अभिनव प्रकाश

हाल में आईटी क्षेत्र में संभावित बड़े पैमाने पर छंटनी की खबरों ने भारत में रोजगार के उस मसले को फिर से ज्वलंत बना दिया जो पहले से ही चर्चा में है। हालांकि भारत में सरकारी आंकड़ों के हिसाब से बेरोजगारी दर हमेशा ही दस प्रतिशत से नीचे रही है और श्रम मंत्रालय के अनुसार 2015-16 में यह 3.7 फीसद थी, लेकिन सब जानते हैं कि देश में परोक्ष बेरोजगारी की दर कहीं अधिक है। देश में सर्वाधिक लोग कृषि क्षेत्र में कार्यरत हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश लोगों के काम करने या न करने से कृषि की उत्पादकता पर कोई खास असर नहीं पड़ता। ऐसे लोग कार्यरत होते हुए भी बेरोजगार ही हैं। कृषि क्षेत्र से बाहर अनौपचारिक क्षेत्र में बड़ी संख्या में लोग इसीलिए कार्यरत हैं, क्योंकि उनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं है। दरअसल भारत में व्याप्त बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण व्यापक स्तर पर उद्योगीकरण का अभाव है। दशकों की समाजवादी नीति और सरकारी उपक्रमों पर निर्भर उद्योगीकरण और आर्थिक विकास का रास्ता बुरी तरह विफल रहा है। 1960 और 1970 से ही आर्थिक सुधार, उदारीकरण और भूमंडलीकरण का रास्ता पकड़ कर दक्षिण पूर्व एशिया के देश दक्षिण कोरिया, ताइवान और चीन भारत से बहुत आगे निकल गए, जबकि 1950 के दशक तक वे आर्थिक रूप से भारत से पिछड़े थे। इनमें से खासतौर से चीन ने इस काल-खंड का सबसे अधिक लाभ उठाया और वह अपने आपको ‘विश्व की फैक्ट्री’ के रूप में स्थापित करने में सफल रहा। पिछले तीन दशकों में चीन में आर्थिक विकास जिस तीव्र गति से हुआ उसका इतिहास में कोई सानी नहीं है। इसके विपरीत भारत इस प्रक्रिया में देर से प्रवेश करने वाला देश है।
आज ‘मेक इन इंडिया’ जैसी योजनाओं के साथ भारत भले ही विश्व फैक्ट्री के रूप में चीन की जगह लेना चाहता हो, परंतु अब विश्व अर्थव्यवस्था के मानक बदल चुके हैं। 2008 के वित्तीय संकट से आई मंदी से विश्व अर्थव्यवस्था अभी तक उबरी नहीं है। इतना ही नहीं, पश्चिमी देश तेजी से संरक्षणवाद की तरफ बढ़ रहे हैं और अपनी कंपनियों को बाहरी देश में उत्पादन प्रक्रिया स्थांतरित करने अर्थात आउटसोर्सिंग पर रोक लगा रहे हैं। इसके साथ ही वे दूसरे देशों से आयात पर भी पाबंदी लगाने की कोशिश कर रहे हैं। चीन के उद्योगीकरण का सबसे बड़ा कारण था पश्चिमी कंपनियों का वहां कम लागत और सस्ते श्रमिक बल के कारण किया गया भारी निवेश ताकि वहां सस्ता समान बना कर मुख्यतौर पर यूरोप, अमेरिका के संपन्न बाजारों में बेचा जा सके। जाहिर है कि भारत के सामने यह रास्ता बंद हो चुका है। जिस तरह से अमेरिकी राष्ट्रपति वीजा और आउटसोर्सिंग पर लगाम कस रहे हैं उससे भारत की मौजूदा कंपनियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता दिख रहा है और आइटी सेक्टर में श्रमिकों की छंटनी उसका ही एक परिणाम है। इसके साथ ही दूसरी सबसे बड़ी चुनौती उत्पादन क्षेत्र में तेजी से हो रहे तकनीकी परिवर्तन और खासकर ऑटोमेशन से है।
