तरुण गुप्त। समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्द हमारे संविधान की मूल उद्देशिका में नहीं थे। इन्हें संविधान निर्माताओं ने नहीं, बल्कि 1976 में आपातकाल के दौरान जोड़ा गया। यह आर्थिक उदारीकरण से पहले का वह दौर था जब शीत युद्ध चरम पर था। तब सोवियत संघ हमारा सदाबहार दोस्त हुआ करता था।

समाजवाद के आदर्शों का महिमामंडन
उस दौर में समाजवाद के आदर्शों का खूब महिमामंडन होता था। साहित्य, सिनेमा से लेकर असल जिंदगी में, हर जगह समाजवादी दर्शन को सराहा और मुक्त बाजार एवं पूंजीवाद को दुत्कारा जाता। एक बुद्धिजीवी ने तो यह जुमला भी उछाला कि अगर कोई 21 साल की उम्र में समाजवाद से प्रभावित नहीं तो वह संवेदनहीन है। इसके विरोधाभास में उन्होंने यह भी कहा कि अगर वही व्यक्ति 30 वर्ष की आयु तक समाजवादी बना रहता है तो वह अव्यावहारिक है।

छात्रों पर किया गया प्रयोग
भले ही काल्पनिक सही, लेकिन एक वाकया इस नैतिक अंतद्र्वंद्व का निवारण करने में सहायक है। अर्थशास्त्र के एक प्रोफेसर और उनके छात्रों के समाजवाद पर विरोधाभासी विचार थे। ऐसे में प्रोफेसर ने एक प्रयोग करने का फैसला किया। उन्होंने कहा कि सभी छात्रों के अंकों का औसत करके सभी को बराबर अंक दिए जाएंगे जिससे शायद कोई छात्र फेल नहीं होगा, पर संभवत: किसी को ए ग्रेड भी नहीं मिलेगा। पहले टेस्ट के बाद सभी छात्रों को औसतन बी ग्रेड मिला। जिन छात्रों ने कड़ी मेहनत की थी और जिनके ज्यादा अंक आते थे, वे इससे बेहद नाखुश हुए। वहीं, जिन्होंने कम पढ़ाई की और जिनके कम अंक आते थे, वे बहुत खुश हुए। जब दूसरे टेस्ट की बारी आई तो अकर्मण्य छात्रों ने और कम पढ़ाई की और परिश्रमी छात्र भी हाथ पर हाथ धरकर बैठ गए, क्योंकि वे इससे खिन्न थे कि उनके परिश्रम का लाभ अपात्र छात्रों को दे दिया गया।

बड़ा हासिल करने के लिए बड़ा करना होगा
परिणामस्वरूप दूसरे टेस्ट में सभी को औसतन डी ग्रेड मिला। यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक कि हर किसी ने पढ़ना नहीं छोड़ दिया और अंत में सभी फेल हो गए। जीवन में भी कुछ ऐसा ही होता है। अगर कुछ बड़ा हासिल करना है तो उसके लिए प्रयास भी उसी अनुपात में होना चाहिए। यदि सरकार प्रतिफल छीन लेगी तो प्रयास स्वाभाविक रूप से कम हो जाएंगे। प्रतिफल के अभाव में कोई भी सफल होने की परवाह नहीं करेगा। जब आधे लोगों को यह लगने लगे कि उन्हें कुछ करने की जरूरत ही नहीं, क्योंकि बाकी आधे लोगों की मेहरबानी से उनका काम चल जाएगा तो आधे लोग यही सोचेंगे कि उन्हें परिश्रम करके क्या लाभ? इससे समूचा तंत्र चरमरा जाएगा।

राजनीति में जीत ही सबसे बड़ा पहलू 
आखिर सरकारों का झुकाव समाजवाद की ओर क्यों है? इसका स्वाभाविक जवाब होगा चुनावी राजनीति, क्योंकि लोकतांत्रिक राजनीति में जीत ही सबसे बड़ा पहलू है और लोकप्रिय होना ही किसी भी दल के लिए सबसे बड़ी कसौटी होती है। आर्थिक दृष्टि से वामपंथ की ओर झुकाव में यह राजनीतिक लाभांश अत्यंत महत्वपूर्ण कारक है, पर केवल यही इकलौता पहलू नहीं है। भारत में जहां समाज कई वर्गों में विभाजित है, जिसकी प्रति व्यक्ति आय अत्यंत न्यून और कई पैमानों पर जीवन स्तर गुणवत्ता बेहद खराब है वहां सामाजिक कल्याण के लिए खर्च करना अपरिहार्य है।

