[ गिरीश्वर मिश्र ]: आज समाज और देश से जुड़े हर मुद्दे पर बड़े और समझदार कहलाने और स्वयं को ऐसा मानने वाले राजनेताओं में मतभेद है। सभी दल अपना-अपना तर्क दे रहे हैं। सड़क से लेकर देश की संसद और प्रदेशों की विधानसभाओं तक हाय-तौबा मची हुई है। इन श्रेष्ठजनों के आचरण देख-देख कर लोग माथा ठोक रहे हैं। राजनीति की शीर्ष विचारस्थली में मुद्दों की खोज और बेसिर पैर की तर्कपद्धति, चर्चा का स्तर और नीतियों के अर्थ-अनर्थ और तथ्यों एवं घटनाओं की चित्र-विचित्र व्याख्या देखकर लोग अब दातों तले अंगुली दबा रहे हैं।

सामाजिक और राष्ट्रीय प्रश्नों को दरकिनार रख पक्ष और विपक्ष आए दिन एक-दूसरे को पछाड़ने की मुहिम में जुट जाते हैं और उसका नजारा अधिकाधिक दुखी करने वाला होता जा रहा है। इनकी लामबंदी जिन तरकीबों की सहायता से होने लगी है वह चिंता का कारण बन रही है। उनसे जिस सहिष्णु राजनीतिक परिपक्वता की अपेक्षा थी वह उभरते राजनीतिक परिदृश्य में अनुपस्थित होती जा रही है। सभी सिर्फ सत्ता के लिए उतावले नजर आते हैं और इस उतावलेपन में उन्हें कुछ भी याद नहीं रहता। चुनावी जंग के दौरान नारों, वादों, घोषणाओं, सुझावों आदि की सहायता से जनता को रिझाने-फुसलाने के दौरान जो कुछ भी कहा सुना गया वह अल्पकालिक स्मृति में ही रह जाता है। शासन में आने के बाद नीतियों और कार्यक्रमों में उनका अनुवाद मुश्किल हो जाता है।

व्यापक जनकल्याण के प्रति जो संवेदना और लगाव अपेक्षित होता है वह शीघ्र ही अदृश्य होने लगता है। जो किया जाता है वह सतही दिखावे तक ही रह जाता है और उसमें भी क्षुद्र स्वार्थी तत्व हरकत में आ जाते हैं। परिणामत: हम अपने लक्ष्य से भटक जाते हैं और अनावश्यक उलझाव खड़े कर लेते हैं। जमीनी हकीकत में परिवर्तन लाने के लिए जिस समर्पण और दूरदृष्टि की जरूरत होती है वह अक्सर नदारद रहती है। इस तरह की घातक प्रवृत्ति का सबसे ज्वलंत उदाहरण शिक्षा क्षेत्र की सतत उपेक्षा है।

बुद्धि और तर्क से दूर होते जा रहे ऐसे निराशाजनक राजनीतिक माहौल में राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस परिषद के संपन्न हुए ताजे वार्षिक अधिवेशन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के विश्वविद्यालयों में वैज्ञानिक शोध की पारिस्थितिकी (इको सिस्टम) के घोर अभाव की ओर ध्यान आकृष्ट किया और उसमें सुधार लाकर उसे श्रेष्ठ बनाने के लिए शिक्षा जगत विशेष रूप से उच्च शिक्षा की दुनिया का आह्वान किया। इस अवसर पर उन्होंने भारतीय समाज के लिए ‘जय विज्ञान’ के नारे का उद्घोष कर महत्वपूर्ण संदेश दिया। यह निश्चय ही एक स्वागतयोग्य पहल है जिसे अमल में लाने की आवश्यकता है। 21वीं सदी में एक समृद्ध और हर तरह से समर्थ और स्वाबलंबी भारत का सपना सच हो, इस लक्ष्य के लिए इस दिशा में कार्य करने पर वरीयता के साथ ध्यान देना होगा।

