[एम. वेंकैया नायडू]। आठ अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का बिगुल बजाया था। इस आंदोलन ने अंतत: 1947 में अंग्रेजों की गुलामी से राष्ट्र की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस आंदोलन के अस्सीवें वर्ष में भारत अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। आजादी के पचहत्तरवें वर्ष में यह भी अपेक्षित है कि हम अपनी उपलब्धियों का मूल्यांकन करें। अपनी सफलताओं का उत्सव मनाएं। जिन मील के पत्थरों को हमने पार किया है, उसका गौरव मनाएं। साथ ही उन चुनौतियों पर भी विचार करें, जिनके समाधान हम अभी तक खोज नहीं पाए हैं।

इस अवसर पर यह मंथन भी आवश्यक है कि गांधी जी ने अहिंसा को एक दमनकारी हुकूमत के विरुद्ध किस प्रकार एक हथियार बना दिया। अहिंसा उनकी सविनय अवज्ञा का आधार बन गई। किस प्रकार गांधी जी ने लोक नैतिकता का पूरा जीवन दर्शन प्रतिपादित किया और देश भर के लोगों को सफलतापूर्वक उससे जोड़ा। अहिंसा का मूलमंत्र इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह हमारे देश के सभ्यतागत और सांस्कृतिक मूल्यों के निकट है।

गांधी जी को स्वाधीनता आंदोलन के उन सभी घटकों का समर्थन मिलता रहा, जिन्होंने भारत की स्वाधीनता के लिए अद्भुत साहस के साथ अलग तरह से संघर्ष किया, लेकिन गांधी जी अहिंसा के पथ से कभी विचलित नहीं हुए। मानवता के इतिहास में यह एक अनोखी घटना थी, जिसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं थी।

भारत का इतिहास बर्बर आक्रांताओं से भरा है, जिन्होंने देश को लूटा और पीछे छोड़ गए विध्वंस का एक लंबा सिलसिला। हमारे इतिहास ने ऐसे षड्यंत्रकारी उपनिवेशवादी देखे, जिन्होंने 'बांटो और राज करो' की नीति के जरिये हमें सदियों गुलाम बनाकर रखा। परस्पर विद्वेष और वैमनस्य के उदाहरणों के बावजूद हमारे इतिहास में पृथ्वीराज चौहान, छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, रानी लक्ष्मीबाई, अल्लूरी सीताराम राजू, वीरपांड्या कट्टाबोम्मन, लचित बोरफुकन और रानी अब्बक्का जैसे तमाम अनुकरणीय उदाहरण भी हैं। हालांकि राष्ट्र भक्ति, साहस और समर्पण के ऐसे विलक्षण उदाहरण प्राय: स्थानीय स्तर तक ही सीमित रहे। आक्रमणकारी आक्रांता और उपनिवेशवादी सत्ता ने प्राचीन भारतीय संस्कृति की जड़ों को उखाड़ने की भरसक कोशिश तो की, लेकिन वे हमारी सांस्कृतिक एकता और सभ्यतागत निरंतरता के सूत्र को तोड़ न सके।

नि:संदेह, आज विश्व मंच पर भारत की प्रतिष्ठा है। एक स्वतंत्र देश के रूप में विगत 75 वर्षों में भारत ने विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलताएं अर्जित की हैं। फिर भी आवश्यक है कि हम अपने लंबे स्वाधीनता आंदोलन से प्रेरणा लें।

हमारा स्वाधीनता आंदोलन, एक राष्ट्र के रूप में हमारी जिजीविषा, उसके लिए हमारे अदम्य संघर्ष, भविष्य के प्रति हमारी उम्मीदों को दर्शाता है। वह यात्रा आज भी अनवरत जारी है। वही हमें हर क्षेत्र में सफलता के नित नए प्रतिमान स्थापित करने और उनकी प्राप्ति के लिए नए उत्साह से प्रयास करने के लिए प्रेरित करती है। यह जरूरी है कि हम विपरीत परिस्थितियों में भी उन लक्ष्यों के प्रति एकाग्र और निष्ठावान रहें, जो हमने अपने लिए निश्चित किए हैं। हमारे पास प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। देश की मेधा का लोहा विश्व मानता है। इसलिए आवश्यक है कि भारत आर्थिक, वैज्ञानिक, तकनीकी और मानव विकास के लिए अपनी युवा शक्ति की प्रतिभा और क्षमता का भरपूर उपयोग करे।

