[ कैप्टन आर विक्रम सिंह ]: जम्मू-कश्मीर में भाजपा के पीडीपी से अलग होने और इस कारण वहां करीब तीन साल से चल रही साझा सरकार के गिर जाने पर कोई कुछ भी कहे, यह नहींं कहा जा सकता कि कश्मीर में लोकतंत्र को अवसर नहीं दिया गया। जम्मू-कश्मीर में वैचारिक रूप से विपरीत ध्रुवों पर स्थित दो राजनीतिक दलों की ओर से जनादेश को शिरोधार्य कर असंभव सी सरकार चलाई गई। इस दौरान जहां पीडीपी अपने दायरे से बाहर नहीं निकल सकी वहीं पाक प्रायोजित द्विराष्ट्रवादी शक्तियां हावी होती गईं।

कश्मीर जैसी समस्या का समाधान तब तक संभव नहीं दिखता जब तक हम उन द्विराष्ट्रवादी शक्तियों को सदा के लिए पराजित नहीं कर देते जो आज भी यह मानती हैैं कि हिंदू-मुसलमान दो अलग कौमें हैं। जिन्ना का द्विराष्ट्रवाद पाकिस्तान के अस्तित्व का आधार होने के साथ ही कश्मीर समस्या की जड़ भी है। इस जड़ को काटने की जरूरत है। कश्मीरी पंडितों से ज्यादा सौम्य एवं शांतिपूर्ण समाज की कल्पना मुश्किल है। उनका देश निकाला इसी द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को बल देने के लिए हुआ।

माना जाता है कि जिन्ना की सोच को 1946 के चुनाव नतीजों से ताकत मिली। पंजाब और सीमा प्रांत के मुस्लिमों ने तब पाकिस्तान के विचार का उतना समर्थन नहीं किया जितना उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमानों ने किया। मुस्लिम लीग को उप्र और बिहार में 83 प्रतिशत मुस्लिम सीटें मिलीं, जबकि पंजाब एवं सीमा प्रांत में 65 प्रतिशत सीटेंं। मुस्लिम लीग के समर्थकों का एक भाग पाकिस्तान चला भी गया। अब हम उन्हें वहां मुहाजिरों के रूप में विलाप करते देखते हैं। पाकिस्तान जिन्ना का मजहबी नहीं, बल्कि सियासी लक्ष्य था। वह खुद पाकिस्तान बनने के बाद पांच वक्त केनमाजी नहीं हुए, लेकिन जब मुल्क मजहब के नाम पर बन गया तो कट्टरता की राह पर बढ़ना उसकी मजबूरी बन गया।

बांग्लादेश के अलगाव के बाद पाकिस्तान में कट्टरता और तेजी से बढ़ी। कश्मीर 1947 में द्विराष्ट्रवाद की सोच से प्रभावित नहीं था, लेकिन मजहबी कट्टरता ने वहां विपरीत स्थितियां बना दीं। चूंकि भारत में खुलेआम द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की पैरोकारी नहीं की जा सकती इसलिए सेकुलरिज्म यानी धर्मनिरपेक्षता के मंच का इस्तेमाल किया जाता है। हमने देखा है कि सेकुलरिज्म के तर्क का इस्तेमाल धार्मिक समरसता, सहयोग, सामंजस्य के लिए नहीं, बल्र्कि हिंदुत्व का हौवा खड़ा करने के लिए अधिक किया गया। तमाम तथाकथित सेक्युलर मंचों से न तो पाकिस्तान के आतंकी एजेंडे की आलोचना होती है और न ही कश्मीरी पंडितों की वापसी कोई मुद्दा बनती है।

एक बार जब आपने द्विराष्ट्रवाद के समक्ष समर्पण कर पाकिस्तान स्वीकार कर लिया तब फिर धर्मनिरपेक्षता, हिंदू-मुस्लिम एकता जैसी बातें खोखली लगनी ही थीं। देश को द्विराष्ट्रवाद के भूत से अभी मुक्ति नहीं मिली है। जब पाकिस्तान के साथ आप सहअस्तित्व की बात करते हैं तो वैचारिक संकट का राक्षस आपके सम्मुख उपस्थित होता है। हमें यह पता ही नहीं चलता कि पाकिस्तान का औचित्य सिद्ध करने वाले दरअसल अपने देश में द्विराष्ट्रवादी एजेंडे को आगे बढ़ा रहे होते हैं।

तुष्टीकरण की नीति मूलत: द्विराष्ट्रवादी एजेंडे का प्रतिफल है। बांग्लादेश के उदय के बाद हमने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को अर्थहीन सिद्ध करने के लिए कुछ भी नहीं किया। मात्र रक्षात्मक लड़ाई लड़ते रहे। कश्मीर की जंग, कश्मीर की जमीन पर नहीं बल्कि द्विराष्ट्रवाद की सोच के खिलाफ लड़ी जाएगी। 1857 की आजादी की लड़ाई मुगल बादशाह के नाम पर र्हिंदू-मुसलमानों द्वारा एक साथ लड़ी गई थी। इसके बाद अंग्रेज शासकों से लड़ने आगे आए क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, अशफाकउल्ला आदि की भी कोई सांप्रदायिक सोच नहीं थी। गांधी जी ने जब असहयोग आंदोलन में तुर्की के खलीफा की बहाली के धार्मिक और गैरमुल्की मुद्दे को आंदोलन का एक बिंदु बनाया तो उनकी मंशा आजादी के आंदोलन में मुसलमानों की भागीदारी बढ़ाने की थी।