पूंजीवाद और मुक्त बाजार के समर्थक
यह राज्य का दायित्व है कि वह नागरिकों को गरीबी, लचर स्वास्थ्य और अशिक्षा के दलदल से बाहर निकालकर गरिमामय जीवन प्रदान करे। क्या पूंजीवाद और मुक्त बाजार के समर्थक ऐसे जरूरी सुधार का विरोध करते हैं? बिल्कुल नहीं। केवल उनका दृष्टिकोण अलग होता है। उनका विचार यह होता है कि देश के संसाधनों को बांटने से अधिक जोर बढ़ाने पर दिया जाना चाहिए। जैसा कि राष्ट्रपति कैनेडी ने कहा था कि ज्वार का उफान सभी कश्तियों की नैया पार लगा देता है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन
केंद्र सरकार ने बजट में बिजली, पानी और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं के साथ आवास और कनेक्टिविटी पर जोर देकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देने का जो एलान किया उसकी सभी वर्गों को सराहना करनी चाहिए। न केवल समानता, बल्कि आर्थिक दृष्टिकोण से भी यह एक दमदार नीति है जिससे मांग में वृद्धि होगी। हालांकि अति संपन्न वर्ग के लिए हद से ज्यादा और लगभग दंडात्मक टैक्स दरों के पीछे के तर्क को समझना कठिन है। इसके अतिरिक्त कारपोरेट टैक्स की दरों में चरणबद्ध कटौती के वादे के बावजूद दरें कम नहीं की गईं। लाभांश वितरण कर का ढांचा भी न्यायोचित नहीं।

कारपोरेट कर की सर्वोच्च दर 
मान लीजिए कि एक बड़ी कंपनी 100 रुपये लाभ अर्जित करती है। कारपोरेट कर की सर्वोच्च दर के साथ उपकर एवं अधिभार के रूप में लगभग 35 प्रतिशत चुकाने के बाद कर उपरांत लाभ में उसके पास 65 प्रतिशत शेष बचेगा। यदि प्रबंधन उस लाभ को शेयरधारकों में वितरित करना चाहे तो कंपनी को लाभांश वितरण कर के रूप में तकरीबन 20 प्रतिशत कर देना होगा जो लगभग 11 रुपये होगा। तब 54 रुपये बचेंगे। प्राप्तकर्ता को इन 54 रुपये पर फिर 10 प्रतिशत कर देना होगा तो उसे केवल 48.5 रुपये मिलेंगे। इस प्रकार लाभांश वितरण की प्रभावी लागत 51.5 प्रतिशत होती है।

अनुपालन को प्रोत्साहन
कराधान का मूल सिद्धांत यह है कि वह केवल एक स्तर पर लागू होना चाहिए। यहां कर तीन स्तरों पर लिया जा रहा है। अगर यह उत्पीड़न नहीं तो क्या है? इससे खिन्न लोग शायद लाभांश वितरित ही न करें। इसके बजाय वे अपने सभी निजी खर्चों को कंपनी में दिखाने का प्रयास करें और स्वीकार्य कारोबारी व्यय के रूप में उसे निकालकर कंपनी के कर योग्य लाभ को कम करने का प्रयास करें। याद रखें कि अवैध कर वंचन और वैधानिक तौर पर कर से बच निकलने में बड़ी बारीक रेखा होती है। हमारे नियम ऐसे होने चाहिए जो कर अनुपालन को प्रोत्साहित करें।

सरकारी सेवाओं और सामाजिक सुरक्षा का स्तर 
चालू वित्त वर्ष में सरकार का अनुमानित व्यय लगभग 28 लाख करोड़ रुपये है। इसमें उपरोक्त करों से जितना हासिल नहीं होगा, उससे बड़ा नुकसान नकारात्मक संदेश से हो जाएगा। यह एक कुतर्क ही है कि हम विकसित देशों से तुलना करते हुए दावा करें कि अति धनी वर्ग पर हमारे यहां कर की दर अभी भी कम है। क्या हम वैश्विक स्तर पर सबसे खराब चलन को अपनाने के इच्छुक हैं? क्या हमारी सरकारी सेवाओं और सामाजिक सुरक्षा के स्तर की उनसे जरा भी तुलना की जा सकती है?

जीडीपी के अनुपात में कर संग्रह
भारत में जीडीपी के अनुपात में कर संग्रह लगभग 11 प्रतिशत है जो विकसित देशों के 20 प्रतिशत की तुलना में काफी कमजोर है। स्वाभाविक रूप से हमारी प्राथमिकता कर दायरे का विस्तार कर टैक्स संग्रह बढ़ाने की है, लेकिन अतार्किक और असंगत दरों से कर अनुपालन को कभी प्रोत्साहन नहीं मिलता।

समतावादी सिद्धांत 
नि:संदेह समाज के सबसे गरीब और कमजोर तबकों के प्रति राज्य की बड़ी जिम्मेदारी है, लेकिन एक समतावादी सिद्धांत के तहत उसे साधन-संपन्न वर्ग के लिए भी उतना ही प्रतिबद्ध होना चाहिए। आर्थिक मोर्चे पर धनी वर्ग भले ही बड़ी हिस्सेदारी रखता हो, लेकिन राजनीतिक महत्व के लिहाज से अल्पसंख्यक है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उसके साथ अन्याय हो। किसी को फायदा पहुंचाने के लिए किसी अन्य से छीनने की जरूरत नहीं है। अमीरों का पतन करके गरीबों का उत्थान नहीं किया जा सकता। आप धन संपदा बांटकर उसे नहीं बढ़ा सकते। इतिहास ऐसी तमाम मिसालों से भरा पड़ा है।