अमिताभ कांत
भारत की व्यापक और जटिल प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार को लेकर आजादी के बाद साठ के दशक से ही चर्चा होती रही है। हाल के समय में देश में दो प्रशासनिक सुधार आयोग 1996 और 2005 में गठित किए गए। दोनों आयोगों ने अपनी रिपोर्ट पेश कीं, लेकिन उनकी कई सिफारिशों पर अभी तक अमल नहीं हो सका है, किंतु पिछले तीन वर्षों में ऐसी कई नई पहल की गई हैं जिनसे पता चलता है कि सरकार प्रशासन में सुधार की गति को तेज करना चाहती है और प्रशासनिक व्यवस्था को अधिक कुशल, निर्णायक एवं समावेशी बनाना चाहती है। इनमें योजनाओं की परिणाम आधारित निगरानी, उच्चतम स्तर पर परियोजनाओं में तेजी लाना, राज्यों में प्रतिस्पर्धा की भावना पैदा करना, मंत्रालयों के एकांगी रूप से काम करने की प्रवृत्ति को तोड़ना और सरकार में प्रतिभाओं का समावेश करना शामिल है। पिछले तीन सालों में पहला महत्वपूर्ण सुधार यह हुआ है कि प्रशासनिक ध्यान इनपुट और आउटपुट से हटकर परिणाम पर केंद्रित हो गया है और उसकी समीक्षा और निगरानी स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा की जा रही है। आम आदमी को प्रक्रिया, कार्यप्रणाली, समितियों के गठन आदि से कोई लेना-देना नहीं होता, उसे तो बस परिणाम चाहिए। स्वाभाविक तौर से नागरिक केंद्रित और सहभागितापूर्ण शासन व्यवस्था सृजित करने के लिए पहला कदम यही हो सकता है कि व्यवस्था को परिणामोन्मुख बनाया जाए। जहां सड़क परियोजनाओं का आकलन क्षमता, गतिशीलता, गुणवत्ता और सुरक्षा के पैमाने से किया जा रहा है वहीं रेलवे के मामले में परिचालन अनुपात, यात्री और माल ढुलाई से होने वाली प्राप्ति, पूंजीगत व्यय, रेलवे स्टेशनों का पुनर्विकास और सुरक्षा उपायों को मुख्य पैमाना माना गया है। सुधारों के तहत ही पहली बार नीति आयोग द्वारा तैयार किया गया परिणाम आधारित बजट मुख्य बजट के साथ संसद में प्रस्तुत किया गया।
परिणाम आधारित समीक्षाएं कई क्षेत्रों में की जा रही हैं। कुल बजट परिव्यय में 72 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले 15 बुनियादी ढांचा और सामाजिक क्षेत्रों की परियोजनाओं की समीक्षा की गई है। समीक्षा के बाद कई निर्णय भी लिए गए। जैसे वित्त वर्ष 2017 में रेलवे के शेयर को 33 प्रतिशत से बढ़ाकर 35 प्रतिशत करने का निर्णय लिया गया ताकि 2032 तक इसे 50 प्रतिशत करने का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके। सांस्थानिक सुधार के तहत भारतीय चिकित्सा परिषद की भी समीक्षा की गई है। समिति ने काफी बदलावों की सिफारिश करते हुए एमसीआइ की जगह राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग बनाने का प्रस्ताव किया है ताकि इंस्पेक्टर राज की पुरानी व्यवस्था समाप्त हो और चिकित्सा शिक्षा में बड़े सुधार किए जा सकें।
दूसरी महत्वपूर्ण पहल है ‘प्रगति’ यानी सक्रिय शासन और समयबद्ध कार्यान्वयन। यह एक ऐसी पहल है जिसके तहत बुनियादी ढांचा और सामाजिक क्षेत्र की ऐसी महत्वपूर्ण परियोजनाओं पर प्रधानमंत्री के स्तर पर चर्चा और समीक्षा की जा रही है जिनके अमल में दिक्कतें आ रही हैं अथवा जिनके पूरा होने में देरी हो रही है। ‘प्रगति’ की कई महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं, जैसे यह चुनिंदा परियोजनाओं के सभी पक्षों को अपने विचार रखने और मुद्दों के समाधान के लिए मंच उपलब्ध कराता है, अधिकारियों को स्पष्ट और निश्चित समय-सीमा के भीतर पूरा किए जाने के लिए जिम्मेदारियां सौंपता है, केंद्र और राज्यों को एक ही मंच पर लाकर विकास परियोजनाओं में तेजी लाता है।
