[गिरीश्वर मिश्र]। अचानक आई कोरोना महामारी और उससे पहले कई वर्षों से परेशान करते आ रहे प्रदूषण ने आम आदमी की मुश्किलें कई गुना बढ़ा दी हैं। इस दौर में सेहत से लेकर आर्थिक दुश्वारियों की अनगिनत दर्दनाक दास्तानें सुनने को मिली हैं। हालात से उबरने की प्रेरक कहानियां भी सामने आई हैं। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि ऐसी कठिन परिस्थितियों से उबरने का कारगर उपाय क्या हो? वैसे तो इन सवालों का कोई सीधा जवाब नहीं है, मगर यह तय है कि इस स्थिति में प्रतिरोध या जूझने की क्षमता यानी रेसीलिएंस का विचार जरूर मदद करता है। जूझने का दम हो तो आदमी जीवन की कठिन परिस्थितियों से भी उबर सकता है। इसमें जीवन के अर्थ और उद्देश्य की खोज, अपनी चेतना का समृद्ध होना और रिश्तों में सुधार भी होता है। वस्तुत: रेसिलिएंस कोई एकल विशेषता न होकर कौशलों का एक समूह है, जिसमे ऐसे व्यवहार और विचार शामिल होते हैं जो सीखने के साथ और परिष्कृत होते हैं। इसमें संदर्भ और परिवेश की अहम भूमिका होती है। बाह्य संसाधनों की मौजूदगी भी इसमें असर दिखाती है। रेसीलिएंस गत्यात्मक होता है। यानी हम जीवन की एक अवस्था में अधिक और दूसरी में कम जुझारू हो सकते हैं।

यह भी स्मरण रहे कि जुझारू होने का यह अर्थ भी नहीं कि आप पर आघात का प्रभाव नहीं पड़ता। कुछ न कुछ पीड़ा तो हर किसी के हिस्से में आती है। यह जरूर है कि जुझारू आदमी उसके नकारात्मक असर से उबर जाते हैं। हममें से कई लोगों को बचपन में अक्सर यह सिखाया जाता है कि कठिनाइयों और तनाव से बचें या दूर रहें। यह सही है कि लगातार तनाव में बने रहने से मानसिक स्वास्थ्य के लिए जोखिम बढ़ जाता है, परंतु एक हद तक तनाव का अनुभव कठिनाइयों के बीच मजबूती से टिके रहने के लिए जरूरी होता है। यदि कोई जीवन की चुनौतियों का सामना करने से बचता रहेगा तो मुश्किल घड़ी में उससे निपटने के लिए उसमें आवश्यक क्षमता का विकास नहीं होगा। इसलिए जूझने की जटिल और गत्यात्मक प्रकृति को समझना जरूरी है।

नजदीकी रिश्तों से मिलता है भौतिक एवं भावनात्मक संबल

जुझारूपन के लिए हमें अपने आंतरिक और बाह्य संसाधनों सदुपयोग करना जरूरी होता है। इस क्रम में सबसे जरूरी है दूसरों से जुड़े रहना। मुश्किल घड़ी में तमाम लोग अन्यान्य कारणों के चलते दुनिया से मुंह मोड़ लेते हैं। इसके उलट वे लोग मुश्किल की स्थिति से कहीं बेहतर तरीके से उबरने में सफल रहते हैं, जो एक दूसरे से जुड़ाव रखते हैं, क्योंकि नजदीकी रिश्तों से भौतिक एवं भावनात्मक संबल मिलता है। इसलिए जब मुश्किलें बढ़ें, तब उन लोगों की तरफ हाथ बढ़ाना चाहिए जो मदद कर सकते हैं। यदि किसी को अकेले ही सभी समस्याओं को सुलझाने की आदत है या वह दूसरों पर निर्भरता को कमजोरी समझता है तो उसकी मुश्किल बढ़ जाती है। सहायता मांगना भी साहस का काम है और यह मानना चाहिए कि गलती करना या कमी रह जाना तो मनुष्य होने की निशानी है। ऐसे में लोगों से जुड़े रहना बेहद जरूरी है। यह जुड़ाव किसी भी स्वरूप में हो सकता है। बस यह सुनिश्चित कीजिए कि आपके जीवन में मुश्किल में साथ देने वाले रिश्ते हों।

