नई दिल्ली (विवेक काटजू)। भारत और चीन ने तनाव घटाने के लिए हाल में कई कदम उठाए हैं। भारत सरकार ने अपने मंत्रियों और अधिकारियों को हिदायत दी है कि वे दलाई लामा के निर्वासन के 60 वर्ष पूरे होने के अवसर पर होने वाले आयोजनों में शामिल न हों। मालदीव में भारत के हस्तक्षेप की संवनाओं पर चीन की सख्त चेतावनी पर भी भारत ने कोई कड़ी प्रतिक्रिया नहीं दी। हालांकि इस मामले में चीन ने भारत का सीधे तौर पर नाम नहीं लिया था, लेकिन उसके बयान के निहितार्थ एकदम स्पष्ट थे। इसके उलट हाल में चीनी विदेश मंत्री ने कहा कि उनका देश भारत के साथ बेहतर रिश्ते चाहता है। इसके बाद ऐसी खबरें आईं कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज अगले महीने चीन का दौरा करेंगी। भारत को चीन से रिश्ते सुधारने के साथ ही अपनी चिंताओं को सलीके से उठाना होगा। डोकलाम विवाद के बाद चीन से तनाव में कमी आना अच्छी बात है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि दोनों देशों के बीच की बुनियादी समस्याओं का कोई हल निकलता नहीं दिख रहा और वह भी ऐसे समय जब शी चिनफिंग के आजीवन राष्ट्रपति बनने बाद शी चीन के और भी आक्रामक होने का अंदेशा है। वैश्विक नेतृत्व संभालने की चीन की हसरतें और परवान चढ़ेंगी। इसके कोई संकेत नहीं हैं कि चीन परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी में भारत की राह में रोड़े अटकाना बंद करेगा या संयुक्त राष्ट्र द्वारा मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने के प्रस्ताव पर वीटो करने से बाज आएगा। वह चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपीइसी को लेकर भारतीय आपत्तियों पर भी गौर नहीं करेगा, जो चीन की पाकिस्तान नीति की आधारशिला बन चुका है। ऐसे में भारत को चीन की चुनौती का तोड़ निकालने के लिए एशिया और दुनिया की तमाम बड़ी ताकतों से लगातार मेलजोल बढ़ाने की नीति पर भी काम करना होगा।

चीन के उलट पाकिस्तान के साथ तनाव में कहीं कोई कमी नहीं आ रही है। जम्मू-कश्मीर में सीमा पर भारत को भड़काने की अपनी हरकतों से वह बाज नहीं आ रहा है। वह इस राज्य में मानवाधिकारों के कथित उल्लंघन को लेकर भी भारत को घेरने के अपने एजेंडे पर जुटा हुआ है। भारत के खिलाफ आतंक को प्रायोजित करने की अपनी नीति पर कायम रहने के साथ ही उसने एक नया मोर्चा खोल दिया है। यह मोर्चा है अपने राजनयिकों के उत्पीड़न का। अपनी करतूतों को छिपाने के लिए वह उल्टे भारत पर दिल्ली में तैनात अपने राजनयिकों की मुश्किलें बढ़ाने की तोहमत मढ़ रहा है। भारत में अपने राजनयिकों को पेश आ रही कथित मुश्किलों का ब्योरा मांगने के लिए उसने अपने उच्चायुक्त को इस्लामाबाद तलब किया है। इस मामले में पाकिस्तान के असली चेहरे को उजागर करने की जरूरत है। भारतीय राजनयिकों के साथ व्यवहार को लेकर पाकिस्तान ने कभी भी वियना समझौते का पालन नहीं किया। वह भारतीय राजनयिकों और उनके परिवारों को लगातार तंग करता आया है। यहां तक कि वह राजनयिकों को उनके पेशेवर दायित्वों को पूरा करने में भी खुलेआम बाधा डालता है। राजनयिकों के परिवारों को हतोत्साहित करना भी उसकी नीति का हिस्सा है। पाकिस्तानी खुफिया तंत्र के लोग भारतीय राजनयिकों और उनके परिवार के सदस्यों का अक्सर आक्रामक तरीके से पीछा करते हैं। जब राजनयिक बाजार या अन्य किसी सार्वजनिक जगह जाते हैं तो पाकिस्तानी जासूस उनके पीछे लग जाते हैं। वे दुकानों और रेस्तरां में भी उनका पीछा करना नहीं छोड़ते। ऐसी घटनाएं भी हुईं जब राजनयिकों के घर में तोड़-फोड़ हुई। इसके अलावा भीड़ द्वारा धक्कामुक्की और पिटाई के वाकये भी देखने को मिले।

