[ संजय गुप्त ]: असम में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और उसकी निगरानी में तैयार किए गए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी के अंतिम मसौदे के प्रकाशन के बाद तृणमूल कांग्रेस सहित कई विपक्षी राजनीतिक दलों ने जिस तरह राजनीतिक हंगामा खड़ा किया वह हैरान करने वाला भी है और यह बताने वाला भी कि राजनीतिक दल वोट बैंक की सस्ती राजनीति के लिए किस हद तक जा सकते हैं। असम में अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान के लिए नागरिकों का रजिस्टर बनाने की प्रक्रिया राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते समय किए गए एक समझौते का हिस्सा थी। इस समझौते के तहत मार्च 1971 के बाद बांग्लादेश से आए लोगों की पहचान करनी थी। यह प्रक्रिया इस समझौते का एक अहम हिस्सा होने के बाद भी उस पर किसी सरकार ने ध्यान नहीं दिया।

असम की एक के बाद एक सरकारों के साथ केंद्रीय सत्ता की भी हीलाहवाली के चलते यह मामला सुप्रीम कोर्ट गया। उसने असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तैयार करने का निर्देश दिया। 2016 में असम में भाजपा सरकार बनने के बाद यह रजिस्टर तैयार करने की प्रक्रिया आगे बढ़ सकी। इसकी निगरानी सुप्रीम कोर्ट ने की।

1971 में बांग्लादेश की आजादी के लिए हुए युद्ध के बाद जब माना जा रहा था कि वहां से घुसपैठ थम जाएगी तब वह पहले की तरह कायम रही।

बांग्लादेश जब पूर्वी पाकिस्तान के रूप में पाकिस्तान का हिस्सा था तब भी वहां से असम और दूसरे पूर्वोत्तर राज्यों में घुसपैठ होती थी। कायदे से बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रवेश के कारण असम के जनसांख्यिकी स्वरूप में हो रहे परिवर्तन को लेकर वहां के राजनीतिक दलों के कान खड़े होने चाहिए थे, लेकिन ऐसा इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि अधिकांश राजनीतिक दलों ने घुसपैठियों को अपने वोट बैंक के रूप में देखा। इनमें असम में लंबे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस सबसे आगे रही। यह ठीक है कि कांग्रेस ने अपना रुख बदलकर यह कहा कि वह विदेशी नागरिकों की पहचान के पक्ष में है और एनआरसी तो उसकी ही पहल है, लेकिन समझना कठिन है कि चंद दिनों पहले तक वह इस मसले पर सरकार को क्यों कठघरे में खड़ा कर रही थी?

क्या वह यह भूल गई थी कि बतौर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था कि भारत पूर्वी पाकिस्तान से आए लोगों के बोझ को सहन नहीं कर सकता और उन्हें अपने देश लौटना ही होगा? कांग्रेस को यह याद रहना चाहिए था कि अवैध घुसपैठियों को लेकर असम छात्र संगठन ने जो व्यापक आंदोलन छेड़ा उसके चलते यह राज्य करीब दस साल तक अशांत रहा। असम को अशांति से बचाने के लिए ही राजीव गांधी ने 1985 में असम छात्र संगठन के साथ समझौता किया था।

राजनीतिक लाभ के इरादे से प्रारंभ में कांग्रेस ने एनआरसी पर आपत्ति जताकर मुसीबत ही मोल ली। उसकी यह मुसीबत तब नजर भी आई जब राज्यसभा में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने एनआरसी पर कांग्रेस के रुख के कारण उसे कठघरे में खड़ा किया। चूंकि उस दौरान कांग्रेसी सांसदों को कोई जवाब नहीं सूझा इसलिए उन्होंने हंगामा खड़ा करना बेहतर समझा।

यह निराशाजनक है कि जहां कांग्रेस को यह तय करने में समय लगा कि एनआरसी पर उसका क्या रवैया होना चाहिए वहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आनन-फानन में उसके खिलाफ खड़े होने में ही अपनी भलाई समझी। उन्होंने यह तक कह डाला कि एनआरसी भाजपा की सियासत का नतीजा है और इसके चलते देश में रक्तपात और गृहयुद्ध हो सकता है। हालांकि बाद में वह अपने इस धमकी भरे बयान से किनारा करती दिखीं, लेकिन वह जिस तरह इस मसले को तूल दे रही हैं उससे यह साफ हो जाता है कि वह देश से ज्यादा वोट बैंक की खतरनाक राजनीति को महत्व दे रही हैं।

