[ हृदयनारायण दीक्षित ]: भारत अद्वितीय राष्ट्र है। सारी दुनिया में बेजोड़। इंद्रधनुषी विविधिता। फिर भी एक सांस्कृतिक निरंतरता। यह विश्व का सबसे बड़ा संसदीय जनतंत्र है, लेकिन राजभाषा के प्रश्न पर हम सभी देशों से पीछे हैं। महात्मा गांधी ने लिखा था, ‘पृथ्वी पर हिंदुस्तान ही एक ऐसा देश है जहां माता-पिता बच्चों को अपनी मातृभाषा के बजाय अंग्रेजी पढ़ाना-लिखाना पसंद करेंगे।’ संविधान सभा ने 14 सितंबर 1949 को हिंदी को राजभाषा बनाया।

पं. नेहरू ने कहा, ‘हमने अंग्रेजी इस कारण स्वीकार की कि वह विजेता की भाषा थी। अंग्रेजी कितनी ही अच्छी हो, किंतु इसे हम सहन नहीं कर सकते।’ सभा में राजभाषा का प्रस्ताव एनजी आयंगर ने रखा और कहा कि हम अंग्रेजी को एकदम नहीं छोड़ सकते। हमने सरकारी प्रयोजनों के लिए हिंदी को अभिज्ञात किया है। फिर भी मानना चाहिए कि वह समुन्नत भाषा नहीं है। हिंदी राजभाषा बनी। 15 साल तक अंग्रेजी चलाने का भी प्रावधान बना। हिंदी समृद्धि की जिम्मेदारी अनुच्छेद 351 के तहत केंद्र पर डाली गई। तब से 60 वर्ष हो गए। दक्षिण की राजनीति में राजभाषा हिंदी का विरोध जारी है। वे राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे के त्रिभाषा सूत्र को हिंदी थोपना’ बता रहे हैं। केंद्र के सकारात्मक आश्वासन के बावजूद केंद्र सरकार के कार्यालयों के हिंदी  नाम पट्ट पोते जा रहे हैं। वे विवेकपूर्ण विमर्श को तैयार नहीं हैं। 

भाषा प्रसार का इतिहास ध्यान देने योग्य है। मध्यकाल के अधिकांश बादशाह फारसी थोपना चाहते थे, लेकिन अरबी-फारसी के विद्वान भारत की भाषाई पहचान के लिए हिंदी शब्द ही प्रयोग करते थे। हिंदी की महफिल में फारसी और अरबी के शब्द याराना ढंग से मिलते रहे। ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्ताधर्ता अंग्र्रेजी भाषी थे। कंपनी के निदेशक मंडल ने एक पत्रक में अपना इरादा बदला और कहा कि ‘प्रयुक्त भाषा को वादी-प्रतिवादी वकील तथा सामान्य जन भी जाने।’ ऐसी भाषा हिंदी थी। यही तमिलनाडु तब मद्रास प्रेसीडेंसी था।

1937 में सी. राजगोपालाचारी के नेतृत्व वाली मद्रास सरकार ने हिंदी पढ़ाने का आदेश दिया था। आंदोलन हुआ तो आदेश वापस लिया गया, लेकिन हिंदी की आवश्यकता जताई गई। कोई भी भारतीय भाषा थोपी नहीं गई। अंग्रेज सत्ताधीशों ने अंग्रेजी को ही हर तरह से थोपा। भारतीय भाषाएं बोलने वाले अपमानित हुए। ताजे हिंदी विरोध का मूल स्वर अंग्रेजी थोपना है। तमिल की स्वीकार्यता स्वाभाविक है। वह भारतीय है, लेकिन अंग्रेजी की पक्षधरता अस्वाभाविक होने के साथ ही साम्राज्यवादी खंडहरों की शव उपासना है। 

भाषाएं थोपने से लोक स्वीकृति नहीं पातीं। उपयोगिता के कारण ही हिंदी का क्षेत्र लगातार बढ़ा है। भारत में सौ करोड़ से ज्यादा हिंदी भाषी हैं। काम चलाउ हिंदी बोलने वालों की संख्या लगभग ढाई करोड़ है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, दुबई, सऊदी अरब, ओमान, फिजी, म्यांमार, रूस, कतर, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका और पड़ोसी नेपाल में लाखों हिंदी भाषी हैं। हिंदी प्रसार का कारण उपयोगिता है। बेंगलुरु आइटी का गढ़ है। बेंगलुरु सहित पूरा कर्नाटक हिंदी भाषी युवाओं से भरा है। तमिलनाडु की नई पीढ़ी में भाषा को लेकर कमोबेश द्वंद्व नहीं है। हिंदी सिनेमा और धारावाहिक सर्वत्र लोकप्रिय हैं। उत्तर भारत में दक्षिण भारतीय फिल्मों के करोड़ों दर्शक हैं। ‘बाहुबली’ ने हिंदी में अरबों रुपये कमाए थे, लेकिन राष्ट्रीय भावना को न समझने वाले दल हिंदी थोपने का शोर मचाकर राजनीति चमकाते हैं।

