नई दिल्ली [डॉ निमेष जी देसाई़]। मानव का मन और हृदय कोमल होता है। यह आसानी से किसी भी चीज से प्रभावित हो सकता है। खासकर नकारात्मक चीजों को आसानी से ग्रहण करता है। हमारे मस्तिष्क में पांच तरह के सेंस (इंद्रिय) होते हैं। इनमें दो-तीन सेंस ऐसे हैं जो पोर्नोग्राफी के कारण प्रभावित होते हैं। मानव को हिंसक भी बनाता है। लेकिन ऐसा कहना गलत है कि पोर्नोग्राफी ही पूरी तरह से बढ़ते दुष्कर्म और इससे संबंधित घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। आज भले

ही यह लोगों को आसानी से उपलब्ध है। लेकिन 30-40 साल पहले तो ऐसा नहीं था। तब भी दुष्कर्म की जघन्य वारदातें सामने आती थीं। हां यह जरूर है कि इसने हर उम्र के लोगों के बीच अपनी जगह बना ली है। जिसका स्वभाव हमलावर है, वह इन चीजों से प्रभावित होकर वारदात कर सकता है। कुछ दशक पहले की हमारी पीढ़ी को स्कूलों में पढ़ाया जाता था कि साहित्य समाज का दर्पण है। यानी साहित्य समाज की सच्चाई दर्शाता है। साहित्य का संबंध एकतरफा था। कोई उस पर त्वरित प्रतिक्रिया नहीं कर सकता था। लेकिन आज हर घर

में इंटरनेट पहुंच चुका है। लोग प्रिंट मीडिया और रेडियो युग को पार कर आज टीवी और सोशल मीडिया के दौर में आ चुके हैं। यहां संबंध और संवाद दोतरफा हो चुके हैं।

इंटरनेट की वजह से पोर्नोग्राफी भी हर किसी की पहुंच में है। लेकिन जिस स्थिति में आज हम पहुंचे तो उसमें कई विकसित देश 30 से 40 साल पहले पहुंच चुके थे। वहां भी इस तरह की घटनाएं होती है। इस पर कई शोध हुए। उसके निष्कर्षों पर कहीं कोई सहमति नहीं बन पाई। लेकिन इस पर सहमति जरूर है कि ये मानव व्यवहार को प्रभावित करती है। इसमें यह भी बात सामने आती है कि व्यवहार को नियंत्रित करने और सही निर्णय लेने की क्षमता एक उम्र के बाद ही आती है। दुष्कर्म की वारदातों में सिर्फ ऐसे में जरूरी है कि पोर्नोग्राफी पर अंकुश हो। पूर्णतया बंद करना, इसका हल नहीं है।

अगर यह हल होता तो कई विकसित देशों में इस पर प्रतिबंध लगा होता। लेकिन ऐसा नहीं है। वैसे भी यह देखा जाता है कि जिस मानव व्यवहार पर रोक लगाई जाएगी, वह और पनपेगा। इसलिए हमें अंकुश की तरफ ध्यान देना होगा। पारिवारिक, सामाजिक और कानूनी बंदिशें लगानी होंगी। घर और समाज में बच्चों को यह लैंगिक ज्ञान देना जरूरी है। साथ ही उनमें अच्छे आचरण देने की जिम्मेदारी भी परिवार और समाज को उठानी पड़ेगी। उन्हें बताना पड़ेगा कि महिलाओं का सम्मान किस तरह से किया जाए। उन्हें आभासी और वास्तविकता के बीच के अंतर को बताना पड़ेगा। तब जाकर हम उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाली पीढ़ी में सुधार होगा।