आज जब हम विभिन्न क्षेत्रों में अपनी उपलब्धियों पर गौरव कर रहे हैं तो इस ऐतिहासिक अवसर पर थोड़ा ठहरकर भविष्य की संभावित चुनौतियों पर विचार कर उनका समाधान खोजने की दिशा में भी सक्रिय हों। हमने लंबे और कठिन संघर्ष के बाद जिस स्वराज को हासिल किया है उसे अब देश भर में स्थानीय स्तर तक सुराज में बदलना है। गरीबी, अशिक्षा, लैंगिक भेदभाव, भ्रष्टाचार को समाप्त करना है। असमानता को खत्म करना है। यही हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।

ऐसे समतामूलक समाज और सुराज के लिए न्यायपूर्ण शासन आवश्यक शर्त है। एकता, समानता और समावेश हमारी प्राचीन भारतीय सभ्यता में अंतर्निहित सांस्कृतिक आदर्श रहे हैं। एक सशक्त-जीवंत भारत के निर्माण के लिए हमें सिर्फ अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित आदर्शों का राष्ट्रवाद के भाव से अनुसरण करना है। एक ऐसा भारत बनाना है जो अपनी सामथ्र्य से भलीभांति परिचित हो और जो उसका सदुपयोग कर सके।

सभी को गुणवत्तापरक किफायती शिक्षा और स्वास्थ्य एक राष्ट्र के तौर हमारा लक्ष्य होना चाहिए जिसमें सरकार और निजी क्षेत्र सहित सभी अंशभागियों की सहभागिता जरूरी होगी। इसमें ग्रामीण भारत को पीछे नहीं छोड़ा जा सकता। ग्रामीण अवसंरचना को तत्परता से तेजी प्रदान कर उसे देश के व्यापक विकास से जोड़ा जाना चाहिए। शिक्षा में मातृभाषा उसे समावेशी और समतामूलक बनाएगी। इससे शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति आएगी।

लोभ के वशीभूत होकर मानव ने पर्यावरण को भारी क्षति पहुंचाई है। आज जलवायु परिवर्तन एक वास्तविक वैश्विक खतरा है। पृथ्वी को बचाने के लिए संरक्षण ही एकमात्र उम्मीद है। इस दिशा में हमें अपनी सामूहिक संकल्पशक्ति के साथ जुटना होगा। भारतीय सनातन दर्शन में सृष्टि की योजना का उल्लेख विस्तार से किया गया है। नदी, पर्वत, वृक्षों, ग्रह और नक्षत्रों जैसे प्राकृतिक अवयवों में देवत्व की दिव्यता देखना हमारे संस्कार रहे हैं, जिनका वर्णन हमारे ग्रंथों में है। हमें अपने उन्हीं संस्कारों को खोजना है और भावी पीढ़ियों की सुरक्षा तथा प्रकृति के संरक्षण के लिए उनसे कुछ पाठ सीखने हैं। एक उज्ज्वल भविष्य के लिए हमें अपनी संस्कृति और प्रकृति को संरक्षित रखना होगा।

जब हम स्वाधीनता आंदोलन के स्वर्णिम अध्याय को याद करते हैं तो अपनी भारत माता के प्रति असीम सम्मान और समर्पण का भाव हमें एकसूत्र में बांध देता है। एक दमनकारी औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिए हमारे महान स्वाधीनता सेनानियों का त्याग और संघर्ष हमें प्रेरित करता है। यह वह समय है जब हम एक आजाद भारत के सपने को पूरा करने के लिए, अपने राष्ट्र नायकों और अनगिनत अनजान आंदोलनकारी क्रांतिकारियों के बलिदान को याद करें। यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम उनके सपनों के एक स्वतंत्र, जीवंत, खुशहाल और समतामूलक भारत के निर्माण के लिए अपना हरसंभव योगदान देने के लिए तत्पर रहें।

(लेखक भारत के उपराष्ट्रपति हैं)