यह वही ममता बनर्जी हैं जिन्होंने 2005 में लोकसभा में बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ का मुद्दा बहुत जोर से उठाया था। इस मसले पर जब उन्हें बोलने का मौका नहीं मिला था तो उन्होंने पीठासीन अधिकारी पर कागज फेंकने के साथ अपने इस्तीफे की भी घोषणा कर दी थी। तब उनका आरोप था कि वाम मोर्चा सरकार बांग्लादेशी घुसपैठियों को बढ़ावा दे रही है। ध्यान रहे तब पश्चिम बंगाल के वाम दलों पर ऐसे आरोप लगते ही रहते थे कि वे बांग्लादेशी घुसपैठियों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। एनआरसी पर तृणमूल कांग्रेस समेत कुछ अन्य दलों का रवैया तो भाजपा को राजनीतिक लाभ ही देगा, क्योंकि आम जनता इस पक्ष में नहीं हो सकती कि बांग्लादेशी घुसपैठियों की पैरवी की जाए। समझना कठिन है कि कांग्रेस की ओर से अपना रुख स्पष्ट करने के बाद तृणमूल कांग्रेस और अन्य वे दल क्या करेंगे जो एनआरसी पर हाय-तौबा मचा रहे हैैं?

राजनीतिक दल यह समझें तो बेहतर कि असम के साथ-साथ अन्य राज्यों में भी बांग्लादेश से अवैध तरीके से आए लोगों की पहचान होनी चाहिए। यह इसलिए जरूरी है, क्योंकि बीते चार दशक में तमाम बांग्लादेशी असम और पश्चिम बंगाल में घुसकर धीरे-धीरे देश के दूसरे हिस्सों में भी जा बसे हैं। वे झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश के साथ-साथ दिल्ली, राजस्थान और महाराष्ट्र में भी फैल गए हैं।

एनआरसी पर वोट बैैंक की राजनीति कर रहे दल इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि बांग्लादेशी घुसपैठियों पर भारत की यह स्थापित नीति रही है कि गैर-कानूनी ढंग से आए लोगों को देश से बाहर जाना ही होगा। ऐसे लोग शरणार्थी नहीं कहे जा सकते। शरणार्थी की जो परिभाषा संयुक्त राष्ट्र ने की है उसके हिसाब से बांग्लादेश के लोग घुसपैठिये ही कहे जाएंगे। बांग्लादेश से लाखों लोग अवैध रूप से भारत की सीमा में घुस आए हैं, इसे दोनों देशों की सरकारें अच्छी तरह जानती हैं और इसके तमाम प्रमाण भी हैं। राजनीतिक दलों को यह समझने में देर नहीं करनी चाहिए कि भारत सरीखा विशाल आबादी वाला देश अपने संसाधन दूसरे देश से अवैध रूप से आए लोगों को मुहैया करने की स्थिति में नहीं।

एनआरसी के मसौदे में जिन 40 लाख लोगों को असम का नागरिक नहीं माना गया है उनके खिलाफ फिलहाल कोई कार्रवाई नहीं होने जा रही है। इसे असम के साथ केंद्र सरकार ने भी स्पष्ट किया है और सुप्रीम कोर्ट ने भी। बावजूद इसके सस्ती राजनीति के तहत ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जैसे 40 लाख लोगों को निकालने की तैयारी कर ली गई है। यह भी एक दुष्प्रचार है कि 40 लाख लोगों में केवल मुसलमान हैं।

सच यह है कि इनमें हिंदू भी हैं। इन सभी को अपनी नागरिकता साबित करने का अवसर दिया जाएगा। एनआरसी में पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के परिजनों का नाम भी नहीं है। चूंकि कुछ पूर्व सैनिकों, पुलिसकर्मियों और यहां तक कि एनआरसी तैयार करने की प्रक्रिया में शामिल रहे लोगों का भी नाम एनआरसी के मसौदे में नहीं है इसलिए ऐसा लगता है कि कहीं कोई चूक भी हुई है। जो भी हो, राजनीतिक दलों को हाय-तौबा मचाने की जरूरत बिल्कुल भी नहीं है।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]