2017 में भी बेंगलुरु और तमिलनाडु के राष्ट्रीय राजमार्गों से हिंदी नाम पट्ट हटाने का आंदोलन चला था। आरोप था कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार तमिल भावनाओं का सम्मान नहीं करती। तमिलनाडु भारतीय संस्कृति दर्शन का क्षेत्र रहा है। भारत में तमिल भावना का सम्मान है। अंग्र्रेजी की वरीयता तमिल भावनाओं से संगत नहीं है। 

तमिल साहित्य में संस्कृति का दर्शन है। सुब्रहमण्यम भारती प्रख्यात तमिल साहित्यकार व चिंतक थे। अंग्रेज अंग्रेजी को सभी भारतीय भाषाओं से श्रेष्ठ बताते थे। भारती ने लिखा, ‘तमिल में ऐसा जीवंत काव्य और दार्शनिक साहित्य है जो इंग्लैंड की भाषा से कहीं अधिक भव्य है।’ भारतीय साहित्य की श्रेष्ठता पर जोर देते हुए भारती ने लिखा, ‘मैं नहीं समझता कि यूरोप की कोई भाषा वल्लुवर के ‘कुरल’, कंबन की ‘रामायण’ और इलंगो की ‘शलप्पतिहारम’ जैसी रचनाओं जितना गर्व कर सकती है।’

तमिल चिंतक भारती अंग्रेजी से टकरा रहे थे, लेकिन तमिल राजनीति अपनी ही राजभाषा हिंदी के विरोध में अंग्रेजी की अंगरक्षक बन रही है। अभी राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर बहस जारी है। भारती के समय भी यह बहस थी। उन्होंने लिखा था कि ‘राष्ट्रीय शिक्षा का आधारभूत सिद्धांत है-पाठ्यक्रम में राष्ट्रभाषा को प्रमुखता प्रदान करना।’ भारती सांस्कृतिक दिग्गज थे। हिंदी जानते थे। 1908 में उन्होंने तिलक को पत्र लिखा, ‘मुझे पंडित कृष्ण वर्मा की चिट्ठी मिली है। कहा गया है कि हम मद्रास में चेन्नै जनसंगम के सौजन्य से हिंदी की कक्षा खोलें। हमने पहले से ही ऐसी कक्षा खोल रखी है। उम्मीद है कि भविष्य में हिंदी सीखने वालों की संख्या बढ़ेगी।’

भारती ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मूल मंत्र घोषित किया था कि ‘इतिहास ही नहीं, वरन सभी विषय राष्ट्रभाषा में पढ़ाए जाने चाहिए। राष्ट्रभाषा के अतिरिक्त अन्य किसी भाषा के माध्यम वाली शिक्षा को राष्ट्रीय शिक्षा कहना क्या पूर्ण रूप से अनुचित नहीं होगा? हिंदी प्रसार तमिल क्षेत्र की जरूरत रहा है। 1918 में महात्मा गांधी ने भी दक्षिणी राज्यों में हिंदी प्रसार के लिए ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति’ बनाई थी। समिति के महासचिव एस. जयराम के अनुसार हिंदी सीखने वालों की संख्या दोगुनी से ज्यादा बढ़ी है। 2009 में 2.68 लाख परीक्षार्थी थे और 2018 में 5.80 लाख।’ इस वर्ष यह संख्या छह लाख हो सकती है। आंकड़ों के अनुसार इसमें तमिलनाडु प्रथम है। तेलंगाना सहित आंध्र दूसरे क्रम पर है। कर्नाटक तीसरा है और केरल चौथा है। उद्योग व्यापार की जरूरतों, कला और संस्कृति आदि कारणों से हिंदी का प्रसार बढ़ा है। 

भाषाएं संस्कृति को प्रभावित करती हैं, संस्कृति व दर्शन से प्रभावित भी होती हैं। सांस्कृतिक दृष्टिकोण से सारी भारतीय भाषाएं एक जैसी हैं। तमिल कवि कंबन और संस्कृत कवि वाल्मीकि दोनों ने ही रामकथा लिखी है। दोनों का सांस्कृतिक मूल एक है। बेशक भारत बहुभाषिक राष्ट्र है लेकिन अमेरिकी विद्वान एमेन्यू ने उसे एक भाषी माना है। प्रत्येक मुख की अपनी भाषा है, लेकिन सबका अंतस एक है। तमिल, तेलुगु, कन्नड़ के बिंना हिंदी शृंगार अधूरा और हिंदी के बिना राष्ट्र की अभिव्यक्ति अधूरी। तमिल, कन्नड़ आदि से हिंदी का बैर नहीं।

हिंदी सबको जोड़ने वाला रससूत्र है। दक्षिण में हिंदी प्रयोग से राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी। हिंदी भाषी भी सजग नहीं जान पड़ते। हिंदी की तमाम बोलियों को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांगें उठती हैं। भोजपुरी हिंदी का ही प्रेमपूर्ण हिस्सा है। मधुरसा भोजपुरी के बिना हिंदी रसहीन होगी। अवधी या बृजभाषी भी ऐसी ही मांग करें तो राजभाषा हिंदी का गौरव कैसे बना रह सकता है? दक्षिण के मित्र भी विचार करें। अंग्रेजी का मोह छोड़ें। राजभाषा व अपनी भाषाओं से प्यार करें। नया भारत अपनी भाषाओं के अंगहार में ही शोभायमान होगा।

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं )

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