नई दिल्ली [ विजय कुमार चौधरी ] देश उन स्थितियों से दो-चार है जिनके बारे में कल्पना भी नहीं की जाती थी। सबसे बड़ी अदालत यानी उच्चतम न्यायालय पर उसी के कुछ सदस्यों ने उंगली उठा दी है। सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीशों चेलमेश्वर, मदन लोकुर, रंजन गोगोई और कुरियन जोसेफ की ओर से मीडिया के सामने आकर मुख्य न्यायाधीश की कार्यशैली पर प्रश्न खड़े करने के अप्रत्याशित घटनाक्रम ने देश के जनमानस को झकझोर कर रख दिया है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में सर्वोच्च न्यायपालिका की कार्यशैली पर इस तरह का प्रश्नचिन्ह पहली बार लगा है। चार न्यायाधीशों की ओर से उठाए गए मुद्दों में सबसे प्रमुख मुद्दा रोस्टर के फैसले के अधिकार से जुड़ा है। किस मामले को कौन सी पीठ देखेगी, यह फैसला लेने का विशेषाधिकार मुख्य न्यायाधीश के पास होता है। इसी कारण वह मास्टर ऑफ रोस्टर कहलाते हैैं।

मुख्य न्यायाधीश बराबर का दर्जा रखते हैैं- न कम न ज्यादा

मुख्य न्यायाधीश पर आरोप लगाया गया है कि संवेदनशील और अहम मामलों को कथित तौर पर पसंदीदा बेंच में भेजा जाता है और इसमें वरीयता के साथ-साथ रोस्टर की स्थापित परंपरा की भी उपेक्षा की जाती है। चार न्यायाधीशों के मुताबिक मुख्य न्यायाधीश बराबर का दर्जा रखते हैैं- न कम न ज्यादा और वह सभी बराबर न्यायाधीशों में केवल पहले नंबर पर आते हैैं।

चारों जजों ने मीडिया के सामने जो बात रखी, क्या उसे आदर्श तरीका कहा जा सकता है? 

अपनी प्रेस कांफ्रेंस में एक मामले (लूथरा) का उल्लेख करते हुए इन चारों न्यायाधीशों ने यह रेखांकित किया था कि ज्यादा विवरण इसलिए नहीं दे रहे हैं, क्योंकि इससे उच्चतम न्यायालय को शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी, लेकिन जिस तरह यह मसला उठाया गया और जैसी भाषा का इस्तेमाल किया गया वह जनमानस को चिंतित करने वाली है। विचारणीय प्रश्न यह है कि चार न्यायाधीशों ने जिस तरह इस मामले को मीडिया के माध्यम से जनता के बीच रखा, क्या उसे आदर्श तरीका कहा जा सकता है? क्या दूसरा उचित तरीका उनके पास नहीं था और अगर उन्होंने जनता की अदालत में आने का फैसला कर ही लिया था तो फिर सारे सुबूत सामने क्यों नहीं रखे और सब कुछ स्पष्ट क्यों नहीं किया? एक सवाल यह भी है कि क्या जनता अथवा दूसरी संवैधानिक संस्थाओं के माध्यम से न्यायाधीशों की समस्याओं का समाधान हो सकता है?

चारों जजों ने सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता को कठघरे में खड़ा किया

चार न्यायाधीश जिस तरह जनता के सामने आए वह उच्चतर न्यायपालिका की विश्वसनीयता को कठघरे में खड़ा करने वाला रहा। उन्होंने यह आरोप तो लगाया कि कुछ अहम मसले कथित तौर पर मनपसंद बेंच भेजे जा रहे थे, लेकिन वे यह स्पष्ट नहीं कर सके कि इन्हीं मामलों की सुनवाई करने में उनकी दिलचस्पी क्यों थी? यह आश्चर्यजनक है कि एक ही दिन पहले कोलेजियम की बैठक में दो जजों की नियुक्ति का फैसला होता है और अगले ही दिन मुख्य न्यायाधीश की कार्यशैली पर प्रश्न खड़ा कर दिया जाता है। किसी मतभेद अथवा असहमति की स्थिति में सरकार या फिर राष्ट्रपति के माध्यम से समस्या के निराकरण का प्रयास किया जाता या फिर अन्य उपलब्ध विकल्पों का सहारा लिया जाता तो शायद जो अप्रिय स्थिति बनी उससे बचा जा सकता था।

प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से समस्या का समाधान नहीं हो सकता
चार न्यायाधीशों ने प्रत्यक्ष तौर पर भले ही मुख्य न्यायाधीश की कार्यशैली पर सवाल उठाए हों, लेकिन परोक्ष तौर पर उन्होंने उन 20 न्यायाधीशों पर भी सवाल खड़ा कर दिया जो प्रेस कांफ्रेंस वाले दिन सुप्रीम कोर्ट में अपना काम निपटा रहे थे। इन चारों न्यायाधीशों को यह शुरू से पता होना चाहिए था कि वाया प्रेस कांफ्रेंस उनकी समस्या का समाधान नहीं हो सकता, बल्कि उलटे कुछ और सवाल उठ खड़े हो सकते हैैं और उनसे सुप्रीम कोर्ट की साख को चोट पहुंच सकती है। क्या चारों न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश की कार्यशैली से इतने आहत हो गए थे कि उन्होंने न्यायपालिका की गरिमा एवं विश्वसनीयता की कीमत पर भी अपनी समस्या सार्वजनिक करना मुनासिब समझा? नि:संदेह उच्चतम न्यायालय जैसी गरिमापूर्ण संस्था का प्रधान होने के नाते मुख्य न्यायाधीश से अपने सहयोगियों एवं विशेष रूप से वरिष्ठतम न्यायाधीशों को विश्वास में लेकर चलने की अपेक्षा की जाती है। चार वरिष्ठ न्यायाधीशों की ओर से मुख्य न्यायाधीश पर आरोप लगाने से यही प्रकट हो रहा है कि वह प्रधान न्यायाधीश की अपनी भूमिका का सही तरह निर्वाह करने में सफल नहीं रहे।

मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ पहले से ही अविश्वास का माहौल बना हुआ था

चार न्यायाधीशों की चिट्ठी से यह भी लगता है कि पहले से ही अविश्वास का माहौल बना हुआ था। न्यायपालिका के उच्चतम स्तर पर इस तरह की स्थिति उचित नहीं। मुख्य न्यायाधीश की तरफ से पहल कर समस्या से उबरने का प्रयास होना चाहिए था। आखिर उन्होंने उसी समय कोई चर्चा क्यों नहीं की जब चार न्यायाधीश अपनी बात लेकर उनके पास गए थे?

 संविधान के संरक्षणकर्ता के रूप में सर्वोच्च न्यायालय की महत्वपूर्ण भूमिका होती है

सरकार के तीनों अंगों में न्यायपालिका का एक अलग और अहम स्थान है। संविधान के संरक्षणकर्ता के रूप में सर्वोच्च न्यायालय की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। समय-समय पर उसने अपनी इस भूमिका को बखूबी निभाया है। कभी-कभी तो यह महसूस हुआ है कि अगर न्यायपालिका अपना काम प्रभावी ढंग से नहीं करती तो संवैधानिक प्रावधानों की उपेक्षा होती और भ्रष्टाचार के मामले तथा तमाम घोटाले दबे ही रह जाते। सरकार के दूसरे अंगों यथा कार्यपालिका, विधायिका की कार्यशैली में जिम्मेदारी एवं पारदर्शिता के सिद्धांत को लागू करने का काम उच्च न्यायपालिका द्वारा कारगर ढंग से निभाया गया है।

सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक ऐतिहासिक फैसलों से भारतीय संविधान की आत्मा को बचाया

सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक ऐतिहासिक फैसलों के माध्यम से भारतीय संविधान की आत्मा को बचाने का काम किया है, परंतु इसी जिम्मेदारी और पारदर्शिता के सिद्धांत को न्यायपालिका खुद अपनी कार्यप्रणाली में प्रभावी ढंग से लागू नहीं कर पा रही है। आखिर सुप्रीम कोर्ट जैसी पारदर्शिता अन्य संस्थाओं में चाहता है वैसी पारदर्शिता से वह खुद क्यों लैस नहीं होता? सरकार के किसी भी अंग की कार्यशैली में पारदर्शिता उसकी विश्वसनीयता को बढ़ाती है। पारदर्शिता के अभाव में संदेह का वातावरण पैदा होता है। चूंकि न्यायपालिका को कोई निर्देशित नहीं कर सकता इसलिए यह अपेक्षा की जाती है कि वह स्व-नियामक की भूमिका निभाएगी। चार न्यायाधीशों की ओर से की गई पहल का पटाक्षेप चाहे जिस भी रूप में हो, यह निर्विवाद है कि भारतीय न्यायप्रणाली के इतिहास में इसे एक काले धब्बे के रूप में याद किया जाएगा। आम लोगों के मन में यह सवाल कौंध रहा है कि क्या उच्चतम न्यायालय अपनी साख बचा पाने में सफल होगा? अभी तक भारतीय जनमानस उच्चतम न्यायालय के फैसलों और निर्देशों को अंतिम सत्य के रूप में देखता और मानता आया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जो विवाद उभरा वह चरम बिंदु होगा, न कि किसी बड़े विवाद की शुरुआत।


[ लेखक बिहार विधानसभा के अध्यक्ष हैैं ]