जुझारूपन के लिए पीड़ा के साथ जुड़ने का अभ्यास भी होता है जरूरी

यह भी एक सत्य है कि परिस्थिति को स्वीकार करने से दुख कम हो जाता है। इससे आपको अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में फायदा होता है। जीवन सिर्फ सुखों का सागर नहीं है। इसमें पीड़ा भी है। इसके समग्र अनुभव मूल्यवान हैं। वे भविष्य में मार्गदर्शक बनते हैं। इससे आपको अपनी सीमाओं एवं क्षमताओं का भी आकलन होता है। इससे आप जुझारू बनते हैं। जुझारूपन के लिए पीड़ा के साथ जुड़ने का अभ्यास भी जरूरी होता है। तमाम लोग अप्रिय स्थिति से पीछा छुड़ाने की कोशिश करते हैं। यह पलायनवादी प्रवृत्ति कुछ मामलों में तो कारगर होती है, परंतु प्रत्येक स्थिति में इसे आजमाना उचित नहीं होता। यह संघर्ष करने की क्षमता को कुंद करती है। भावनाओं की स्थिति भी महत्वपूर्ण है। यदि भावनाओं को नकारते रहें या फिर उन्हें दबाते रहें तो जीवन का आनंद जाता रहेगा।

प्रत्येक संवेग की होती है खास भूमिका

कुछ परिस्थितियों में अपनी भावनाओं को नियमित करने के लिए उनकी उपेक्षा करना ठीक हो सकता है, पर उसे आदत नहीं बन जाने देना चाहिए। अपनी भावनाओं के साथ एक दूसरे किस्म का रिश्ता बनाना चाहिए। उनके बारे में उत्सुक रहना चाहिए और ज्यादा जानना चाहिए। अमुक संवेग क्या बता रहा है? इसका उद्देश्य क्या है? अगर किसी ने झूठ बोलकर दुखी किया है तो इसका अर्थ है कि आप ईमानदारी को महत्व दे रहे हैं। कुछ संवेग कठिन लगते हैं, परंतु प्रत्येक संवेग की खास भूमिका होती है। वे आपके व्यक्तित्व और वरीय मूल्य बताते हैं। हमें अपने विचारों के आशय भी समझने चाहिए। बहुत से विचार सिर्फ विचार होते हैं। वे पूरी सच्चाई नहीं बयान करते। कई बार लोग खुद से जुड़ी घटनाओं को लेकर निराशा भरे पहलुओं से ही चिपके रहते हैं। इसकी तार्किकता पर भी लोगों को विचार करना चाहिए।

तनाव और त्रासद परिस्थितियों से सीखकर नई ऊर्जा और उत्साह 

वैसे तमाम संकटों को चुनौती के रूप में लेना भी उपयोगी होता है। मुश्किल घड़ी में भी अपने विकास की राह तलाश की जा सकती है। तमाम लोग महामारी के दौरान डरे होने के बावजूद आत्ममंथन और मुश्किल वक्त में जीने के गुर भी सीख रहे हैं। जो लोग मुश्किलों को आगे बढ़ने के अवसर के रूप में लेते हैं, वे परेशानियों से बेहतर तरीके से निपट पाते हैं। लोग तनाव और त्रासद परिस्थितियों से सीखकर नई ऊर्जा और उत्साह पाते हैं। इस स्थिति में आशावाद, साहस, धैर्य, क्षमा, प्रेम, अध्यात्म, हास्य, आत्मशक्ति का उपयोग, कृतज्ञता तथा दया जैसी भावनाएं कल्याणकारी साबित होती हैं। वास्तव में मुश्किल घड़ी को अवसर बनाकर जीवन पथ पर आगे बढ़ना ही मनुष्य की विवेक बुद्धि का तकाजा है।

(लेखक पूर्व कुलपति और शिक्षाविद् हैं) 

[लेखक के निजी विचार हैं]