पिछले कई दशकों से पूंजी निवेश की रोजगार सापेक्षता गिरती जा रही है। मतलब अगर पहले एक फैक्ट्री लगाने पर हजार लोगों को रोजगार मिलता था तो आज मात्र सौ-डेढ़ सौ लोग ही चाहिए होते हैं। ऑटोमेशन ने इस प्रक्रिया को और तेज कर दिया है। न सिर्फ साधारण प्रक्रिया ऑटोमेटिक होती जा रही है, बल्कि आइटी और वित्त जैसे क्षेत्रों जहां पर मानवीय मौजूदगी अनिवार्य समझी जाती थी, में भी ऑटोमेशन कृत्रिम इंटेलिजेंस के विकास के साथ अपनी जड़ें जमाता जा रहा हैं। मोदी सरकार की नीति है कि चीन में बढ़ती उत्पादन लागत के कारण कंपनियों को भारत में फैक्ट्री लगाने के लिए आकर्षित किया जाए, परंतु ऑटोमेशन के कारण अब इन कंपनियों को जैसे-जैसे सस्ते श्रम की आवश्यकता समाप्त होती जा रही है वैसे-वैसे वे पश्चिम के उन्नत देशों में वापस जा रही हैं, जो संस्थागत तौर पर मजबूत हैं, अनुसंधान और विकास का गढ़ हैं और जहां व्यापार करना सुगम हैं, कानून-व्यवस्था अच्छी है, संपत्ति के अधिकार सुरक्षित हैं और भ्रष्टाचार कम हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि भारत में रोजगार की स्थिति सुधरेगी नहीं।
ऑटोमेशन और कृत्रिम इंटेलिजेंस अभी भी अपनी प्रारंभिकअवस्था में ही है। 125 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में यह सोचना कि सरकार सबको सरकारी नौकरी दे देगी, बेमानी है। स्वरोजगार और उद्यमशीलता ही भविष्य का रास्ता है। 2016 में ही सिर्फ प्रौद्योगिकी क्षेत्र के 4,750 नए उद्यमों ने करीब एक लाख रोजगार सृजित किए। भारत में आज भी रोजगार के अवसरों से ज्यादा बड़ी समस्या रोजगार क्षमता के अभाव की है। भारत में भले ही हर साल चीन और अमेरिका से संयुक्त रूप से निकलने वाले इंजीनियरों से अधिक इंजीनियर निकलते हों, लेकिन आखिर उनमें से कितनों को अपने क्षेत्र का सही ज्ञान है? भारत में हर साल पढ़ाई पूरी कर नौकरी खोजने वालों में से कितनों के पास वह जरूरी कौशल है कि उन्हें कहीं नौकरी मिल जाए? यह समस्या आज के तेज प्रौद्योगिकी बदलाव के समय में अधिक गंभीर हो रही है। आखिर 1980 के दशक में स्कूल और कॉलेज में पढ़ने वालों में कितनों को पता था कि वे आइटी सेक्टर में काम करने वाले हैं? इंटरनेट का इस्तेमाल तो मुख्य रूप से नब्बे के दशक के मध्य में ही शुरू हुआ। आज की पीढ़ी दस-बीस साल बाद जिन क्षेत्रों में काम करेगी उन क्षेत्रों का अभी सृजन ही नहीं हुआ है। इसीलिए यह आवश्यक है कि भारत अपनी दयनीय शिक्षा व्यवस्था में सुधार करे और कौशल-विकास और रोजगार क्षमता निर्माण पर ध्यान दे। जिस देश में कक्षा पांच-छह के छात्र कक्षा एक की किताबें तक न पढ़ पाते हों उस देश में किसी को क्या रोजगार मिलेगा? देश की औद्योगिक और शिक्षा नीति को नए उभरते हुए क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। अनुमान लगाया जा रहा है कि वर्ष 2022 तक अकेले हरित ऊर्जा के क्षेत्र में प्रत्यक्ष रूप से 58,000 रोजगारों का सृजन होगा। जिस प्रकार से सरकार सौर ऊर्जा समेत हरित ऊर्जा पर जोर दे रही है उससे यह जाहिर है कि यह संख्या अधिक ही होगी। यह समय की मांग है कि प्रौद्योगिकी परिवर्तन के कारण इस प्रकार के उभरते हुए नए क्षेत्रों पर ध्यान दिया जाए और शिक्षा एवं कौशल विकास को भविष्य की जरूरत के हिसाब से ढाला जाए।
[ लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं ]