अवधेश कुमार। चुनाव के दौरान नेताओं का पार्टी छोड़ना और दूसरी पार्टी में जाना भारतीय राजनीति में बहुत ही सामान्य घटना मानी जाती है। भाजपा से भी कुछ लोग दूसरी पार्टियों में गए हैं, लेकिन पिछले कुछ समय में जितनी संख्या में लोग कांग्रेस छोड़ रहे हैं, वह असाधारण है। इधर तो लगभग हर दिन कोई न कोई नेता कांग्रेस छोड़ रहा है।

1977 में कांग्रेस की सबसे बुरी स्थिति के दौरान भी इतनी संख्या में लोगों ने पार्टी नहीं छोड़ी थी। कई राज्यों में तो ऐसा लग रहा है जैसे पूरी पार्टी ही भाजपा में जाने को तैयार हो। गुजरात में ऐसा कोई जिला नहीं, जहां कांग्रेस के आधे से ज्यादा लोग भाजपा में न जा चुके हों। यही मध्य प्रदेश में हो रहा है। इस पर कांग्रेस नेतृत्व जो भी प्रतिक्रिया दे, 2024 का लोकसभा चुनाव पार्टी के भविष्य की दृष्टि से सबसे बड़े संकट का समय बन गया है।

हाल में पार्टी के तीन नेताओं संजय निरुपम, गौरव वल्लभ और रोहन गुप्ता ने पार्टी छोड़ते समय जो कुछ कहा वह कांग्रेस के अंदर विचार, व्यक्तित्व और व्यवहार, तीनों प्रकार के संकटों को स्पष्ट करने वाला है। तीनों ने जो कहा, उसका सार यही है कि कांग्रेस पार्टी अब सनातन विरोधी हो गई है। देश में जो संपत्ति सृजन कर रहे, उनके खिलाफ बोल रही है।

नेहरू जी के सेक्युलरवाद को देश बहुत पीछे छोड़ चुका है, जबकि वर्तमान कांग्रेस वामपंथियों के प्रभाव में उसी को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही है। गांधीजी की धारा सर्वपंथ समभाव की थी, जबकि नेहरू का सेक्युलरिज्म मूल रूप में एंटी रिलीजन यानी मत-पंथ और यहां तक कि धर्म विरोधी भी था। यह वामपंथियों की धारा थी।

कांग्रेस इस समय वामपंथियों के प्रभाव में है। इसी कारण सनातन धर्म के विरुद्ध वक्तव्यों का कांग्रेस प्रखर विरोध नहीं करती। अयोध्या में श्री रामजन्मभूमि में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के निमंत्रण को ठुकराना इसी धर्म विरोधी सेक्युलरवाद का अंग था। संभव है कांग्रेस के लाखों अन्य कार्यकर्ता भी ऐसा ही महसूस कर रहे हों।

कांग्रेस के अंदर विद्रोह पहले से पनप रहा था, लेकिन अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा का निमंत्रण ठुकराने के समय से यह ज्यादा तीव्र हुआ है। कांग्रेस द्वारा निमंत्रण पत्र का उत्तर देने के साथ ही गुजरात कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अर्जुन मोढवाडिया ने अपनी आपत्ति जता दी थी। उन्होंने कहा था, समूचा देश प्राण प्रतिष्ठा पर उत्सव मना रहा है और कांग्रेस उसका बहिष्कार कर रही है।

बाद में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। फिर जगह-जगह से ऐसी ही प्रतिक्रियाएं आने लगीं और कांग्रेस छोड़ने वालों की संख्या अचानक बढ़ गई। ऐसे माहौल को देखते हुए कांग्रेस ने बयान जारी किया कि पार्टी ने किसी को अयोध्या जाने से रोका नहीं है और जो चाहे, वह जा सकता है। इससे भी विरोध थमा नहीं। उत्तर प्रदेश के कुछ प्रमुख नेताओं ने अयोध्या की यात्रा की और रामलला के दर्शन किए। इससे पता चलता है कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व जमीनी वास्तविकता से कितना कटा है।

तमिलनाडु में जब द्रमुक नेता उदयनिधि स्टालिन ने सनातन को डेंगू, मलेरिया कहते हुए इसके पूर्ण उन्मूलन की बात की, तब भी कांग्रेस ने विरोध में प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। बिहार में राजद के एक मंत्री ने भी हिंदू धर्म, रामचरितमानस के विरुद्ध लगातार बयान दिए और कांग्रेस चुप रही। लगता है कि 2014 और 2019 में पराजय झेलने के बावजूद कांग्रेस समझ नहीं पाई है कि भारत का मानस बदल चुका है। आज सेक्युलरिज्म के नाम पर हिंदू धर्म, संस्कृति, सभ्यता, भारतीय राष्ट्रवाद को लेकर हीनता का भाव पैदा करने का दौर पीछे छूट चुका है।

आम लोग अब स्वयं को गर्व से हिंदू कहने, अपने धर्मस्थलों की रक्षा करने, उसके विकास के लिए उठकर खड़े होने तथा अपने धर्म पर लगने वाले आक्षेप का जवाब देने के लिए सामने आने लगे हैं। उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक देश में यही माहौल है। भारत के नए सिरे से करवट लेने की गति ज्यादा सशक्त हुई है। इसके परिणाम भी दिखाई पड़ते हैं। एक समय राम मंदिर का खुलकर विरोध करने वाली पार्टियां भी शांत हैं या समर्थन में बयान दे रही हैं।

देश के मानस को न समझ पाने के कारण ही भारत से कम्युनिस्टों का केरल को छोड़कर लगभग अंत हो गया है। पिछले कुछ समय से राजनीति में हारे हुए, जनता द्वारा ठुकराए गए और समाज-राजनीति की मुख्यधारा का अंग न रहे समाजवादी और वामपंथी इस समय कांग्रेस नेतृत्व के नीति निर्धारक बन गए हैं। वे ही गांधी परिवार और विशेषकर राहुल गांधी को सलाह दे रहे हैं।

इसी कारण इन दिनों कांग्रेस का वक्तव्य और राजनीतिक व्यवहार भाजपा विरोध के नाम पर उस अतिवाद तक चला जा रहा है, जो स्वयं पार्टी के अंदर सामूहिक सोच के विरुद्ध और भविष्य को मटियामेट करने वाला साबित हो रहा है। कांग्रेस नेतृत्व के अंदर यह विचार घर कर चुका है कि भाजपा को हराना सबसे बड़ा कर्तव्य है और इसलिए उसे अपने हितों की बलि भी चढ़ानी पड़े तो हर्ज नहीं।

कांग्रेस में एक बड़ी संख्या में नेताओं और कार्यकर्ताओं में यह भावना घर कर रही है कि हिंदुत्व और हिंदुत्व अभिप्रेरित राष्ट्रभाव के आधार पर बदले हुए भारत को न समझ पाने के कारण पार्टी का चुनावी और राजनीतिक भविष्य अंधकारमय है। उन्हें यह भी लग रहा है कि भारत की मुख्यधारा इस समय राष्ट्रवाद, भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति है और राजनीति में भाजपा ही उसे अभिव्यक्त कर रही है। जो पार्टी इसके विरुद्ध है, उसका केवल वर्तमान चुनाव ही नहीं, आगे भी भविष्य अंधकारमय दिखता है। नेताओं के निरंतर होते मोहभंग से भी इस रुझान की पुष्टि हो रही है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)