सभी देश अपने राजनयिकों को लेकर खासी एहतियात बरतने के साथ ही यह सुनिश्चित करते हैं कि वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत प्रावधानों के अनुरूप ही रहें और किसी भी अस्वीकार्य गतिविधि में लिप्त न हों। राजनयिक भी यह जानते हैं कि कुछ अवसरों पर वे निगरानी के दायरे में होंगे और शायद उनके फोन भी टेप किए जाएं ताकि यह पता लग सके कि वे किन लोगों के संपर्क में हैं। राजनयिक ऐसी स्थितियों के साथ रहने के अभ्यस्त हो जाते हैं, लेकिन पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियां अंतरराष्ट्रीय लक्ष्मण रेखाओं को भी लांघ जाती है और अक्सर उनके तौर-तरीके अशिष्ट और कई बार तो हिंसक भी होते हैं। पारस्परिकता अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का आधार होती है। ऐसे में अगर कोई देश राजनयिकों के साथ अशिष्टता करते हुए सामान्य शिष्टाचार से भी पेश नहीं आता तो उन राजनयिकों का देश भी वही कर सकता है। भारत ने हमेशा पाक राजनयिकों के साथ अच्छा बर्ताव किया है, क्योंकि वह नैतिक व्यवहार में विश्वास करता है। इसके चलते नई दिल्ली में पाकिस्तानी राजनयिकों को हमेशा इस्लामाबाद में तैनात भारतीय राजनयिकों से बेहतर परिवेश मिला है, लेकिन मेरा अनुभव यही कहता है कि पाकिस्तान ने हमेशा भारत के इस रवैये का फायदा उठाया है।

अगर भारत कभी पाकिस्तान के राजनयिकों पर कुछ सख्ती करता भी है तो वह तुरंत शिकायती लहजे में दुष्प्रचार पर आमादा हो जाता है जैसा कि वह अभी कर रहा है। वह इन तथ्यों की अनदेखी कर रहा कि उसके जासूस कैसे भारतीय राजनयिकों की कारें तक रुकवाते हैं और उसने कैसे इस्लामाबाद में बन रहे भारतीय उच्चायोग परिसर के निर्माण कार्य में अवरोध पैदा किए? पाक हमेशा यह उम्मीद करता है कि जब वह यह दुष्प्रचार करे कि भारत में उसके राजनयिकों के साथ सही सुलूक नहीं किया जा रहा तो भारतीय समाज और मीडिया में तमाम आवाजें उसके पक्ष में लामबंद होकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल लें और सवाल करें कि पाकिस्तानी राजनयिकों के साथ बेहतर तरीके से क्यों नहीं पेश आया जा रहा? ध्यान रहे कि भारतीय एजेंसियां पाकिस्तानी राजनयिकों को भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों के साथ मेल-मुलाकात करने से नहीं रोकतीं। पाकिस्तान में ऐसा नहीं है। वहां आइएसआइ ने तमाम पाकिस्तानियों पर भारतीय राजनयिकों से न मिलने की बंदिश लगाई हुई है। केवल ऊंचे और बड़े ओहदे वाले ही इस बंदिश से मुक्त हैं। वहां का आम आदमी खुफिया एजेंसियों की मंजूरी के बाद ही भारतीय राजनयिकों से मिल सकता है। परंपरागत रूप से भारत राजनयिकों के साथ व्यवहार सहित पाकिस्तान के साथ तमाम मसलों को ज्यादा तूल देने से बचता आया है, क्योंकि वह नहीं चाहता कि द्विपक्षीय संबंधों में कोई और पक्ष दखल दे। अब यह स्पष्ट है कि मोदी सरकार इस रुख को तिलांजलि दे रही है। अपने राजनयिकों के उत्पीड़न पर भारत ने आखिरकार आवाज उठाई कि उन्हें क्या कुछ नहीं झेलना पड़ रहा? अतीत में भारत ने जब भी नई दिल्ली में पाकिस्तानी राजनयिकों पर दबाव बढ़ाया है तो इसका यही नतीजा देखने को मिला कि इस्लामाबाद में भारतीय राजनयिकों को भी कुछ समय के लिए राहत मिली। पाकिस्तान अपने उच्चायोग के दर्जे को घटाने या राजनयिकों के परिवार को वापस बुलाने को लेकर चाहे जो फैसला करे, भारत को अपने रुख में नरमी नहीं लानी चाहिए। दीर्घावधि में यह रवैया बहुत कारगर होगा।

(पाकिस्तानी मामलों के जानकार लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)

(विवेक काटजू)