन तेंदुलकर को सही समय पर मौका मिलना उनकी कामयाबी का बड़ा कारण साबित हुआ था, जबकि एबी कुरुविला जैसी प्रतिभाएं करियर के ढलान पर मौका मिलने से दबकर रह गईं। बेहतर यही है कि इन खिलाड़ियों को भारतीय जमीन पर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में जितनी जल्दी हो सके, मौका मिले। खेल संस्थाओं और साथ ही खेलो इंडिया अभियान को देखना चाहिए कि हमारे खिलाड़ी जूनियर से सीनियर में आने पर भी उम्मीदों पर खरे उतरें।

[ लेखक कमेंटेटर एवं खेलों के जानकार हैं ]