भारत जैसे विकासशील देश के लिए विज्ञान को लेकर इस तरह की सोच निश्चय ही महत्व रखती है जहां आज भी तंत्र-मंत्र के जाल में परिवार का परिवार आत्महत्या को गले लगा लेता है और मानव-बलि तक की घटनाएं सुनने में आती हैं। हर तबके में जादू, टोना, टोटका जैसी पारलौकिक शक्तियों पर अतिरिक्त भरोसा अभी भी कायम है। मंदिर, मस्जिद आदि भजन और शांति के स्थल धन और अर्थ की गहमागहमी के मामलों से जुड़ते जा रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि विगत वर्षों में कई बाबाओं, गुरुओं के अक्षम्य कुकृत्यों पर से पर्दा उठा है और आज उनमें से कई जेल में हैं। यह सब समाज में न केवल वैज्ञानिक दृष्टि के असंतुलित विकास को दर्शाता है, बल्कि भौतिक समृद्धि की तीव्र लालसा को भी व्यक्त करता है। कहना न होगा कि बाबाओं और तांत्रिकों आदि के चंगुल में अधिकतर लोग अपनी भौतिक समृद्धि को बढ़ाने, अनिष्ट-निवारण और मनोकामना की पूर्ति की आकांक्षा के साथ ही फंसते हैं। उनके लिए सुख के तलाश की यह शॉर्टकट वाली गली लगती है जो तुरत-फुरत इच्छापूर्ति का मार्ग सुगम कर देती है, लेकिन इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि धर्म और अध्यात्म मनुष्य के अस्तित्व से जुड़ी एक आधारभूत जरूरत भी है। अत: समग्र व्यक्तित्व या पूर्ण मानवीयता के विकास के लिए सिर्फ भौतिक पक्ष पर ही बल देना नाकाफी होगा।

पश्चिमी दुनिया, जहां आज भौतिकवाद का अतिरेक दिख रहा है वहां का समाज मानसिक और सामाजिक विकार का जिस मात्रा में शिकार हो रहा है वह सबके सामने है। उससे सबक लेते हुए हमें एकांगी भौतिकतावादी दृष्टि के खतरों को पहचानना होगा। वर्तमान परिस्थिति सहज स्वाभाविक आध्यात्मिक विकास और वैज्ञानिक दृष्टि की आवश्यकता की ओर संकेत करती है। समाज में व्यापक रूप से विज्ञान और अध्यात्म की प्रतिष्ठा हो सके इसके लिए कार्य आवश्यक है।

प्रधानमंत्री द्वारा ‘जय विज्ञान’ का आह्वान भारतीय समाज के नवोन्मेष के लिए आह्वान है जो प्रकट रूप से शिक्षा में सुधार की अपेक्षा करता है। समाज के निर्माण के लिए शिक्षा के महत्व को लेकर जितनी सहमति सभी राजनीतिक दलों में है उतनी शायद ही किसी दूसरे विषय में पाई जाती हो। ऐसी स्थिति में यह आशा बंधती है कि शोध पारिस्थितिकी को सुधारने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएंगे। रमन, साहा, बसु और रामानुजन आदि भारत के महान वैज्ञानिकों की कथा अब किंवदंती हो रही है। आज विभिन्न राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं और प्रौद्योगिकी संस्थानों में उल्लेखनीय काम हो रहा है, पर विश्वविद्यालय कमजोर हो रहे हैं। कहना न होगा कि पिछले दो-तीन दशकों में उच्च शिक्षा के परिसर कई तरह की मुसीबतों से जूझते आ रहे हैं। सुधार की कौन कहे, इन संस्थाओं का जीवन ही खतरे में पड़ता लग रहा है। और की बात छोड़ें, दिल्ली जैसे केंद्रीय विश्वविद्यालय में, जहां छात्रों की संख्या निरंतर बढ़ रही है, अध्यापकों की संख्या आज लगभग आधी ही रह गई है। बिना अध्यापक हो रही पढ़ाई की गुणवत्ता का हाल कोई समझ सकता है।

प्रांतों के विश्वविद्यालयों के और भी बुरे हाल हैैं। रोस्टर के सवाल को लेकर सरकार ने सारी नियुक्तियों को रोक रखा है। पूरा सत्र बीत रहा है और इसकी कोई खबर नहीं है कि क्या नीति अपनाई जाएगी? दिहाड़ी पर अध्यापकों को लगा कर अध्यापन कराने की अनुमति दी गई है। सरकार की अकादमिक नौकरशाही के झमेले लटकाऊ और समयसाध्य हैं। अध्ययन विषयों की रूपरेखा में विश्वविद्यालयों की मिलने वाली स्वायत्तता घटती जा रही है। हिंदी और अन्य भारतीय भारतीय भाषाओं में अच्छी उच्च शिक्षा पाना अभी भी स्वप्न बना हुआ है। महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की प्रयोगशालाओं की हालत भी ठीक नहीं है। छात्रों और अध्यापकों में नए ज्ञान के लिए उत्सुकता और लगन भी कम हो रही है। शोधकर्ताओं के लिए स्थानीय जरूरतों और अंतरराष्ट्रीय प्रवृत्तियों के बीच संतुलन बना पाना भी एक बड़ी चुनौती साबित हो रही है। इस चुनौती से पार पाने के अविलंब उपाय किए जाना वक्त की मांग है।

( लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हैैं )