डॉ. एके वर्मा। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द समिति की ओर से एक-राष्ट्र, एक-चुनाव पर अपना प्रतिवेदन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को प्रस्तुत करने के बाद उस पर व्यापक चर्चा होने के पहले देश का ध्यान आम चुनावों की ओर चला गया। इस बीच कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में एक साथ चुनाव का विरोध भी कर दिया। इस पर ध्यान देना होगा कि कोविन्द समिति ने अपनी रिपोर्ट तैयार करने के क्रम में न्यायमूर्तियों, विधिवेत्ताओं, अर्थशास्त्रियों, राजनीतिक दलों, विधिक संस्थाओं, व्यापारिक-औद्योगिक समूहों तथा जनता से परामर्श किया।

दुर्भाग्यवश प्रमुख विपक्षी दलों ने बिना विचार किए ही एक-साथ-चुनावों पर अपनी असहमति व्यक्त कर दी। लोकतंत्र में असहमतियों का सम्मान होना चाहिए, परंतु उसका आधार बौद्धिक होना चाहिए, न कि राजनीतिक कटुता। एक साथ चुनाव कोई नई अवधारणा नहीं है। लोकसभा और विधानसभाओं के प्रथम चार चुनाव साथ-साथ हुए थे। यह चिंता निराधार है कि एक-राष्ट्र, एक-चुनाव लोकतंत्र, संघवाद और संविधानवाद के विरुद्ध हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रतिनिधि-सभा, सीनेट और 50 राज्यों के गवर्नर और विधानमंडलों के साथ ही स्थानीय सरकारों के सभी चुनाव एक-साथ ही होते हैं।

कोविन्द समिति ने दो प्रमुख सुझाव दिए। पहला यह कि लोकसभा, विधानसभाओं तथा पंचायत और नगर-निकायों के चुनाव एक साथ होंगे। केवल पहली बार जब लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक-साथ होंगे तो उसके 100 दिन बाद पंचायत और नगर-निकायों के चुनाव होंगे। हालांकि उसके बाद सभी चुनाव एक-साथ होंगे। दूसरा सुझाव देश में केवल एक मतदाता-सूची और एक फोटो पहचान-पत्र का है, जो लोकसभा, विधानसभाओं और स्थानीय निकायों के सभी निर्वाचनों में प्रयुक्त होगा।

पहला सुझाव लागू करने में कोविन्द समिति के समक्ष दो प्रमुख चुनौतियां थीं। एक, लोकसभा और विधानसभाओं के कार्यकाल एक साथ कैसे खत्म कराए जाएं, जिससे उन सभी का चुनाव एक-साथ हो सके? विभिन्न विधानसभाओं के कार्यकाल भिन्न-भिन्न वर्षों में समाप्त हो रहे हैं। लोकसभा चुनाव 2024 के साथ अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, आंध्र प्रदेश और ओडिशा की विधानसभाओं के चुनाव हो रहे हैं। नवंबर में महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव होंगे। फिर 2025 में झारखंड, दिल्ली और बिहार के बाद 2026 में बंगाल, तमिलनाडु, असम, केरल, पुद्दुचेरी के चुनाव होंगे।

2027 में मणिपुर, गोवा, पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल और गुजरात के चुनाव होने हैं। 2028 में 10 राज्यों के चुनाव होंगे। फिर ऐसा क्या किया जाए, जिससे 2029 में लोकसभा के कार्यकाल की समाप्ति के साथ-साथ सभी विधानसभाओं का कार्यकाल भी समाप्त हो जाए? जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक उनके चुनाव लोकसभा के साथ कैसे होंगे? इसके लिए कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाना और कुछ को समय से पूर्व भंग करना पड़ता, जो एसआर बोम्मई मामले के कारण न्यायिक विवाद में फंस सकता था। दूसरी चुनौती यह है कि यदि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक-साथ हो भी जाएं, तब भी कोई निर्वाचित सदन पूर्ण-अवधि के पहले भंग हो सकता है, जिससे बीच में उसका चुनाव कराना पड़ेगा, जो भविष्य में एक-साथ चुनावों का क्रम बाधित करेगा।