इससे मुख्य परियोजनाओं पर देश के सर्वोच्च अधिकारियों की निगरानी बनी रहती है। यह विभिन्न सरकारी एजेंसियों के बीच के गतिरोध को भी खत्म करता है। इसके जरिये सर्वोत्तम कार्यशैलियों को साझा करना भी संभव हो पाता है। अब तक 18 ‘प्रगति’ बैठकें हो चुकी हैं और 8.31 लाख करोड़ रुपये से अधिक की राज्य परियोजनाओं की गति को तेज किया गया है। रेलवे, राष्ट्रीय राजमार्ग, बिजली, कोयला, नागर विमानन से जुड़ी ये परियोजनाएं पिछले कई वर्षों से देरी से चल रही थीं। इस पहल से विभिन्न राज्यों की परियोजनाओं की गति में तेजी आई है। परियोजनाओं के अलावा, 16 मंत्रालयों/विभागों के 38 अग्रणी कार्यक्रमों, योजनाओं और शिकायतों की भी समीक्षा की गई है। उदाहरण के लिए नांगल बांधतलवाड़ा रेलवे लाइन 1981 से ही लंबित थी, लेकिन अब इसमें तेजी लाई गई है। ‘प्रगति’ के लागू होने के बाद से अफगानिस्तान में सलमा बांध, पटना में गंगा पर रेल-सह-सड़क सेतु, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण और भारतीय महापंजीयक के आधार नामांकन में काफी तेजी आई है। ‘प्रगति’ कई अर्थों में एक अनूठी व्यवस्था साबित हुई है। इसने केंद्र और राज्य के बीच दीवारों को तोड़ा है, परिणाम और लक्ष्य की ओर ध्यान केंद्रित किया है और कार्यान्वयन की निगरानी करने के लिए एक पारदर्शी मंच उपलब्ध कराया है।
तीसरा प्रमुख प्रशासनिक सुधार रैंकिंग के जरिये राज्यों और जिलों के बीच प्रतिस्पर्धा की भावना जगाने का है। व्यवसाय करने की सुगमता की दृष्टि से राज्यों की रैंकिंग के फलस्वरूप राज्य सरकारों ने मूलभूत सुधार करने शुरू कर दिए हैं। प्रतिस्पद्र्धा के दबाव ने तेलंगाना, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे नए राज्यों को तेजी से आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया है। स्वच्छ भारत पहल के तहत स्वच्छता की दृष्टि से जिलों की रैंकिंग का भी बड़ा प्रभाव पड़ा है। इसने नगर निकायों के स्तर पर बदलाव को प्रोत्साहित किया है।
चौथा मुख्य सुधार सचिवों के समूहों का गठन करना रहा है। पिछले वर्ष विभिन्न विषयों पर आठ ‘सचिव समूहों’ का गठन किया गया था। इन समूहों को संयुक्त सचिवों के इसी प्रकार के समूहों द्वारा सहायता प्रदान की गई। इन समूहों का एक अनूठा पहलू यह था कि इनमें ऐसे वरिष्ठ अधिकारियों को शामिल किया गया जिनके विभाग इन विषयों से सीधे संबंधित नहीं थे। इसने रचनात्मक विचारों को प्रोत्साहित किया। इस वर्ष इन समूहों को अपनी सिफारिशों को कार्यान्वित कराने का दायित्व सौंपा गया है।
जब तक मनोवृत्तियां नहीं बदलतीं तब तक सुधार संभव नहीं होता। नए चिंतन और नवोन्मेषी विचारों को लाने के लिए अनेक पहल की रूपरेखा तैयार की गई है। संसाधनों के आवंटन पर ध्यान केंद्रित करने वाले योजना आयोग को समाप्त करने, 1175 पुराने कानूनों को समाप्त करने, रेल और संघीय बजट को मिलाने जैसे सभी कदम भारत को व्यवसाय करने की दृष्टि से सरल और सुगम स्थान बनाने और शासन की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए उठाए गए हैं।
वार्षिक बजट में योजना और गैर-योजना व्यय के बीच भेद को समाप्त करने जैसे उपायों से राजस्व घाटे को कम करने की बजाय पूंजीगत व्यय को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलेगी और इसके परिणामस्वरूप राजकोषीय घाटे को कम करने की प्रक्रिया में तेजी आएगी। सुधारों के तहत ही निजी क्षेत्र के प्रतिभाशाली युवाओं को सरकार के माध्यम से सार्थक बदलाव लाने का मौका देने की भी शुरुआत की गई है। ऐसे अनेक युवाओं ने डीजिधन मेलों में अपना योगदान दिया था। हालांकि इन सभी सुधारों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देने में समय लग सकता है, लेकिन उनकी दिशा सही और गति तेज है। प्रशासनिक सुधारों की इस सतत प्रक्रिया का ही यह परिणाम है कि पिछले तीन वर्षों में बिना किसी आडंबर के काफी कुछ हासिल किया गया है। स्पष्ट है कि इस प्रक्रिया को जारी रखना होगा।
[ लेखक नीति आयोग के सीईओ हैं और इस लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ]