विजय क्रांति। अमेरिकी संसद द्वारा पारित तिब्बत और चीन से जुड़ा नया विधेयक अंतरराष्ट्रीय राजनीति में तिब्बत के मुद्दे को एक नई एवं सार्थक दिशा दे सकता है। ‘तिब्बत-चीन विवाद को सुलझाने के लिए प्रोत्साहन संबंधी कानून (2024)’ पर अब केवल अमेरिकी राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने शेष हैं। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद इस पर पूरी तरह अमल करना भावी अमेरिकी प्रशासन के लिए कानूनी बाध्यता बन जाएगा।

यह कानून भले ही तिब्बत के निर्वासित शासक दलाई लामा और चीन सरकार को बातचीत के जरिये परस्पर विवाद सुलझाने में सहयोग करने वाले एक दोस्ताना कदम जैसा लगता हो, लेकिन इसकी भाषा से समझ आता है कि यह तिब्बत को 73 साल से चले आ रहे चीनी उपनिवेशवादी कब्जे से मुक्ति दिलाने के अभियान की घोषणा है। अमेरिका की इस नई पहल में भारत जैसे उन एशियाई देशों के लिए भी नई संभावनाओं के द्वार खुलने के आसार बनते दिख रहे हैं, जिनकी राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वभौमिक हितों पर तिब्बत पर चीनी अवैध कब्जे के बाद खतरे बढ़े हैं।

अमेरिका की राजनीति में भले ही रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स दोफाड़ हों, मगर उक्त कानून पर दोनों दलों में सर्वसम्मति का भाव है और इसीलिए दोनों दलों के सांसद दलाई लामा से मिलने आ रहे हैं। इस कानून में तिब्बत को लेकर बेहद आक्रामक नीति अपनाने वाले राष्ट्रपति शी चिनफिंग के रवैये को चुनौती दी गई है। तिब्बत को चीन का ‘अविभाज्य अंग’ बताने, उससे जुड़े हर सवाल को चीन का ‘आंतरिक’ विषय कहने, तिब्बत की चर्चा मात्र पर आंखें तरेरने वाले एवं तिब्बत और अपनी ‘वन-चाइना’ पालिसी को लेकर अति आग्रही चिनफिंग की इससे जुड़ी नीतियों को नए कानून में अमान्य ठहराया गया है।

इसमें चीन के हर उस दावे को झूठा घोषित किया गया है, जिन्हें पिछले 40 साल से चीन सरकार दलाई लामा के साथ वार्ता की मूलभूत शर्तों के रूप में पेश करती आई है। इसमें स्पष्ट रूप से रेखांकित किया गया है कि तिब्बत एक कब्जाया हुआ देश है और वह इतिहास में कभी चीन का हिस्सा नहीं रहा। चीन सरकार तिब्बत की निर्वासित सरकार के साथ बातचीत में तिब्बत की परिभाषा को मात्र ‘तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र’ (टार) तक सीमित मानती है, जबकि अमेरिकी कानून में ‘तिब्बत’ के दायरे में उसके खम एवं आम्दो प्रांतों के उन हिस्सों को भी शामिल किया गया है, जिन्हें तिब्बत को कब्जाने के बाद उन्हें तिब्बत से काटकर यून्नान, सिचुआन, चिंघाई और गांसू जैसी सीमावर्ती चीनी प्रांतों में मिला दिया गया।

नए कानून में धर्मशाला-बीजिंग की प्रस्तावित शांति वार्ताओं में तिब्बत की ओर से न केवल दलाई लामा और उनके प्रतिनिधियों को भाग लेने का अधिकारी माना गया है, बल्कि अब धर्मशाला में तिब्बती जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों को भी इसमें शामिल करके केंद्रीय तिब्बती प्रशासन को ‘तिब्बती सरकार’ जैसी परोक्ष मान्यता भी दी गई है। दलाई लामा के अगले अवतार को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का क्षेत्राधिकार घोषित करने पर तुले हुए चिनफिंग के जले पर नमक छिड़कते हुए उक्त कानून में स्पष्ट कहा गया है कि दलाई लामा या अन्य अवतारी लामाओं की खोज करने और उनकी नियुक्ति तथा शिक्षा-दीक्षा का एकमात्र अधिकार दलाई लामा और तिब्बती समुदाय का है।

यदि इस मामले में चीन का कोई हस्तक्षेप पाया गया तो अमेरिकी राष्ट्रपति और संबंधित अमेरिकी एजेंसियों की यह कानूनी जिम्मदारी होगी कि वे ऐसे सभी चीनी अधिकारियों पर जरूरी प्रतिबंध लगाएं। यह कानून अमेरिकी सरकार को तिब्बत के मामले में चीन के प्रत्येक दुष्प्रचार का जवाब देने और तिब्बत के समर्थन में वैश्विक समर्थन जुटाने के लिए दूसरे देशों के साथ मिलकर एक अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक संगठन बनाने का भी निर्देश देता है। तिब्बत को लेकर अमेरिकी सरकार एकाएक नहीं जागी। तिब्बत के समर्थन में अमेरिकी संसद दर्जनों बार कई कानून और प्रशासनिक आदेश पारित कर चुकी है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में तिब्बत के समर्थन में 1959, 1961 और 1965 के दौरान प्रस्ताव पारित कराने में अमेरिका ने शुरुआती प्रयास किए थे, लेकिन फिर चीन के साथ गलबहियां बढ़ाने के चलते तिब्बत का मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया।

नए अमेरिकी कानून के कुछ प्रविधान भारत, नेपाल, भूटान और अन्य एशियाई देशों को चीन की दादागीरी से राहत दिलाने की राह दिखाने वाले हैं। इनमें सबसे प्रमुख मुद्दा है दलाई लामा के अगले अवतार पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के एकाधिकार को चुनौती। इन तीनों देशों के समक्ष एक खतरा यह है कि अगर चीन सरकार अगले दलाई लामा और अन्य अवतारी लामाओं पर अपने नियंत्रण में सफल हो गई तो तिब्बती बौद्ध प्रभाव वाले पूरे हिमालयी क्षेत्र में चीनी दखल बढ़ जाएगा। इससे वहां चीन के लिए उथल पुथल बढ़ाने का रास्ता खुल जाएगा।

तिब्बत-चीन विवाद में धर्मशाला के निर्वासित तिब्बती प्रशासन को अमेरिकी मान्यता से इन देशों को तसल्ली मिल जाएगी कि वर्तमान दलाई लामा के बाद चीन को तिब्बत में पूरी मनमानी करने और इन देशों के बौद्ध क्षेत्रों पर आक्रामकता बढ़ाने की छूट नहीं मिल पाएगी। तिब्बत को लेकर अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक लामबंदी की पहल से भी इन एशियाई देशों और विशेष रूप से भारत को एक ऐसा शक्तिशाली मंच उपलब्ध होगा, जहां से वह चीनी दबंगई को चुनौती दे पाएगा। भारत को भी अब तिब्बत पर अपनी नीति बदलनी होगी। चीनी आक्रामकता के शिकार भारत और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों को तिब्बत के सवाल को धार देनी होगी।

भारत के लिए तो नया अमेरिकी कानून ऐसा अनुकूल अवसर सिद्ध हो सकता है, जिसकी कमी उसे पिछले 70 वर्षों से खटकती आ रही थी। आज भारत को भलीभांति समझ आ चुका है कि वह हिमालयी क्षेत्र में चीनी दादागीरी का केवल इसीलिए शिकार हो रहा है, क्योंकि तिब्बत पर कब्जा जमाने के बाद चीनी सेनाएं भारत की सीमा तक आ पहुंची हैं। चीन अभी तिब्बत को अपनी छावनी की तरह इस्तेमाल कर रहा है। ऐसे में यदि अमेरिका की पहल पर तिब्बत को चीन से मुक्ति मिल जाती है तो न केवल भारत, बल्कि नेपाल और भूटान भी चीन की दादगीरी से मुक्त हो जाएंगे।

(लेखक सेंटर फार हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)