कोविन्द समिति ने इन चुनौतियों का उचित समाधान बताया है। समिति ने संविधान में चार शब्दावलियां शामिल करने का सुझाव दिया। ये श्रेणियां हैं-पूर्ण अवधि, सामान्य निर्वाचन, मध्यावधि चुनाव और अवशिष्ट अवधि। लोकसभा के निर्वाचन के बाद उसकी प्रथम बैठक की तिथि से पांच वर्ष की अवधि को पूर्ण अवधि और पूर्ण अवधि की समाप्ति पर होने वाले लोकसभा चुनाव को सामान्य निर्वाचन कहा जाएगा। यदि लोकसभा या कोई विधानसभा पूर्ण अवधि के पूर्व भंग हो जाए तो उसका फिर से चुनाव केवल बची अवधि के लिए होगा, जिसे अवशिष्ट अवधि कहेंगे, जिसके लिए होने वाला निर्वाचन मध्यावधि चुनाव कहा जाएगा।

समिति का सुझाव है कि जब सरकार सुनिश्चित कर ले कि एक-साथ चुनाव कराने की सभी व्यवस्थाएं पूरी हो गई हैं, तब लोकसभा के सामान्य निर्वाचन के बाद होने वाली प्रथम बैठक के दिन ही राष्ट्रपति की ओर से एक अधिसूचना जारी होगी, जो एक साथ चुनाव संबंधी सभी संक्रमणकालीन प्रविधानों को लागू करेगी। इस तिथि को ‘नियत तिथि’ कहा जाएगा।

इस तिथि के बाद निर्वाचित होने वाली सभी विधानसभाओं का कार्यकाल लोकसभा के कार्यकाल के साथ ही समाप्त माना जाएगा, भले ही उनका निर्वाचन चाहे जब भी हुआ हो। यदि कोविन्द समिति के प्रतिवेदन स्वीकार कर लिए जाते हैं तो इसका अर्थ यह होगा कि अब नई संसद गठित होने पर वांछित संशोधन होंगे और 2029 लोकसभा चुनावों के बाद ‘नियत तिथि’ की अधिसूचना जारी कर एक-साथ चुनावों की नई व्यवस्था हो सकती है।

कोविन्द समिति ने दूसरी चुनौती के लिए भी सरल मार्ग सुझाया है। जब लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक-साथ शुरू हो जाएंगे, तब कोई सरकार लोकसभा या विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव या बजट पर हारने की स्थिति में त्यागपत्र देकर सदन को भंग करा सकती है। कोविन्द समिति के अनुसार यदि लोकसभा या विधानसभा भंग हो जाए, तो उसके लिए मध्यावधि चुनाव हों जिसमें वह सदन केवल अवशिष्ट अवधि के लिए ही निर्वाचित होगा, न कि पांच वर्ष के लिए। यह मध्यावधि चुनाव एक उप-चुनाव जैसा होगा, जिसमें नवनिर्वाचित सांसद या विधायक केवल बची अवधि के लिए ही निर्वाचित होंगे।

इस प्रविधान से न तो संसदीय व्यवस्था, न संविधान का मूल-ढांचा प्रभावित होगा और पांच वर्ष के अंतराल पर होने वाले चुनावों का चक्रीय क्रम भी नहीं बिगड़ेगा। इन उपायों के क्रियान्वयन हेतु कोविन्द समिति ने छोटे-छोटे संवैधानिक और विधिक संशोधनों का सुझाव दिया है, जिनमें कुछ को केवल संसद पारित कर सकती है और कुछ को आधे राज्यों का अनुसमर्थन भी चाहिए होगा।

निःसंदेह एक-राष्ट्र, एक-चुनाव पर कोविन्द समिति के सुझावों को लागू करने से कई समस्याओं का समाधान अवश्य होगा, लेकिन आखिर चुनावों में धनबल और बाहुबल का प्रयोग कब घटेगा? आमजन राजनीति की मुख्यधारा में कब आएगा? और भारतीय लोकतंत्र प्रक्रियात्मक लोकतंत्र से आगे निकल कर विमर्श एवं सहभागी लोकतंत्र का स्वरूप ग्रहण कर विश्व का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र कब बनेगा?

(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)