डॉ. जगदीप सिंह। लोकसभा चुनाव के परिणामों ने दल बदलने वाले नेताओं के सामने मुश्किल खड़ी कर दी है। खासतौर पर हार का स्वाद चखने वाले ऐसे नेता अब अपने भविष्य को लेकर मंथन करने के क्रम में हैं। एक तो दल बदलने से लाभ नहीं मिला, वहीं अब पुरानी पार्टी में लौटने की गुंजाइश भी समाप्त है। वैसे अब ऐसे नेताओं के जीतने की संभावना भी कम होती जा रही है। इस बार लोकसभा चुनाव से ठीक पहले दलबदल करने वाले नेताओं को जनता ने समर्थन नहीं दिया। चुनाव से पहले हर नेता भाजपा के टिकट को जीत की गारंटी मान रहा था। यही कारण रहा कि बड़ी संख्या में दूसरे दलों के नेता भाजपा में शामिल हुए, मगर टिकट पाने वाले ऐसे 25 में 20 नेता लोकसभा चुनाव हार गए।

भाजपा का टिकट नहीं मिलने पर कांग्रेस में शामिल होने वाले नेताओं का हाल भी कुछ अलग नहीं रहा। कांग्रेस का टिकट पाने वाले छह में से पांच नेता चुनाव हार गए। दल बदलना नेताओं के लिए नई बात नहीं है। नेता कई कारणों मसलन-टिकट न मिलने, दूसरी पार्टी में जीत की संभावना अधिक दिखने आदि से पार्टी बदलते हैं। इस वजह से देश में कई बार राजनीतिक अस्थिरता का दौर देखा गया है। सरकारें प्रशासन पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय खुद का अस्तित्व बचाने पर ज्यादा जोर देती रही हैं। पिछली सदी के सातवें दशक में ‘आया राम-गया राम’ का जुमला विधायकों के लगातार दलीय निष्ठा बदलने की पृष्ठभूमि में ही बना था।

भारतीय राजनीति में दलबदल का इतिहास काफी पुराना है। पहले और चौथे लोकसभा चुनाव के बीच दो दशक की अवधि में दलबदल के 542 मामले सामने आए थे। दलबदलू नेताओं के लिए सबसे अच्छा 1977 का आम चुनाव रहा था। आपातकाल के ठीक बाद हुए इस चुनाव में इंदिरा गांधी से मुकाबले के लिए कई राजनीतिक ताकतों ने हाथ मिलाया। तब चुनाव में उतरे 2,439 उम्मीदवारों में से 6.6 प्रतिशत यानी कुल 161 दलबदलू थे। इनकी सफलता दर 68.9 प्रतिशत थी, जो अब तक का उच्चतम स्तर है।

1980 के लोकसभा चुनाव में कुल 4,629 उम्मीदवारों में से 377 यानी 8.1 प्रतिशत दलबदलू थे। इनमें से 20.69 प्रतिशत सफल हुए। 1984 का साल कांग्रेस में आने वाले दलबदलुओं के लिए अच्छा साबित हुआ। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के प्रति सहानुभूति की लहर चल रही थी। तब कांग्रेस ने 32 दलबदलू उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें 26 को जीत मिली। 1984 में भाजपा ने अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ा। तब पार्टी से 62 दलबदलू उम्मीदवार लड़े थे, लेकिन किसी को भी जीत नहीं मिली।

अगर 2004 के लोकसभा चुनावों की बात करें तो कुल उम्मीदवारों में दलबदलू उम्मीदवारों का हिस्सा 3.9 प्रतिशत था और उनकी सफलता दर 26.2 प्रतिशत थी। 2014 में भाजपा के टिकट पर लड़ने वाले दलबदलू उम्मीदवारों की सफलता दर 66.7 प्रतिशत थी, वहीं कांग्रेस के लिए यह आंकड़ा 5.3 प्रतिशत था। 2019 के लोकसभा चुनाव में कुल 8,000 से अधिक उम्मीदवारों में अलग-अलग दलों के 195 दलबदलू उम्मीदवार मैदान में थे। इनमें से केवल 29 को ही जीत मिली। तब भाजपा के कुल उम्मीदवारों में 5.3 प्रतिशत दलबदलू थे, जिनमें से 56.5 प्रतिशत को जीत मिली। कांग्रेस के कुल उम्मीदवारों में 9.5 प्रतिशत दलबदलू थे, जिनमें से जीत सिर्फ पांच प्रतिशत को मिली। इस प्रकार 2019 के आम चुनावों में दलबदलू नेताओं की सफलता दर 15 प्रतिशत से कम रही, जबकि 1960 के दौर में औसतन लगभग 30 प्रतिशत दलबदलू नेता चुनाव जीत रहे थे।

ऐसा नहीं है कि इसे रोकने के लिए उपाय नहीं किए गए हैं। देश में एक मजबूत दलबदल विरोधी कानून है, जो नेताओं को दलीय निष्ठा बदलने से रोकता है। हालांकि यह कानून उस स्थिति में प्रभावी नहीं रह जाता, जब किसी दल से दो तिहाई जनप्रतिनिधि टूटकर किसी अन्य दल में शामिल होते हैं। ऐसी स्थिति में राजनीतिक दल के सदस्य सांसदी या विधायकी से अयोग्य होने से बच जाते हैं। कानून में कमी यह है कि अयोग्यता से राहत दलबदल के पीछे के कारण के बजाय सदस्यों की संख्या पर आधारित है।

इसका अंतरदलीय लोकतंत्र पर प्रभाव पड़ता है और दल से जुड़े सदस्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती है। लोकतंत्र में संवाद का अत्यंत महत्व है। जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन ही लोकतंत्र है। लोकतंत्र में जनता ही सत्ताधारी होती है, उसकी अनुमति से शासन होता है, उसकी प्रगति ही शासन का एकमात्र लक्ष्य माना जाता है, परंतु यह कानून जनता का नहीं, बल्कि दलों के शासन की व्यवस्था अर्थात ‘पार्टी राज’ को बढ़ावा देता है।

दुनिया के कई परिपक्व लोकतंत्रों में दलबदल विरोधी कानून जैसी कोई व्यवस्था नहीं है। उदाहरण के लिए इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि देशों में यदि जनप्रतिनिधि अपने दलों के विपरीत मत रखते हैं या पार्टी लाइन से अलग जाकर वोट करते हैं, तो भी वे उसी पार्टी में बने रहते हैं, परंतु भारत में कोई नेता पार्टी लाइन से अलग, किंतु महत्वपूर्ण विचार रखे तो भी उसे नहीं सुना जाता। इन सभी कारणों से भारतीय राजनीति में दलबदल एक बड़ी समस्या के रूप में उभरा है।

लोकतंत्र में जनता मतदान द्वारा किसी विशेष व्यक्ति को संसद या विधानसभा के लिए अपने प्रतिनिधि के रूप में चुनती है, लेकिन जब वह धन और पद के लालच में किसी अन्य दल में चला जाता है तो उसके विश्वास को ही तोड़ता है। आज की परिस्थितियों को देखते हुए दलविहीन लोकतंत्र ही भारत के लिए बेहतर है। ऐसा लोकतंत्र जिसका आदर्श समाज हो तथा जिसमें विरोधी और प्रतियोगिता-प्रतिस्पर्धा का स्थान व्यापक लोक कल्याण से प्रेरित सहयोग एवं सर्वोदय की भावना ने लिया हो।

(लेखक राजनीतिशास्त्री हैं)