आजादी का संघर्ष तो हमारी साझा मुहिम थी। न कोई अलग हिंदू समस्या थी, न अलग मुस्लिम मसायल थे, लेकिन 1946 में चुनाव से पहले अपनी रैलियों में जिन्ना ने लोकतंत्र का इस्तेमाल धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए किया। 1930 के बाद जिन्ना का सांप्रदायिक एजेंडा सामने आया। इसके पहले भारत में सांप्रदायिकता की राजनीति नहीं हुई थी। जिन जिन्ना ने यह कहकर कि हिंदू-मुसलमान अलग कौमें हैं, पाकिस्तान बनवाया वही जिन्ना 11 अगस्त 1947 को पाकिस्तान एसेंबली में यह कहते पाए गए कि आप अपनी संस्कृति, अपने धर्म के मुताबिक पाकिस्तान में रहने और अपने मंदिरों-मस्जिदों में जाने के लिए आजाद हैं।

जाहिर है जिन्ना ने सिर्फ सत्ता के लिए मजहब का इस्तेमाल कर अलग देश बनवाया था। धार्मिक एवं जातीय धु्रवीकरण अक्षम और अयोग्य लोगों के लिए सत्ता के रास्ते खोल देता है। जिन्ना कोई सफल नेता नहीं सिद्ध हुए, लेकिन जब उन्होंने सांप्रदायिक डगर पकड़ी तो एक अलग देश बनवाने में सफल हो गए। यह हैरानी है कि कुछ लोगों को लगता है कि जिन्ना की फोटो एएमयू में लगी रहे तो हर्ज नहीं।

भारत के मुसलमानों को इस सवाल से रूबरू होना पड़ेगा कि कश्मीर की धर्म आधारित आजादी की मांग कहां तक जायज है? जम्मू और लद्दाख में आजादी की कोई मांग नहीं है। सिर्फ कश्मीर घाटी की आजादी की मांग अगर द्विराष्ट्रवादी एजेंडा नहीं तो और क्या है? आखिर इस द्विराष्ट्रवाद से लड़ेगा कौन? मुस्लिम समाज से आने वाले नेताओं का अपने देश में अकाल सा है।

भारत में राष्ट्रवादी मुस्लिम नेतृत्व को न उभरने देना द्विराष्ट्रवादी एजेंडे की सफलता है। रफी अहमद किदवई जैसे नेताओं के सीमित उदाहरण ही हैैं अपने यहां। हमारी राजनीति किसी मुस्लिम पृष्ठभूमि के कार्यकर्ता को तत्काल हिंदू-मुस्लिम चश्मे से देखने लगती है। मुस्लिमों को वोट बैंक समझने वाली राजनीति भी द्विराष्ट्रवाद की पोषक है। द्विराष्ट्रवाद के एजेंडे से राष्ट्रवादी मुस्लिम समाज ही लड़ सकता है। इंडोनेशिया के समान अपनी मूल संस्कृति पर गर्व करने वाले वर्ग को साए से निकलकर सामने आना है। वे ही तो द्विराष्ट्रवादी सोच के विरुद्ध देश के हरावल दस्ते बनेंगे, लेकिन उन्हें संगठित करने वाला कोई नहीं है। पता नहीं राजनीति के लिए उनकी उपयोगिता क्या है, लेकिन देश का काम उनके बगैर नहीं चल सकता। वे कहां हैं? उन्हें स्वयं ही संगठित होकर राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपनी आमद दर्ज करानी होगी। यह कब होगा, यह वक्त ही बताएगा। 

कश्मीर 1947 में द्विराष्ट्रवादी नहीं था। आज का कश्मीर सुविधाजीवी राजनीति की असफलता का परिणाम है। पाकिस्तान का धर्मसंकट यह है कि यदि वह कश्मीर को भारत का भाग मानता है तो वह अपने अस्तित्व के उस आधार को कमजोर करेगा, जिस पर वह खड़ा है। अगर भारत धार्मिक विभाजन स्वीकार करता है तो वह खुद अपने यहां सांप्रदायिक विभाजन के रास्ते खोल देगा। अनेकता में एकता हमारे अस्तित्व का आधारभूत सिद्धांत है। आधारभूत सिद्धांतों पर समझौते नहीं होते। द्विराष्ट्रवाद के रूप में एक नकली सिद्धांत पर पाकिस्तान का वजूद में आना एक ऐतिहासिक दुर्घटना है और अभी उसका अंत नहीं हुआ है। वह बहुलवाद की आड़ में अपने रास्ते तलाश रहा है।

[ लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व सदस्य हैैं ]